गजानन माधव मुक्तिबोध के कुछ उद्धरण ::
जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि एक विशेष शैली को दूसरी शैली के विरुद्ध स्थापित करती है।
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सौंदर्यानुभूति, मनुष्य की अपने से परे जाने की, व्यक्ति-सत्ता का परिहार कर लेने की, आत्मबद्ध दशा से मुक्त होने की, मूल प्रवृत्ति से संबद्ध है।
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संस्कृति का नेतृत्व करना जिस वर्ग के हाथ में होता है, वह समाज और संस्कृति के क्षेत्र में अपनी भाव-धारा और अपनी जीवन-दृष्टि का इतना अधिक प्रचार करता है, कि उसकी एक परंपरा बन जाती है। यह परंपरा भी इतनी पुष्ट, इतनी भावोन्मेषपूर्ण और विश्व-दृष्टि-समन्वित होती है, कि समाज का प्रत्येक वर्ग आच्छन्न हो जाता है।
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जिज्ञासावाला व्यक्ति एक बर्बर असभ्य मनुष्य होता है। वह आदिम असभ्य मानव की भाँति हरेक जड़ी और वनस्पति चखकर देखना चाहता है। ज़हरीली वस्तु चखने का ख़तरा वह मोल ले लेता है। वह अपना ही दुश्मन होता है। वह अजीब, विचित्र, गंभीर और हास्यास्पद परिस्थिति में फँस जाता है।
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कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव-क्षण। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना, मानो वह फैंटेसी अपनी आँखों के सामने ही खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है, इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता।
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बड़ी और बहुत बड़ी ज़िंदगी जीना तभी हो सकता है, जब हम मानव की केंद्रीय प्रक्रियाओं के अविभाज्य और अनिवार्य अंग बनकर जिएँ।
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सच्चा लेखक जितनी बड़ी ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ले लेता है, स्वयं को उतना अधिक तुच्छ अनुभव करता है।
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जहाँ मेरा हृदय है, वहीं मेरा भाग्य है!
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जो व्यक्ति ज्ञान की उपलब्धि का सौभाग्य प्राप्त करके भी यदि अपने जीवन में असफल रहा आया, अर्थात् कीर्ति, प्रतिष्ठा और ऊँचा पद न प्राप्त कर सका, तो उस व्यक्ति को सिरफिरा दिमाग़ी फ़ितूरवाला नहीं तो और क्या कहा जाएगा! अधिक से अधिक वह तिरस्करणीय, और कम से कम वह दयनीय है—उपेक्षणीय भले ही न हो।
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आहतों का भी अपना एक अहंकार होता है।
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नहीं होती, कहीं भी ख़त्म कविता नहीं होती कि वह आवेग त्वरित काल-यात्री है।
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दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है।
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अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे। तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
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अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया!
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जन संग ऊष्मा के बिना, व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते।
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अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते।
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फिर वही यात्रा सुदूर की, फिर वही भटकती हुई खोज भरपूर की, कि वही आत्मचेतस् अंतःसंभावना, …जाने किन ख़तरों में जूझे ज़िंदगी!
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गजानन माधव मुक्तिबोध (13 नवंबर 1917-11 सितंबर 1964) हमारे विचार-संसार में कभी न भुलाए जा सकने वाले एक विराट व्यक्तित्व हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘मुक्तिबोध के उद्धरण’ (चयन और संपादन : प्रभात त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण : 2017) शीर्षक पुस्तक से चुने गए हैं। इस पुस्तक की भूमिका में व्यक्त प्रभात त्रिपाठी के ये वाक्य ध्यान देने योग्य हैं : ‘‘इन उद्धरणों के पाठ से, जिज्ञासु पाठकों का ध्यान मुक्तिबोध के समग्र साहित्य के गंभीर अध्ययन के प्रति आकर्षित होगा और यह शायद हम सभी शिद्धत से महसूस करते हैं कि मुक्तिबोध के साहित्य का गहन अध्ययन और उस पर गंभीर बहस, हमारे समय के लिए ज़रूरी और प्रासंगिक ही नहीं, बल्कि आज के विकराल सांस्कृतिक प्रदूषण के प्रतिरोध के लिए, रचनात्मक संघर्ष की सबसे सार्थक दिशा और राह भी है।’’ मुक्तिबोध का एक पत्र यहाँ पढ़ें :