अज्ञेय के कुछ उद्धरण ::

सर्जन एक यंत्रणा भरी प्रक्रिया है। ‘भोगने वाले व्यक्ति’ और ‘रचने वाली मनीषा’ के अलगाव की पुरानी चर्चा में जब कहा गया था कि दोनों के बीच एक दूरी है और जितना बड़ा कलाकार होगा उतनी अधिक दूरी होगी, तब यह नहीं स्पष्ट किया गया था कि दूरी लाने की यह प्रक्रिया भी—और वही तो सर्जन-प्रक्रिया है!—कष्टमय है। न यही बताया गया था कि बड़ी दूरी ही आवश्यक है या कि जो भोगा गया (और जिससे दूरी चाही गई) उसका भी बड़ा होना आवश्यक है? दूसरे शब्दों में क्या भावों से उन्मोचन ही महत्त्वपूर्ण है, या कि इसका भी कुछ मूल्य है कि वे भाव कितने प्रबल थे?
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जो साहित्य या काव्य अपने समय की चिंताओं को, संदेहों को व्यक्त करता है, मूल्यों का संकट पहचान कर उन नए मूल्यों को पाने को छटपटाता है जो इस संकट के पार बचे रह सकते हैं, वही आज का साहित्य है।
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नंगा होने, नंगे हो जाने, नंगा करने में फ़र्क़ है। गहरा फ़र्क़। शिशु और जंतु का नंगा होना सहजावस्था है; आदमी जब नंगा हो जाता है तब वह ग्लानि अथवा अपमान की स्थिति होती है। स्त्री जब नंगी की जाती है तब वह भी अपमान और जुगुप्सा की स्थिति होती है—या आपकी बुद्धि वैसी हो तो हँसी की हो सकती है। स्त्री का लहँगा उतारना, या बँदरिया को लहँगा पहनाना—दोनों इन प्राणियों की प्रकृत परिविष्ट अवस्था को हीन दृष्टि से देखने के परिणाम हैं।
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अकेले बैठना, चुप बैठना—इस प्रश्न की चिंता से मुक्त होकर बैठना कि ‘क्या सोच रहे हो?’—यह भी एक सुख है।
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सोचने से ही सब कुछ नहीं होता—न सोचते हुए मन को चुपचाप खुला छोड़ देने से भी कुछ होता है—वह भी सृजन का पक्ष है। कपड़े पहनने ही के लिए नहीं हैं—उतार कर रखना भी होता है कि धुल सकें।
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यह रोज़ का क़िस्सा है। मंत्री महोदय अपनी गणना में यह भूल गए हैं कि उनकी अपनी मीयाद बँधी है।
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अभिनंदन उस सलीब का होता है जो प्रतीक बन चुका है। और प्रतीक की ढुलाई करने वाला बस उतना ही है—यानी प्रतीक की ढुलाई करने वाला। यह बिल्कुल ‘डिस्पेंसेबल’ है—उसकी जगह कोई दूसरा ले सकता है, क्योंकि प्राणवत्ता तब प्रतीक में जा चुकी है, भारवाही में नहीं।
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किसी को ठीक-ठीक पहचानना है तो उसे दूसरों की बुराई करते सुनो। ध्यान से सुनो।
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कोई भी मार्ग छोड़ा जा सकता है, बदला जा सकता है : पथ-भ्रष्ट होना कुछ नहीं होता, अगर लक्ष्य-भ्रष्ट न हुए।
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वह क्यों चीज़ों को बाहर से छुए जो उनके भीतर से धधक कर उन्हें दीप्त कर देता है?
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साहित्य तुम्हारी तुम्हीं से पहचान और गहरी करता है : तुम्हारी संवेदना की परतें उधेड़ता है जिससे तुम्हारा जीना अधिक जीवंत होता है और यह सहारा साहित्य दे सकता है; उससे अलग साहित्यकार व्यक्ति नहीं। उससे सहारा चाहना अपने संवेदन को उसके संवेदन की परिधि में बाँधना चाहना है। वह मुक्ति नहीं देगा। तुम्हारी मुक्ति तुम्हारी मुक्ति है; किसी दूसरे के देने से वह नहीं मिलेगी।
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हम ‘महान साहित्य’ और ‘महान लेखक’ की चर्चा तो बहुत करते हैं। पर क्या ‘महान पाठक’ भी होता है? या क्यों नहीं होता, या होना चाहिए? क्या जो समाज लेखक से ‘महान साहित्य’ की माँग करता है, उससे लेखक भी पलट कर यह नहीं पूछ सकता कि ‘क्या तुम महान समाज हो?’
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नकार के मौन में तूफ़ान की-सी गडग़ड़ाहट हो सकती है!
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एक निगाह से देखना कलाकार की निगाह से देखना नहीं है।
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सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (7 मार्च 1911-4 अप्रैल 1987) हिंदी के समादृत साहित्यकार हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनकी डायरी से चुने गए हैं।