शुरुआत ::
आग्नेय
कवि सपनों में जीता है, इसलिए थोड़ी देर के लिए मुझे भी अनुमति दें कि मैं भी सपनों में साँस ले सकूँ और जी सकूँ जब तक इस शुरुआत का अंत नहीं हो जाता। दरअसल, कई बार मुझे लगता है—अपनी जाग्रत अवस्था में, अपनी निद्रा में, अपने स्वप्न में—मैं एक मरुस्थल की यात्रा पर चल पड़ा हूँ। वह मरुस्थल सहारा की तरह अनंत है। मैं इस यात्रा में अपने साथ ऐसा कुछ भी नहीं ले जा रहा हूँ, जो मुझे उस मरुस्थल को पार करने में मदद करे। क्योंकि मैं जानता हूँ : मेरी यह यात्रा इतनी लंबी है कि सब कुछ पहले ही ख़त्म हो चुका होगा—यात्रांत होने से पहले ही। मेरे चारों ओर रेत के ढूह, रेत के टीले, रेत के बवंडर हैं। अचानक मुझे किसी सरिता की कलकल सुनाई देती है, जैसे वह कहीं क़रीब ही बह रही है। इस कलकल को सुनकर मेरे पैरों की गति तेज़ हो जाती है, और मैं एक जगह ठिठक जाता हूँ और देखता हूँ कि मरुस्थल के बीच एक नदी कलकल करती हुई बहती जा रही है।
मरुस्थल के बीच कलकल करती हुई सदानीरा—यह मेरा स्वप्न है जिसे मैंने अपने जीवन के सूर्यास्त में देखना शुरू किया। कई बार मुझे एहसास होता है कि यह स्वप्न नहीं है, यह मृग-मरीचिका है और मुझे अपनी सेनिटी (sanity) को बचाए रखना है। जैसा कि मैंने पहले ही लिखा : कवि सपनों में जीता है, मैं भी सपनों के पार—सपनों के उस पार जो यथार्थ होता है—जो सच होता है उसको देखना चाहता हूँ। आज मैं जिस सदानीरा के बारे में लिखने जा रहा हूँ, वह कोई स्वप्न नहीं है, कोई मृग-मरीचिका नहीं है। वह एक स्वप्न का सच हो जाना है। वह सदानीरा का होना है।
जब ‘सदानीरा’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ, उस समय मैं अपनी आयु के पचहत्तर वर्ष पार कर चुका था। यह उम्र का वह पड़ाव होता है, जब लोग स्वप्न देखना बंद कर देते हैं। यह कुछ अजीब था कि मैं एक नया स्वप्न देख रहा था और उसे यथार्थ में बदलने की कोशिश कर रहा था। ऐसा नहीं है कि पहले कभी इस तरह के स्वप्न देखे ही नहीं गए। साल 1912 में अमेरिका में हेरिएट मनरो ने ‘पोएट्री’ पत्रिका को प्रकाशित किया। 1953 में मोंपारनास के एक अपार्टमेंट में तीन मित्रों—जार्ज प्लिम्पटन, हेराल्ड एल. ह्यूम और पीटर मेरथिस्सन—ने ‘द पेरिस रिव्यू’ के स्वप्न को साकार किया। 1965 में टेड ह्यूज़ ने ‘मॉडर्न पोएट्री इन ट्रांसलेशन’ को निकालकर संसार की अनेक भाषाओं में लिखी जाने वाली कविता को कविता-प्रेमियों के सामने ला दिया। हिंदी में प्रकाश जैन द्वारा संपादित पत्रिका ‘लहर’ ने कविता की पताका फहराई। ज्ञानरंजन की ‘पहल’ ने भी पहली बार संसार के कई महत्वपूर्ण कवियों के अनुवाद प्रकाशित करके हिंदी की कविता-धारा को ही बदल दिया। वंशी माहेश्वरी द्वारा संपादित ‘तनाव’ की भी इस क्रम में एक उल्लेखनीय भूमिका रही।
आज ‘सदानीरा’ अपने जीवन के छह साल पूरे कर चुकी है और सातवें में प्रवेश कर रही है। इस बीच उसने अपना रंग-रूप भी बदला और प्रिंट के साथ-साथ डिजिटल संसार में भी अपना विस्तार किया।
संभवतः यह अब वह समय है कि हम इस पत्रिका की यात्रा पर सोच-विचार करें और देखें कि वह सदानीरा की तरह कलकल करती क्या अब भी बह रही है? इसमें कोई संदेह नहीं कि युवा रचनाकारों के लिए वह अभिव्यक्ति का एक अनिवार्य मंच बन चुकी है। ‘सदानीरा’ उनकी पहली पसंद है, जहाँ वे अपनी रचनाओं को प्रकाशित देखना चाहते हैं। इस तरह का मंच हो जाना हमारे लिए कोई मामूली उपलब्धि नहीं है।
इस वक़्त में ‘सदानीरा’ का अभिव्यक्ति के एक व्यापक स्थल के रूप में सामने आना हमें सिर्फ़ संतोष और उत्साह ही नहीं दे रहा, बल्कि एक ऐसी उम्मीद से भर रहा है कि जो भी छूट गया है, जो भी जुड़ने से रह गया है; उसे अवश्य ही पाया और जोड़ा जा सकता है—और वह है : उसकी निरंतरता, उसका और अधिक खुलापन, साहित्यिक मूल्यों के प्रति उसकी और अधिक प्रतिबद्धता और अभिव्यक्ति की संपूर्ण स्वाधीनता। इसके साथ ही हम यह भी भूलना नहीं चाहते हैं कि हमारे समीप साधन सीमित हैं और इच्छाशक्ति और परिकल्पना से भरे स्वप्न, संघर्ष और श्रम के अतिरिक्त हमारे पास और कोई पूँजी नहीं है। यह हमारा एकमात्र निवेश है—उसके अस्तित्व को बचाए रखने के लिए।
‘सदानीरा’ वर्तमान और सेवानिवृत्त नौकरशाहों की कृपा, उनके आशीर्वाद और उनकी यश-लिप्सा से संचालित नहीं है; और न वह किसी सत्ता, संस्थान-प्रतिष्ठान की गौरव-गाथा का बखान करती है; और न वह पूँजीपतियों-दानदाताओं की सदिच्छा पर आश्रित है। उसकी आशा और शक्ति उसके रचनाकार और पाठक हैं जो दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं।
दरअसल, कुछ वर्षों से हिंदी-कविता का परिदृश्य श्मशान का परिदृश्य बन चुका था। ऐसा लगता था कि कुल चार-पाँच कवि अपनी व्यक्ति-पूजा के लिए हिंदी-कविता के पाठकों का उपयोग कर रहे हैं। वे ऐसा इसलिए कर पा रहे थे क्योंकि उनका लेखक-संगठनों से गहरा रिश्ता था, उनकी साहित्यिक माफ़िया से साठ-गाँठ थी और इस सबसे भी अधिक वे सत्ता-संरचना और प्रतिष्ठानों को चलाने वाले नौकरशाहों के दलाल और ग़ुलाम बन चुके थे। उनका समय हिंदी कविता का सबसे सर्वग्रासी और एकांगी समय था। एक तरफ़ वे अपनी कविता के मार्फ़त सब कुछ पा रहे थे, दूसरी ओर कई महत्वपूर्ण कवियों को इस दौर में नज़रअंदाज़ कर दिया गया और हिंदी-कविता की मुख्यधारा या कहें हिंदी-कविता की सदानीरा से बाहर निकाल दिया गया। इस तरह हिंदी-कविता सदानीरा की जगह पोखर-डबरा बना दी गई।
…और इसलिए ही यह ज़रूरी हो गया था कि इस पोखर-डबरे को सदानीरा बनाया जाए। कविता की खोई हुई और विलुप्त सरस्वती को अवतरित किया जाए और वह इतनी समावेशी और पारदर्शी हो कि उसमें विश्व की संपूर्ण कविता को पढ़ने और पाने की गुंजाइश हो। विशेषकर युवा रचनाशीलता के लिए वहाँ सर्वाधिक स्पेस हो।
हमें यह बेहद आश्वस्त कर रहा है कि अब तक ‘सदानीरा’ में जिन युवा रचनाकारों को प्रकाशित किया गया है और आगे भी किया जाता रहेगा, उनसे ही कविता की गौरवशाली परंपरा ‘सदानीरा’ बनी रहेगी।
‘सदानीरा’ के 22वें अंक में प्रकाशित। आग्नेय हिंदी के समादृत कवि-अनुवादक और ‘सदानीरा’ के प्रधान संपादक हैं। उनसे agneya@hotmail.com पर बात की जा सकती है।