यूटी की किताबशाला में ‘शेखर एक जीवनी’ ::
यूनिवर्सिटी थिएटर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रों का रंग समूह है। इसका उद्देश्य विश्वविद्यालय में सीखने की प्रक्रिया को रोचक अनुभव बनाना है, रंगमंच इसके केंद्र में है और चूँकि रंगमंच सभी कलाओं और विधाओं का समुच्चय है तो समूह की दिलचस्पी का क्षेत्र व्यापक है। यह समूह अब तक दो रंग प्रस्तुतियाँ कर चुका है, जिसके अंतर्गत शिवमूर्ति और हरिशंकर परसाई की कहानियों और महात्मा गांधी के जीवन से जुड़ी एक प्रस्तुति हुई है—‘जब वी मेट गांधी’। इन गतिविधियों के सिलसिले में ‘यूटी की किताबशाला’ एक नई पहल है, जिसमें समूह का एक सदस्य अपनी मर्ज़ी से किसी किताब का चुनाव करता है और उस पर प्रस्तुति करता है, फिर सवाल-जवाब का सत्र होता है। यह एक साप्ताहिक शृंखला है। यहाँ यह ध्यान दिलाना आवश्यक है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय और इलाहाबाद में पाठ पर इस तरह विमर्श करने की समृद्ध परंपरा रही है। इस शृंखला के अंतर्गत अब तक दोस्तोयेवस्की के ‘नोट्स फ्रॉम अंडरग्राउंड’ और अज्ञेय कृत ‘शेखर एक जीवनी’ (प्रथम खंड) पर चर्चा हुई है। चूँकि यूनिवर्सिटी थिएटर प्रक्रिया में विश्वास करता है तो हम इस प्रक्रिया को भी दर्ज करते हैं। ‘शेखर एक जीवनी’ पर प्रस्तुति की है—प्रकाश पाठक ने जो बीए द्वितीय वर्ष के छात्र हैं। यहाँ सवाल पूछने वालों के नाम नहीं दिए जा रहे हैं, ताकि ध्यान सवाल-जवाब पर रहे। हमारी कोशिश रहेगी कि हम आगे भी ‘किताबशाला’ में हुई चर्चा को आप तक पहुँचा सकें। इस प्रक्रिया को दर्ज भी प्रकाश पाठक ने किया है।
[ अमितेश कुमार ]
यूटी की किताबशाला में : शेखर एक जीवनी (पहला भाग)
‘शेखर एक जीवनी’ हिंदी साहित्य का अत्यंत चर्चित उपन्यास है। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का यह पहला उपन्यास है और वह इसके ही माध्यम से उपन्यास के जगत में प्रवेश करते हैं। यह उपन्यास दो खंडों में विभाजित है, लेकिन इसके पहले खंड की प्रस्तावना में अज्ञेय इसे तीन खंड में सामने लाने की बात करते हैं।
अज्ञेय प्रयोगवादी साहित्यकार हैं। साहित्य की सभी विधाओं में उन्होंने प्रयोग किए हैं। ‘शेखर एक जीवनी’ को हिंदी में पहला प्रयोगवादी उपन्यास कह सकते हैं। यह हिंदी का पहला आधुनिक उपन्यास है। यह मिश्रित शिल्प का उदाहरण है—फ़ोटोग्राफी, चित्रकला, मूर्तिकला, कविता और मनोविश्लेषण पद्धति का प्रयोग करके इस उपन्यास को रचा गया है। यह भारतीय उपन्यासों में इससे पहले कभी नहीं हुआ था।
शेखर व्यक्ति के मानस का विश्लेषण है। यह विश्लेषण एक सामान्य व्यक्ति का नहीं, एक विद्रोही व्यक्ति का है; एक ऐसे व्यक्ति का जो सवाल करता है, जिसके अंदर जिज्ञासा है। कथा-क्रम का जो शिल्प वर्षों से चला आ रहा था, अज्ञेय उसे तोड़ते हुए फ्लैशबैक के माध्यम से इस उपन्यास की कथा को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें स्मृतियाँ प्रधान हैं। स्मृतियाँ क्रम से नहीं बिना क्रम के आती हैं—पहले वह जो सबसे तीखी है, बुरी है… फिर वह जो सुखद है।
इस उपन्यास में शेखर को पात्र बनाकर उसके जीवन के इर्द-गिर्द उसका मनोविश्लेषण किया गया है। उसके बाल्यकाल और किशोरावस्था का प्रमुख रूप से मनोविश्लेषण किया गया है। मनोविज्ञान जगत के जनक सिग्मंड फ्रायड के अनुसार व्यक्ति का बचपन और किशोरावस्था—ये दो समय अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हैं, उसके जीवन निर्माण के लिए।
शेखर एक ऐसा पात्र है जो अहं की भावना से भरा हुआ है। जीवन में हर तरह की घटित हो रही घटना का शेखर ख़ुद को केंद्र मानता है। शेखर बहुत ही जिज्ञासु है। वह अपने बाल्यकाल में ख़ूब सवाल पूछता है और उन सवालों के जवाब न मिलने पर घंटों एकांत में बैठकर उन पर मंथन करता है, विचार करता है। धीरे-धीरे उसे अपने एकांत से प्रेम हो जाता है और वह अपना अधिकतम समय एकांत में ही बिताता है। शेखर के जीवन में घृणा का भाव बहुत है, लेकिन जब वह अपनी यादों को खँगाल रहा होता है तो पाता है कि उसके जीवन में प्रेम भी बहुत अधिक मात्रा में है और कहीं न कहीं प्रेम घृणा से ज़्यादा है। शेखर का जीवन नीरसता से भरा हुआ है। शेखर जीवन में तीन बार आत्महत्या का प्रयास करता है। वह दो बार अपना घर छोड़कर भी भाग जाता है। शेखर स्वभाव से मूलत: एक विद्रोही है जिसे अज्ञेय ने क्रांतिकारी कहा है। शेखर का विद्रोह अपने ही परिवार के सदस्यों से होता है, जब उसे अपने सवालों के संतोषजनक जवाब नहीं मिलते। शेखर का विद्रोह ईश्वर के प्रति होता है, जब वह देखता है कि ईश्वर की देखरेख में संसार की सभी बुरी घटनाएँ घट रही है। शेखर का विद्रोह उन जवाबों के प्रति होता है, जिनमें तर्कशील विवेक का अभाव है।
‘शेखर एक जीवनी’ को अज्ञेय ने उन दिनों में लिखा था, जिन दिनों वह जेल में थे। इसका मूलभूत ढाँचा उन्होंने मात्र चार दिन में ही तैयार कर दिया था, जिसके बाद उन्होंने दस वर्ष लगाए थे इसको सुंदर आकार देने में। ‘शेखर एक जीवनी’ रचा तो 1941 में गया था, लेकिन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि 1941 में था।
शेखर एक मध्यवर्गीय परिवार का लड़का है, इसलिए उसके जीवन की घटनाएँ साधारण व्यक्ति के जीवन से बहुत मिलती-जुलती है। जिन सवालों के जवाब पाने के लिए शेखर व्याकुल रहता है, उन सभी सवालों से हम सभी अपने बचपन और किशोरावस्था में कभी न कभी गुज़रते हैं। जिस तरह के जवाब शेखर को उसके सवालों के लिए जाते हैं, वैसे ही जवाब हमें भी कभी न कभी अपने जीवन में मिले हैं।
सवाल-जवाब
शेखर के विद्रोह क्षणिक क्यों है?
शेखर का विद्रोह क्षणिक नहीं है। विद्रोह तो वह पूरे बचपन में और किशोरावस्था तक करता ही रहता है, लेकिन मैंने यह कहा कि शेखर का जो विद्रोह है वह किसी एक ठोस मुद्दे के इर्द-गिर्द नहीं है जिसकी वजह से वह क्रांति में तब्दील नहीं हो पाता है और यही कारण है कि अपने बाल्यकाल और किशोरावस्था में शेखर विद्रोही अधिक और क्रांतिकारी कम है।
शेखर के समकालीन लेखकों से तुलना करो?
मैंने अज्ञेय के समकालीन लेखकों को नहीं पढ़ा है, इसलिए मैं कोई तुलना नहीं कर सकता, लेकिन यह ज़रूर लगता है कि अज्ञेय ‘शेखर एक जीवनी’ के माध्यम से प्रेमचंद के समय से चली आ रही प्रेमचंद से प्रभावित उपन्यास की परंपरा को तोड़ते हैं और जिससे भाषा में बदलाव आता है। अज्ञेय की भाषा प्रेमचंद से ज़्यादा तत्सम है। उपन्यास सिर्फ़ और सिर्फ़ यथार्थवाद ही नहीं है! यह एक अलग धारा का उपन्यास भी है।
शेखर में ऊर्जा बहुत है, पर दिशा नहीं है; ऐसा क्यों?
बचपन और किशोरावस्था के जिस समय को प्रधान रूप से रखकर शेखर का विश्लेषण किया गया है, उस समय सभी के साथ ऐसा होता है। हम ऊर्जा से भरे होते हैं, लेकिन हमारे पास कोई एक दिशा नहीं होती। हमारे पास कोई एक मुद्दा नहीं होता जिसका विरोध पुरज़ोर तरीक़े से कर सकें।
शेखर का अपनी माँ के साथ कैसा संबंध है?
शेखर का अपनी माँ के साथ संबंध उतना अच्छा नहीं है जितना एक बच्चे का अपनी माँ से होता है। शेखर अपने पिता के ज़्यादा क़रीब है। वह अपने पिता को आइडियलाइज करता है। उसके पिता उसको उसकी माँ से ज़्यादा मारते हैं, डाँटते भी हैं; लेकिन इसके बावजूद उसके मन में अपने पिता के प्रति ज़्यादा आदर का भाव है और माँ के प्रति कम। अपने पिता के प्रति अधिक आदरपूर्ण होने का कारण यह है कि शेखर के जीवन में अगर घटित हुई घटनाओं को देखें तो माँ को लेकर जो स्मृतियाँ आई हैं, वे सुखद नहीं हैं। उसे लगता है कि उसकी माँ उसे उतना प्रेम नहीं करती जितना उन्हें करना चाहिए। उसकी माँ का एक वाक्य है : ‘‘मुझे तो डर है कि यह भी कहीं उनकी सबकी तरह ही ना निकल जाए।’’ इस वाक्य की वजह से उसके मन में अपनी माँ के प्रति घृणा का भाव और बढ़ जाता है।
‘शेखर एक जीवनी’ में सोशल पोलिटिकल इकोनॉमिक रिव्यू?
इकोनॉमिक रिव्यू के बारे में मैं क्या कहूँ? शेखर के जीवन के ऐसा कुछ नज़र आता नहीं है उपन्यास में। लेकिन हाँ सोशल पोलीटिकल लेवल पर शेखर काफ़ी एक्टिव है। वह अपने बचपन से ही विश्वयुद्ध में घटित हो रही घटनाओं से परिचित है। भारत के जो सैनिक लड़ने गए हैं, वह उनके विषय में जानता है। भारत में जो आंदोलन अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चल रहे हैं, वह उनसे परिचित है। वह महात्मा गांधी के आदर्शों को मानता है और उनका बहुत बड़ा प्रशंसक है। किशोरावस्था में वह अपने कपड़ों को अपने आँगन में जाकर जला देता है। यहाँ तक कि वह अपने पिता के सारे विदेशी कपड़ों को भी आँगन में ले जाकर जला देता है, जिसके लिए उसे ख़ूब पीटा जाता है। ये सारी चीज़ें हैं जो साबित करती हैं कि शेखर राजनीतिक और सामाजिक रूप से जागरूक है।
शेखर आत्मकेंद्रित है?
अपने बचपन में तो उतना नहीं लगता है, लेकिन किशोरावस्था में जिस समय वह हॉस्टल में होता है—बहुत आत्मकेंद्रित है। आप देखिए अगर जीवन का उसका दस से सोलह-सत्रह-अठारह की उम्र तक का जो क्रम है, उसमें शेखर आत्मकेंद्रित है। जैसे कि वह एक फूल के नाम से ग्रुप स्टार्ट करता है और वह फूल अपने शर्ट में लगाकर घूमता है, लेकिन जब उसे ऐसा लगता है कि कॉलेज की सारी लड़कियाँ और क्लास की सारी लड़कियों का ध्यान उसकी ओर केंद्रित है तो फूल हटा देता है; फिर उसके बाद उसे नज़र आता है कि हटाने के बावजूद और ध्यान दिया जा रहा है। अपने सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स के दबाव में आकर अपने दोस्त की आर्थिक रूप से मदद करता है, जिसके लिए वह अपने पिता से पैसे माँगता है। पिता के मना कर देने के बाद खुन्नस से भर जाता है। अपने अहं-भाव के चलते ही ब्राह्मणों के हॉस्पिटल में जब वह रहता है, तब मुद्दा उठता है कि वह ब्राह्मण नहीं है। इस मामले में फ़ैला उसके पक्ष में ही जाता है, लेकिन इसके बावजूद वह ब्राह्मणों का हॉस्टल छोड़ देता है और दलितों के हॉस्टल में जाकर रहने लगता है। इन बातों से ऐसा लगता है कि शेखर अहं-भाव से भरा है।
कलाकार पैदा होता है या वह बनता है, इसको स्पष्ट करिए शेखर के प्रसंग में?
कलाकार बेशक पैदा होता है… यह शेखर का बयान है, और शेखर भी एक कलाकार है। बचपन से ही वह किताब बनाता है, बहुत ही कम उम्र में और उसको प्रकाशित कराने की भी हसरत रखता है। इसके अलावा शेखर कविताएँ लिखता है। वह कविताओं को पसंद करता है। उसे सिर्फ़ हिंदी ही नहीं अँग्रेज़ी की कविताओं से भी प्रेम है।
शेखर का अंत कैसा है, आपके हिसाब से?
उलझन से भरा है। क्लाइमेक्स नहीं है, क्योंकि उसके बाद अगला भाग भी है। लेकिन अगर सिर्फ़ इस भाग को ही पढ़ा जाए तो कुछ अधूरेपन के साथ अंत पूरा लगता है।
शेखर का प्रेम कैसा है?
निश्छल, निःस्वार्थ, पावन प्रेम; जैसा किशोरावस्था में होता है।
संगठन को लेकर वह निराशावादी क्यों है?
संगठन ख़ुद शेखर ने खड़ा किया है। उसे यह भी पता है कि कुछ समय के बाद संगठन से जुड़े लोग हाथ पीछे खींचने लगते है, जिससे वह बिखर जाता है। इसीलिए शेखर निराशावादी है और उसे डर है संगठन के बिखर जाने का।
कविता ऐसे लिखो जैसे कहानी, कहानी ऐसे लिखो जैसे कविता… शेखर में ऐसा है तो क्यों?
शेखर की कथा में काव्यात्मकता है कि नहीं, यह मैं नहीं कह सकता… लेकिन इसमें काव्य का प्रमुख गुण—बिंब-निर्माण; तो कमाल का है।
शेखर की विशेषता?
शेखर सवाल करता है। वह सोचता है और जवाब ढूँढ़ने के लिए उत्सुक रहता है।
शेखर और अज्ञेय की बारीक रेखा?
शेखर मेरे हिसाब से तो अज्ञेय ही हैं। जिन-जिन जगहों पर अज्ञेय ने जीवन बिताया, शेखर के जीवन का घटनाक्रम भी उन्हीं जगहों पर है, जैसे : चेन्नई, जम्मू-कश्मीर, पंजाब। शेखर के दो बड़े भाई, एक बड़ी बहन और एक छोटा भाई है… ऐसा ही अज्ञेय के जीवन में भी था। इतनी समानता की वजह से भले ही अज्ञेय यह कहें कि शेखर उनकी कथा नहीं है, पर मेरे हिसाब से उनका जीवन और उसकी तमाम घटनाएँ शेखर में उन्होंने शामिल की होंगी।
शेखर बाय सेक्सुअल और होमोसेक्सुअल था?
शेखर ऐसा बिल्कुल नहीं है, क्योंकि उसका स्त्रियों के प्रति झुकाव पुरुषों से ज़्यादा है। जिस घटना को उपन्यास में दिखाया गया है, वह पल भर की प्रतिक्रिया थी जिसके बाद शेखर के जीवन में पुरुषों के प्रति कोई यौन-आकर्षण नहीं दिखाया गया है।
यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ को अमितेश कुमार के सौजन्य से प्राप्त हुई है। अमितेश हिंदी रंग-आलोचना में सक्रिय इस दौर के सबसे उज्ज्वल हस्ताक्षर हैं। वह इन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ा रहे हैं और इस क्रम में अकादमिक सार्थकता में कुछ नए अध्याय जोड़ने के लिए विकल हैं। उनसे amitesh0@gmail.com पर बात की जा सकती है।