बातें ::
अभिषेक मजूमदार
से
अमितेश कुमार
दिल्ली में अप्रैल की एक दुपहर, लेकिन गर्मी का असर नहीं था। अभिषेक मजूमदार एक कार्यशाला में थे। मैं कार्यशाला के स्पेस कमानी सभागार के बाहर उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। क्लास के बाद जब वह निकले तो उन्होंने कहा, ‘‘मुझे भूख लगी है, कुछ खाने चलें—बंगाली मार्केट की तरफ़?’’ मेरी सहमति पाकर हम बंगाली मार्केट की तरफ़ बढ़ गए, जहाँ छोले-भटूरे और फिर पान खाकर हम श्रीराम सेंटर की तरफ़ आए, जहाँ अभिषेक को एक पैनल डिस्कशन में भाग लेना था। इस दरमियान ही यह बातचीत संभव हुई।
अभिषेक द्वारा निर्देशित जो पहला नाटक मैंने देखा था—‘कौमुदी’—उसमें एक दार्शनिक गहराई के साथ मिथक, वर्तमान और रंगमंच की प्रक्रियाओं को दर्ज किया गया था। ‘कौमुदी’ में जटिलता बिल्कुल नहीं थी। मैं इसे देखकर चकित रह गया था, क्योंकि ऐसी प्रस्तुति सामयिक रंगमंच में दुर्लभ है।
इसके बाद मैंने ‘मुक्तिधाम’ की तैयारी के बारे में सुना, जिसे मैंने पहले सफ़दर स्टुडियो के स्पेस में देखा और बाद में श्रीराम सेंटर में भी।
‘मुक्तिधाम’ हमारे वर्तमान की समीक्षा है, जिसे इतिहास के एक प्रसंग के माध्यम से प्रस्तुत किया गया था। इसमें भी दार्शनिकता बरकरार थी और अभिनेताओं से काम लेने का हुनर भी।
‘कौमुदी’ और ‘मुक्तिधाम’ दोनों ही नाटक अभिषेक मजूमदार ने लिखे और निर्देशित किए। वह कश्मीर की पृष्ठभूमि पर तीन नाटक लिख चुके हैं। उनके नाटकों की एक किताब ‘तीन नाटक’ शीर्षक से लंदन के ओबेरान पब्लिशिंग से प्रकाशित हुई है। दिल्ली में पले-बढ़े अभिषेक का कार्यस्थल मुख्य रूप से भारत में बेंगलुरु और गौण रूप से दुनिया के अनेक कोनों में है। बेंगलुरु में उन्होंने ‘इंडियन एन्सेम्बल’ नाम से एक समूह बनाया है। यह रंगकर्मियों का समूह है।
[ अमितेश कुमार ]
‘मुक्तिधाम’ में एक शूद्र चरित्र है जिसे बाद में पता चलता है कि वह शूद्र है। वह शूद्र एक संघ बनाता है जो उस पूरे केऑस का ज़िम्मेदार है। अंत में वह महंत भी बनता है। वह जो राजनीति करता है, उसे उसका फल मिलता है। बतौर निर्देशक कास्ट और क्लास का लोकेशन होता ही है, ऐसे में क्या आपको नहीं लगता कि यहाँ शूद्र जाति को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है? क्या यह पोलिटिकली करेक्ट है?
नाटक में वह अकेला शूद्र नहीं है। मुझे लगता है कि अगर नाटक में हम शूद्रों की बात करें, समग्रता में तो वह पोलिटिकल करेक्टनेस है और वो नुआन्स करने की कोशिश भी है। बात यह है कि जो इंसान एंटाइटल्ड है, ब्राह्मण है, वह जब चाहे शूद्रों को एंटाइटल्ड भी कर सकता है। वह उसका इस्तेमाल भी कर रहा है। वह उसका बहिष्कार भी कर रहा है। उस चीज़ को मैं लाने की कोशिश कर रहा हूँ।
एक क्लास ऐसा तैयार हुआ है कि नीची जाति के लोग जो ऊपर आए हैं, वह ब्राह्मणवाद के ही प्रोडक्ट हैं?
वह जगह भी आपने नहीं छोड़ी…
वह भी जो व्यक्ति तैयार हुआ है, वह भी इसी सिस्टम का प्रोडक्ट है।
देखिए, यहाँ बात व्यक्ति पर आ गई। वह तो बड़ा गुणी था, लेकिन वह गुणी क्यों था? आपके सपने में आया न? हर शूद्र महंत के सपने में थोड़े ही आएगा। उसके सपने में आया तो पढ़ा-लिखाकर देख लिया उसको कि वह महापंडित भी बन सकता है, लेकिन उसका क्रेडिट भी उसका नहीं है। उसका क्रेडिट भी उसके सपने में आया इसलिए है।
कई बार इस नाटक का जो subtext है, वह बाहर से आता है, जैसे आज जो कुछ चल रहा है—हम समाज में द्वंद्व देख रहे हैं—धर्म को लेकर। आपके पिछले नाटक में कास्ट का स्ट्रक्चर था और दो पीढ़ियों के ट्रांजिशन का जो द्वंद्व होता है, वह भी था… तो उसको सीधे-सीधे नहीं कहा जा सकता है? वैसे हमारे यहाँ ट्रेंड है थिएटर में भी कि हम मिथ और हिस्ट्री की तरफ़ जाते हैं, लेकिन आप सामयिक विषयों पर रिसर्च करके नाटक कर चुके थे तो ‘कौमुदी’ में आप मिथक की तरफ़ गए और अब आप हिस्ट्री की तरफ़ गए, ऐसा क्यों?
देखिए, हर नाटककार चाहता है कि उसका अगला काम कहीं और से आए। मुझे लगता है कि एक सबसे बड़ी इच्छा तो यही है कि अगला काम पिछले काम से अलग हो। समकालीनता, समाज और मिथक… काफ़ी प्रेरित करते हैं किसी भी लेखक को और निर्देशक को। इंसान इनके ही इर्द-गिर्द घूमता है। इसलिए ही शायद वहाँ बार-बार देखने की ज़रूरत है।
‘मुक्तिधाम’ में स्त्री और शूद्रों की जो हाइरार्किल पोजीशन है, एक तरह से उसको आप दो तरह से प्रश्नांकित कर रहे हैं। एक तो आप हिंदुत्व के कांफ्लिक्ट को दिखा रहे हैं और दूसरा उसके भीतर जो हाइरार्किल स्टेप्स हैं, उनके बीच के इंटरेक्शन आपने प्लॉट में कैसे लिया? एक तरफ हिंदुत्व वर्सेस बौद्ध और दूसरी तरफ़ हिंदुत्व के भीतर की जो वर्ग-श्रेणियाँ है…
हिंदुत्व तो है ही नहीं। हिंदुत्व तो टोटली जर्मन और इटैलियन मॉडल से लिया गया है। पहली बात तो यह मैं दर्शकों तक ले जाना चाहता था अपनी पढ़ाई में भी कि हिंदुत्व का हिंदू धर्म से कोई कनेक्शन है ही नहीं। उसकी हिप्पोक्रेसी भी अलग है। हम किसी भी धर्म की गहराई में जाएँ तो इंसान अपनी पोजीशन और प्रिविलेज से ही उसको एक्सेस कर पाता है या अपनी स्थिति की विवशता से।
नाटक-लेखन में एक फ्लोर पर विकसित हुआ नाटक होता है और एक डिवाइज्ड प्ले होता है और एक पहले से तैयार नाटक होता है… आपका प्रोसेस क्या है?
मेरा प्रोसेस कुटियाट्टम वाला प्रोसेस है। मैं लिखता हूँ फिर अभिनेताओं के साथ इंप्रोवाइज करता हूँ, फिर लिखता हूँ फिर इंप्रोवाइज करता हूँ। हमारा एक नाटक एक डेढ़ साल में बनता है और ऐसे ही बनता है। हम यूरोपियन डिवाइजिंग को डिवाइस कहते हैं। हम कुटियाट्टम, कथकली को डिवाइस नहीं कहते हैं। इसकी कोई वजह नहीं है। कुटियाट्टम में दो अलग-अलग text होते हैं। एक क्रम का टेक्स्ट होता है, एक इंप्रोवाइजेशन का टेक्स्ट होता है, उससे ज़्यादा डिवाइस क्या है? मुझे लगता है कि नाटक में फॉर्म डिवाइस कर सकते हैं। कंटेट अभिनेताओं के साथ डिवाइस करने में मुझे दुविधा ही होती है। मुझे लगता है कि कंटेट उन एक्टर के साथ डिवाइस करिए जो ड्रामाटर्ज के साथ रिसर्चर के साथ डिवाइस करें, हम लोग रिसर्चर के साथ बहुत काम करते हैं। कंटेट में आपको विषय पर भी काम करना पड़ेगा, सिर्फ़ भावनाओं पर तो चलेगा ही नहीं। फिलोसॉफिकल डेप्थ है, फैक्चुअल डेप्थ है… जिसके लिए पढ़ाई-लिखाई होनी चाहिए।
इस रिसर्च को स्क्रिप्ट में बदलने का प्रोसेस क्या है? जैसे आपने रिसर्च किया, आपके पास फैक्ट्स का डेटा बेस बन गया, अब इसको लेकर एक रिसर्च पेपर लिखना आसान है, लेकिन इसे प्ले में बदलकर उसमें अपनी बात कहने का प्रोसेस क्या है?
देखिए, इसका प्रोसेस है कि हम किस-किस फेज में रिसर्च करते है। पहला तो यह है कि हम एक विषय लेंगे और हम सब उस पर रिसर्च करते हैं, फिर हम कुछ ज़ीरो इन करेंगे फिर उस पर रिसर्च करेंगे। इसी समय हम उस पर कुछ काम शुरू कर देते हैं जैसे लिखना या अब हमें पता है कि अब हमको और क्या चाहिए। हो सकता है कि हमने जो पढ़ा है उसका तीस-चालीस प्रतिशत किसी मतलब का ही न हो। नाटक करने जाते हैं तो रिसर्च का बहुत कुछ छूट जाता है, क्योंकि इस नैरेटिव में उसकी ज़रूरत नहीं है। सदा एक संवाद रहता है कि कैरेक्टर के ज़रिए आप क्या कह रहे हैं। कैरेक्टर का डेवलपमेंट नहीं हो तो कोई अर्थ नहीं है।
रिसर्चर और एक्टर का भी संवाद होता है?
हमारी रिसर्चर हमारे साथ रिहर्सल प्रोसेस में रहती हैं।
आपको लगता है कि इस तरह से कैटेगराइज किया जा सकता है कि अभिषेक मजूमदार ऐसा प्लेराइट या डायरेक्टर है जो राजनीतिक नाटक करता है…
बिल्कुल। चाहे उसमें राजनीति हो या पर्सनल पोलिटिक्स हो, मैं एक व्यक्ति के तौर बहुत राजनीतिक आदमी हूँ।
आप डेमोक्रेटिक पोलिटिकल फॉर्म मानते हैं थिएटर को?
मैं थिएटर को मानता हूँ—एक ऐसा स्पेस जो पोलिटिकल और पर्सनल और फिलॉसफिकल तीनों है। मुझे लगता है कि नाटक की स्ट्रेंथ ही वही है कि आप एक जगह पर नाटक को पर्सनल, पोलिटिकल और फिलॉसफिकल तीनों को एक जगह ला सकते हैं और इनमें से कोई भी लेयर अगर न हो तो नाटक कमज़ोर होगा।
आप हिंदी में भी नाटक लिखते हैं और अँग्रेज़ी में भी। हिंदी की जो साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ हैं, उनसे आपका कुछ संवाद है?
मैं हिंदी, बांग्ला और अँग्रेज़ी तीनों में नाटक लिखता हूँ। ये तीनों भाषाएँ मेरी हैं। मैं इन तीनों भाषाओं में पला-बढ़ा हूँ और मैं तीनों भाषाएँ पढ़ता हूँ। विदेशों में कई बार मुझसे पूछा गया है कि आप सोचते किस भाषा में है तो मैंने कहा है कि मैं जो सोचता हूँ यह उस पर डिपेंड करता है कि मैं किस भाषा में सोच रहा हूँ। यह बात हर हिंदुस्तानी के लिए सही है। कम से कम जो अर्बन इंडियन है, वह कुछ चीज़ें हिंदी में सोचता है, कुछ चीज़ें अपनी मातृभाषा में सोचता है, कुछ चीज़ें अँग्रेज़ी में सोचता है।
‘मुक्तिधाम’ में यह आता है कि आत्मा की रक्षा में जो आत्म शब्द है, वह आत्मन् है। यह शब्द का खेल है या रिसर्च का?
यहाँ शब्द का खेल है। लेकिन नाटक जब लेखक लिखता है तो अपने जीवन का सब कुछ उसमें डाल देता है। एक आदमी जो जनरल लिटरेरी थियरी भी पढ़ रहा है और अख़बार भी। हमारे यहाँ आता है ‘राजस्थान पत्रिका’। बहुत ख़राब अख़बार है वह, फिर भी मैं उसको इसलिए बैठकर पढ़ता हूँ कि लगता है : मैं कुछ पढ़ रहा हूँ रोज़ का। पता नहीं राजस्थान के किस गाँव में क्या हो रहा है? भाषा की एक तलब होती है। बांग्ला की एक तलब है। मेरे बैग में आपको हमेशा एक कविता की किताब मिलेगी। मैं ख़ुद कविता नहीं लिखता। अभी बांग्ला की किताब है, कल तक केदारनाथ सिंह की थी। यह है मेरे अंदर और यह कहीं नहीं जा रहा है।
आप जब बड़े हो रहे थे, थिएटर की तरफ़ आ रहे थे… उस समय आप किस तरह के नाटक देख रहे थे और किस तरह का साहित्य पढ़ रहे थे और किनसे प्रभावित हो रहे थे?
मैंने हबीब साहब को देखा है बचपन में। मैंने उनके गोद में बैठ कर नाटक देखा है, क्योंकि वह जे.एन.यू. आते थे रिहर्सल करने और मेरे पिताजी मुझे वहाँ लेकर जाते थे। जब वह बेर सराय में रहते थे। यह इतनी पुरानी बात है कि मुझे ख़ुद भी ठीक से याद नहीं, लेकिन कहीं न कहीं मुझे लगता है कि वह मेरा अंश है। मेरे कुछ कजिंस हैं, उनकी एक थिएटर कंपनी है—‘धूमकेतु’। उन्होंने बहुत से नाटक बांग्ला में किए हैं। दारियो फ़ो को बहुत किया है। उनके नाटक मुझे बहुत याद हैं। शास्त्रीय संगीत का बहुत प्रभाव था मेरी माँ पर। मेरी बहन शास्त्रीय संगीत सीखती थी। मैंने सोचा था कि मैं ख़ुद पढ़ाई करूँगा। मैंने घर पर पढ़ाई की एक साल, फिर लगा कि मुझे कॉलेज चला जाना चाहिए। मैं पढ़ता बिल्कुल नहीं था। मेरी माँ बहुत पढ़ती थीं। मेरे पिता का बचपन में देहांत हो गया था। मेरी दीदी बहुत कुछ पढ़कर सुनाती थीं। वह साहित्य की स्टूडेंट थीं। वहीं से फिर पढ़ने का शौक़ हुआ। बांग्ला साहित्य था, हिंदी साहित्य था, बहुत सारा अनुवादित साहित्य था।
आज जो थिएटर आप भारत में देख रहे हैं, उस पर आपकी क्या टिप्पणी है?
मुझे लगता है कि कई जगहों पर बहुत अच्छा थिएटर हो रहा है। अँग्रेजी में नील चौधरी, वह बहुत अच्छा लिखते हैं। मोहित तकलकर हैं महाराष्ट्र में, सुनील शानबाग हैं, फ़ाज़ेहा जलील हैं। फ़ाज़ेहा के साथ मैंने काम किया है—एक्टर के तौर पर। केरल में दो-तीन डायरेक्टर्स हैं। शंकर का काम बहुत इंट्रेस्टिंग है, जीनु जोसफ़ का भी। कर्नाटक में जोसेफ़ हैं, शरण्या हैं… बहुत सारा काम अच्छा हो रहा है, बहुत सारा ख़राब काम भी हो रहा है।
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अभिषेक मजूमदार सुपरिचित रंगकर्मी और नाटककार हैं। गए दिनों जयपुर में आयोजित एक रंगोत्सव में उनके नाटक ‘ईदगाह के जिन्नात’ का मंचन कुछ संगठनों के विरोध की वजह से रोक दिया गया। विरोधियों का कहना रहा कि कश्मीर के वर्तमान हालात पर केंद्रित इस नाटक में भारतीय सेना के लिए ‘वहशी’शब्द का प्रयोग किया गया है। अमितेश कुमार हिंदी रंग-आलोचना में सक्रिय इस दौर के एक उज्ज्वल हस्ताक्षर हैं और रंगमंच को पूर्णतः समर्पित हिंदी के पहले ब्लॉग ‘रंगविमर्श’ के मॉडरेटर हैं। अभिषेक से majumdar.abhishek@gmail.com पर और अमितेश से amitesh0@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ 21वें अंक में पूर्व प्रकाशित। संजय उपाध्याय से अमितेश कुमार की बातचीत यहाँ पढ़ें :