बातें ::
कुमार बोस
से
व्योमेश शुक्ल

कुमार बोस की मिसाल ढूँढ़ना कठिन है। बनारस घराने के दो कालजयी दिग्गजों—पंडित किशन महाराज के गणित और पंडित सामता प्रसाद उर्फ़ गोदई महाराज की तैयारी को आपस में हिला-मिला दिया जाए तो उन जैसी कोई चीज़ तैयार होगी। बनारस के तबले की ख़ासियतों के आईने में जो बातें अलग-अलग किरदारों के तौर पर दिखाई देती हैं, अपने पाँच दशक के ज़बरदस्त कॅरियर में कुमार बोस ने उन्हें एक साथ ख़ुद पर आयद करने की असंभव कोशिश की है। आज की तारीख़ में नौजवान तबलावादकों की एक पूरी पीढ़ी उनके असर, बल्कि उनके नशे में है। उनकी तुलना उस्ताद ज़ाकिर हुसैन से होती है, जबकि दोनों पर एक दूसरे की छाया है।

उस्ताद अल्लारक्खा ख़ाँ साहब के बाद कुमार बोस को पंडित रविशंकर के साथ लगभग पंद्रह साल तक दुनिया भर में लगातार संगत करने का अवसर मिला। यों, उस्ताद विलायत ख़ाँ, उस्ताद अमज़द अली ख़ाँ, पंडित शिवकुमार शर्मा, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया और पंडित राजन-साजन मिश्र के साथ भी उनकी ख़ूब जमी। उनका जन्म एक पूरावक़्ती संगीतकार परिवार में हुआ और अपने पिता पंडित विश्वनाथ बोस की वजह से बनारस घराना उन्हें उपहार की तरह मिला, लेकिन उन्होने अपनी बीहड़ तैयारी और अथक जिज्ञासा से इसे बार-बार पाया है। यह बात बहुत आगे तक पहुँची। यहाँ तक कि अब भी वह कोलकाता में रहते हुए बनारस और तबले के तत्त्व को पा लेने की असमाप्त कोशिश में लगे हुए हैं।

पिछले बरस गर्मियों की एक दुपहर अपने इस पसंदीदा कलाकार से बातचीत करने का मौक़ा मिला। मिलने से पहले मैं बहुत डरा हुआ था कि कहीं उनके लिए मेरे भीतर का जादू टूट न जाए। उनके सामने भी, मैं अपने में नहीं था और लगातार बोलता जा रहा था। कुमार जी ने मेरी बकबक सुनी और मैंने उनका कहा पहले रिकॉर्ड और अब लिपिबद्ध कर लिया।

हिंदी की दुनिया में संगीत की बहुत बड़ी जगह है, लेकिन ज़्यादातर गायकों की ही। उन्हें कुछ वैचारिक और दार्शनिक सूत्रों में पहचाना गया है, जिसमें कोई हर्ज भी नहीं है; लेकिन यह भी तय है कि नाद के बिना स्वर पूरा नहीं होता। मुझे अपनी कमसमझी में हमेशा लगा किया है कि एक दिन हिंदीसाहित्यसंसार में ऐसा भी आएगा, जब कुमार गंधर्व, मल्लिकार्जुन मंसूर और भीमसेन जोशी की तरह ज़ाकिर हुसैन, कुमार बोस, भवानी शंकर और सुरेश तलवलकर भी हमारे नायक होंगे। कोई चाहे तो इसे केंद्र की ओर हाशिए का प्रस्थान मान ले। इसमें भी कोई हर्ज नहीं है। 

[ व्योमेश शुक्ल ]

कुमार बोस

‘शरण ठीक हो’

गुरु के अनुभव क्या हैं?

शब्दों में कहना मुश्किल है। उम्र के साथ-साथ अनुभव बदलता गया है। गुरु को हमने जैसा देखा और जैसा पाया—वह औरों से कुछ अलग क़िस्म का है। मज़े की बात है—जब गुरु को सोचकर आँखें बंद करता हूँ तो गुरु का चेहरा तो सामने आ जाता है, लेकिन धीरे-धीरे, कुछ समय बाद, वह चेहरा कहीं डूब जाता है और कानों में उनकी आवाज़, बोले गए शब्द, तबले की ध्वनियाँ—ये सब—ज़्यादा प्रकट होने लगते हैं। यानी, ध्यान में—पहले चेहरा, फिर आवाज़ें।

बनारस के अनुभव क्या हैं?

बनारस घराने का रस मुझे बहुत मुश्किल से मिला है। उस रस का अनुभव, उसकी प्राप्ति भी मेरे लिए बहुत कठिन रही। बचपन से ही, मैं बनारस ज़्यादा जाकर रहा नहीं। मैंने सबसे पहले पिता जी को सुना नहीं। वह एक ख़ास तरह से स्वतंत्र थे, हालाँकि बनारस घराने की ख़ुशबू उनके तबले में ख़ूब थी। बनारस में भी तरह-तरह के तबले बजते रहे हैं। सामताप्रसाद जी के तबले का एक अलग रूप है, अनोखेलाल जी में कुछ और बात है। मेरे गुरु किशन महाराज जी भी अलग हैं। बनारस के तबले में बहुत ज़्यादा आयाम हैं। बचपन में ही मैंने बब्बा—दादागुरु—पंडित कंठे महाराज को सुना। लेकिन जिस उम्र में मैंने उन्हें सुना, वह समझने वाली उम्र नहीं थी। लेकिन, न जाने कैसे, आज वे अनुभव मुझ पर ज़ाहिर हो रहे हैं। जैसे वे बातें रिवाइंड होकर मुझ तक लौटकर आ रही हैं। अब इस अनुभव को कैसे बताएँ?

यह भगवान का आशीर्वाद हो सकता है। एक संगीतज्ञ परिवार में जन्म लेने का एडवांटेज हो सकता है।

आपका बचपन कैसा था?

पैदा होते ही तबले, सितार, सरोद और इंसान के गले से फूटते सुरों से सामना हुआ होगा और इसीलिए, कुछ न जानते हुए भी इनसे लगाव हो गया। कुछ जानने-बूझने की वैसे भी वह कोई उम्र नहीं होती। दूसरा बच्चा गोद से उछलकर खेलने चला जाता, लेकिन मैं माँ की गोद में ही सोया रह गया और वह सितार का रियाज़ करती रही। सोते हुए बच्चे के पास तबला बजाने लगो तो वह जग जाएगा, लेकिन मुझे सुलाना हो तो तबला बजता था ताकि तबले की आवाज़ के बीच नींद जल्दी और गहरी आ जाए। कंठे महाराज को मैंने पाँच और सात साल की उम्र में सुना। उस उम्र का क्या है? संगीत और तबले का उस उम्र से क्या लेना-देना? लेकिन भगवान की कृपा देखिए, उनका चेहरा, उनके तबले की आवाज़ और उनका अंदाज़—सब कुछ—भीतर जैसे घर कर गया है। धीरे-धीरे, जैसे उम्र बढ़ती गई, तबले के बारे में जानकारी और गुरुओं से तालीम मिली—कंठे महाराज की वह छवि प्रखर होती गई। यह एक अद्भुत बात है।

तबले की शुरुआत कैसे हुई?

पहले भी कह चुका हूँ, हमें बनारस घराने का रस धीरे-धीरे और थोड़ा-थोड़ा करके मिला। धीरे-धीरे। हम बहुत मुश्किल से गुरु को सुन पाए और जो सुना, उस पर ख़ूब ग़ौर किया, ग़ौर से रियाज़ किया। बनारस में रहने के अवसर बहुत कम थे।

आप ख़ुद को किस तरह का शिष्य मानते हैं? मैंने कई बार देखा है, आप अपने गुरु के लिए अपार कृतज्ञता से भरे हुए हैं।

मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, अहमदाबाद में सप्तक के कार्यक्रम के बाद रात में जब गुरु जी—पंडित किशन महाराज—वापस आकर घर में बैठते थे, तो उस समय पंडित राजन-साजन मिश्र, नंदन जी और मुझ समेत महज़ चार-पाँच लोगों को उस अंतरंग में जाने की अनुमति थी। वहाँ काफ़ी खुलकर गुरु जी से बात होती थी। वहीं एक बार पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के साथ मेरा कार्यक्रम था। बहुत अच्छा हुआ और गुरु जी ख़ूब ख़ुश हुए। रात को पंडित राजन मिश्र ने हमारे गुरु जी से पूछा : दूसरे कई शिष्यों ने आपके पास, आपके घर में रहकर, दस-दस, बारह-बारह, चौदह-चौदह साल सेवा करके आपसे तबला सीखा है। लेकिन सच यह भी है कि कुमार भाई में आपके तबले की और बनारस की जो गूँज आती है, वह औरों में कम ही है। कुमार भाई और दूसरों में यह फ़र्क़ क्यों है? गुरु जी ने उत्तर दिया : तुम लोगों ने एकलव्य की कहानी सुनी होगी। कुमार का ध्यान बहुत पक्का है। वह ध्यान में हम लोगों को धारण करता है। उसने ध्यान में मुझे पा लिया।

इसलिए हम दिल और दिमाग़ से जितने नज़दीक उसके हैं, उतना उनके नहीं जो मेरे शरीर के सामने आ गए। वे उतने एकाग्र नहीं हो पाए। इसलिए वह मेरे और बनारस के घर के एकलव्य जैसा है। उसकी अनुभूति और उसका ध्यान—दोनों—बहुत गहरे हैं। इसीलिए वह बनारस न रहकर भी बनारस का तबला बजाता है।

शरण ठीक हो। पूजा करने का अभ्यास तो अच्छा है, लेकिन उसे सीखना भी पड़ता है। गुरु के प्रति श्रद्धा ठीक है, लेकिन वह भी सीखने की ज़रूरत है।

गुरु क्या है? वह कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। गुरु एक आदर्श है—पथनिर्देशक। गुरु एक विश्वास है। गुरु एक चिंता है। व्यक्ति कोई भी हो, जब उसके नाम में गुरुत्व जुड़ जाता है, तब वह वही व्यक्ति नहीं रह जाता। गुरु के कर्म का, धर्म का विश्वास उसमें शामिल हो जाता है।

आज की दुनिया में बेशक़ संगीत एक प्रोफ़ेशन है, लेकिन अगर कोई संगीत को निरा प्रोफ़ेशन मानकर अपनाएगा, उसका अभ्यास करेगा, तो वह हमेशा संगीत के रस से दूर रहेगा। संगीत का रस संगीत को गुरु मानकर उठने, बैठने, चलने और प्यार करने से मिलना संभव है।

सबसे ज़रूरी बात, जो नए तबला वादकों से कहनी हो।

बहुत कठोर रियाज़। माँ-पिता अब हैं नहीं, लेकिन भाई-बंधु और मेरे पुराने मुहल्ले—बाग़ बाज़ार में रहने वाले कुछ लोग जानते हैं। मेरा स्वभाव खिलाड़ी वाला है। कैरम, वाटरपोलो, क्रिकेट और गुड्डी से लेकर सारे खेल। सुबह से शाम। पिताजी डाँटते थे : दो मिनट घर में ठहरो, लेकिन मैं—या मैदान में, या किसी छत के ऊपर या किसी गली में।

लेकिन, अब मुझ पर यक़ीन कीजिए। मुहम्मद अली पार्क में एक रात पिता जी और सामता प्रसाद का तबला सुनकर मुझे पता नहीं क्या हो गया? मैं अकेले पिता जी से कहकर आधी रात पैदल ही घर चला आया। वह पूरी रात चलने वाला समारोह था। अभी पिता जी को अंत में भीमसेन जी के साथ बजाना था। उसके बाद बिस्मिल्लाह ख़ाँ साहब का था, लेकिन सारे कार्यक्रम छोड़कर मैं चला आया। घर आकर रात तीन बजे मैं तबला लेकर बैठ गया। माँ हैरान हो गई : तुम अकेले कैसे चले आए? हालाँकि पिता जी के एक शागिर्द साथ थे, लेकिन मैंने कहा : वहाँ अच्छा-अच्छा नहीं लग रहा था। बजाने का दिल करने लगा, इसलिए चले आए। माँ सो गई, मैं तबला बजाने लगा।

उस दिन से तीन-चार साल तक, मैं घर से बाहर ही नहीं निकला। पंद्रह साल का रहा होऊँगा। बाहर क़दम नहीं रखा। सुबह उठकर जलपान और हल्का व्यायाम। भोजन और शवासन के बाद दुपहर एक बजे माँ उठा देती थीं। तीन छोटे-छोटे कमरों का छोटा-सा घर था। भाई-बहन भी तब तक अपने काम पूरे करके या तो सो जाते थे या कहीं चले जाते थे। वह समय जब तबले में मेरी लगन लगी, जाड़े की छुट्टियों का था। स्कूल बंद था। पिता जी तब ऑल इंडिया रेडियो के बाद बंगाल म्यूजिक कॉलेज में नौकरी कर रहे थे। वह भी चले जाते थे। दुपहर डेढ़ बजे के आस-पास मैं रियाज़ पर बैठ जाता था। पंखा-वंखा कुछ नहीं, कमरा भी मैं बिल्कुल अँधेरा रखता था। मुझे रियाज़ के समय अँधेरा पसंद है। सिर्फ़ गुरु जी के पास ज़रा-सी लाइट जलती रहती है। यह रियाज़ रात आठ-दस बजे तक चलता था। ऐसे शुरुआती आठ-दस दिनों के बाद माँ ने मेरे पिता जी से कहा। मैंने भी तब पिताजी को बताया कि मैं अब रियाज़ करना और तबला बजाना चाहता हूँ। मुझे बहुत मन कर रहा है। लौ लग गई है।

तो जीवन में रियाज़ की घटना एकदम से घटी?

हाँ। पहले हाथ की तैयारी, फिर वज़नदारी का अभ्यास। क्या-क्या नहीं हुआ। घनघोर रियाज़। कलाइयों में घुँघरू बाँधकर हाथ भारी कर लेते थे। उस भारी हाथ से मेहनत। पिता जी ने उस बीच कहा कि फ़र्ज़ करो कि दो रातों से सोए नहीं हो और तीसरी रात में कार्यक्रम है और रात भर तबला बजाना है। क्या वैसी दमकशी है? मैं वाटरपोलो खेलता ही रहा था। वह फिर से शुरू हो गया। तालाब को तीन-चार बार तैरकर पूरा पार करना। ख़ुद को पूरा थका डालना और उसी क्लांति के साथ घर आकर सीधे रियाज़ और मध्यलय में धाधीनाड़ा से शुरुआत।

उस समय प्रेरणा बहुत थी। पिता जी, सामता प्रसाद जी, गुरु जी, चतुरलाल जी—इन दिग्गजों का तबला सुनकर मन करता था कि चाहे जो हो, ऐसा ही तबला बजाना है। ख़ैर, वैसा तबला तो नहीं बजा, लेकिन जो भी, जैसा भी हुआ, उसी राह पर चलकर। इन्हीं लोगों को आगे रखकर दौड़ना था।

आपकी तुलना उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साहब से होती है।

दो कलाकारों की तुलना बेमानी है। मेरा फ़लसफ़ा, मेरी तालीम, मेरा तरीक़ा अलग है और उनका ज़ाहिर है कि अलग है। तब किस बात का मुक़ाबला?

हम दोनों ने साथ-साथ, बल्कि आमने-सामने भी दो-तीन बार तबला बजाया है। हर बार पंडित रविशंकर जी के साथ। एक बार लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल में और दुबारा मुंबई में।

समादृत सितारवादक पंडित रविशंकर के साथ कुमार बोस

आप पंडित रविशंकर के साथ बहुत लंबे समय तक संगत करते रहे हैं।

पंडित जी से बहुत प्यार मिला। बहुत कुछ सीखने को भी मिला। एक बार अरसा बाद माँ-पिता जी बनारस गए तो आशू बाबू—आशुतोष भट्टाचार्य—के घर भी मिलने गए थे। आशू बाबू पिता जी को बहुत मानते थे। आशु बाबू ने पिता जी से कहा कि ठहरो, जाने की जल्दी मत करो, देखो, कोई आने वाला है—तुम ख़ुश हो जाओगे। कुछ देर में पंडित जी आए और बहुत दिनों बाद पिता जी की उनसे मुलाक़ात हुई। ख़ूब बातें हुईं। वहाँ से लौटकर कोलकाता आने के दो हफ़्ते बाद पिता जी का निधन हो गया।

यह मार्च, 1980 की बात है। उन दो हफ़्तों में पंडित जी वापस अमेरिका लौट चुके थे। पिता जी के न रहने की ख़बर लगभग सब अखबारों में छपी थी। वहाँ भी अख़बार से ही पंडित जी को पता चला। पंडित जी ने फ़ोन किया, माँ से बात की और कहा कि मैं इस बार जल्द भारत आ रहा हूँ और जैसे ही कलकत्ता आता हूँ, तुम मुझसे मिलो और कुमार को लेकर आना। जब वह आए तो माँ और भाइयों से मुलाक़ात तो हुई, मैं ही अमजद अली ख़ाँ साहब के साथ कहीं बाहर गया हुआ था, तो मिल न सका। मिलने के एक-दो मौक़े छूट गए। उनसे पहले मुलाक़ात अमजद साहब के घर एक दुपहर खाने की मेज़ पर हुई। ख़ाँ साहब ने मेरा परिचय कराया तो पंडित जी ने कहा कि दिसंबर में मिलना होगा और यह सलाह भी दी कि अपने पिता जी की याद में मैं कलकत्ते में कोई आयोजन करूँ। उस आयोजन में तुम मेरे साथ बजाना। मैंने कहा कि ठीक है और मन ही मन अचंभित हो गया। वही उनके साथ पहला कार्यक्रम था। प्रदर्शन के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि तुम मुझसे मिलो। उन्होंने कहा कि अल्लारक्खा साहब की तबियत कुछ ढीली रहने लगी है और वह अब ज़्यादा टूर भी नहीं करना चाहते। मैं सोचता हूँ कि उनकी जगह पर कोई और मेरे साथ रहे, क्योंकि कोई स्थायी संगतकार न होने से मुझे मुश्किल होती है। मुझे तुम्हारा तबला बहुत पसंद है और बनारस का तबला शुरू से ही बहुत पसंद है।

सबसे यादगार कार्यक्रम?

मुझे सन् 74 में पेरिस में इमरत ख़ाँ साहब के साथ हुआ कार्यक्रम सबसे बड़ा लगता है। मैं पहली बार विदेश गया था। उस कार्यक्रम के बाद अमजद अली ख़ाँ साहब पीछे आकर बोले वाह; और मुझसे मेरे बारे में पूछने लगे। पिता जी का नाम बताने पर वह तुरंत पहचान गए और उन्हें याद करने लगे। मेरा फ़ोन नंबर भी उन्होंने ले लिया। जब मैं वहाँ से वापस भारत लौटा तो सबरंग महोत्सव में उनके साथ मेरा कार्यक्रम हुआ। वह बहुत अच्छा हुआ। उस्ताद ने उस दिन वागेश्री बजाया था। बहुत धुआँधार दिन था वह।

युवा तबलावादक बहुत ध्यान और कशिश के साथ आपको फ़ॉलो कर रहे हैं। मानो वे आपकी आत्मा के गुप्तचर हैं। यह बात आपको कैसी लगती है?

मुझे पता है। ईश्वर करे कि वह वैसा बजाएँ और ख़ूब बजाएँ। लेकिन मैं ख़ुद जो तबला बजाना चाहता हूँ, वैसा बजा नहीं पा रहा हूँ, इसी अफ़सोस में घुला जाता हूँ। यह बात किसी को समझाना बहुत मुश्किल है कि मैं क्या करना चाहता हूँ। जिन बड़ों का तबला मैंने सुना है, उसका एक मिश्रण मेरे दिमाग़ में है, जो मैं बजाना चाहता हूँ, लेकिन बजा नहीं पा रहा हूँ। शायद उतना रियाज़ नहीं है। शायद उतना अध्ययन नहीं है। ख़ैर, जो भी है, यह दुख तो है। जो करना है, मुझे सब कुछ मालूम है। कोशिश भी करता हूँ। दरअसल, मुझे एक बात चाहिए—मैं जैसा और जितना बजाऊँ, उतना ही ‘क्या बात’ मुझे मिले। ज़्यादा तारीफ़ मुझे पसंद नहीं है। मैं ज़्यादा तारीफ़ तुरत पहचान जाता हूँ। उस ‘क्या बात’ को श्रेय कहिए, पुरस्कार या अलंकरण मानिए। मुझे बनावट या ख़ुशामद नहीं चाहिए। मुझे पता है कि किस बात से मुझे ख़ुशी मिलेगी।

प्रस्तुति-पूर्व कुमार बोस

आप नक्सल रहे हैं?

पश्चिम बंगाल में एक समय ज़ोरदार नक्सल आंदोलन था। कुछ जगहों पर वह समूह बहुत शक्तिशाली था। उत्तर कोलकाता में बाग़ बाज़ार ऐसी ही जगह थी। मेरे सारे खिलाड़ी दोस्त वहीं के थे। इस वजह से मुझे भी नक्सल समझा जाता था। उस उम्र में दोस्त जिधर हैं, आप भी उधर हैं। मैंने कोई प्रशिक्षण नहीं लिया, किसी नेता के यहाँ नहीं गया। मेरा ख़याल है कि हिंसा या आतंक से कोई राह निकलेगी नहीं। विप्लव अंदर से आना चाहिए। उसके कई रूप हैं और अलग-अलग रास्ते हैं। जगह राजनीति करके बनेगी, मार-पीट और ख़ून-ख़राबे से नहीं। मेरा ख़याल है कि कुछ लोगों ने ईर्ष्या में भरकर इस बात का प्रचार किया कि कुमार बोस नक्सल हैं।

कोई बात, जो बार-बार याद आती हो।

इन दिनों, जब-तब अपने जीवन के सबसे लंबे कार्यक्रम की याद आती रहती है। उस्ताद विलायत ख़ाँ साहब के साथ वह कार्यक्रम जबलपुर में हुआ था। रात के ग्यारह बजे से सुबह सात बजे तक। सन् 77-78 की बात होगी। बीच में पंद्रह मिनटों का बस एक अंतराल। ख़ाँ साहब के ही एक डॉक्टर मित्र ने तब स्पूल में रिकॉर्डिंग की थी। उसका एक अंश मेरे पास है। लगभग दो घंटे का आलाप। फिर गत और तीन बजे के आस-पास भैरवी। आलाप, गत, द्रुत और झाला। मुझे महज़ इतना पता था कि एक ही आइटम है—ख़ाँ साहब का। लेकिन वही इतना विराट हो गया। वह आयोजन मध्य प्रदेश शासन का था। उस समय अशोक वाजपेयी वहाँ थे। यह कार्यक्रम एक स्कूल की इमारत में हो रहा था। चारों ओर क्लासरूम और बीच में मैदान। पूरा मैदान भरा हुआ। न जाने कहाँ-कहाँ से लोग आए थे। रायपुर से लेकर ग्वालियर तक से। इसी प्रोग्राम के चलते सुबह बॉम्बे मेल छूटी। उसके अगले दिन अमजद साहब के साथ सुबह बजाना था, लेकिन सुबह बजाना है, यह नहीं पता था। गाड़ी लेकर सड़क के रास्ते किसी तरह पहुँचा, लेकिन कार्यक्रम तो सुबह हो चुका था। उस्ताद बहुत बिगड़े, लेकिन असल ग़लती उनके सेक्रेटरी की थी, जिसने मुझे सही समय नहीं बताया था।

आपको क्या पसंद है? लोकप्रियता या गंभीरता?

आजकल बड़ा कलाकार बहुत चतुर हो गया है। उसके सिक्के के दो पहलू हैं। एक आम और दूसरा ख़ास। वह महफ़िल देखकर बजाता है, लेकिन ज़्यादातर वह आम आदमी की पसंद के दायरे में आने वाला एक लोकप्रिय तबला बजाता है।

मिसाल के लिए उस्ताद ज़ाकिर हुसैन। उनका अपना तबला बहुत मुश्किल चीज़ है। उनके तबले के जिस हिस्से का ख़ूब अनुकरण हुआ है, वह उसका आम चेहरा है। उसके ख़ास चेहरे की नक़ल उतारना असंभव है। बाज़ार में उनके सरल की नक़ल है, असल की नहीं।

हमलोग एक दूसरे के पूरक हैं। वह नहीं, तो मैं नहीं। शायद मैं नहीं, तो वह भी नहीं।

व्योमेश शुक्ल सुपरिचित हिंदी कवि-आलोचक और रंगकर्मी हैं। उनके दो कविता-संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुके हैं। वह बनारस में रहते हैं। उनसे vyomeshshukla@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 23वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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