बातें ::
चंदन पांडेय
से
अविनाश मिश्र
‘समय का चक्र जैसे नदी का भँवर हो गया है’
‘‘अराजनीतिक होने के, राजनीतिक होने की तरह ही, नितांत अपने ख़तरे हैं…’’
‘पहल’ के नए अंक (120) में मिया कविता आंदोलन पर लिखते हुए आपने इन पंक्तियों से शुरुआत की है। आपका उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ अब पढ़नेवालों के बीच है। मौजूदा राजनीति और उसके ख़तरों के बीच इसे लिखना, क्या किसी ख़तरे की तरह लगा?
सबसे बड़ा ख़तरा इन दिनों है—आपकी पहचान। मनुष्यता के समर्थक होना तो ख़ैर जाने दें, अगर आप मनुष्यता के तर्कों के भी समर्थक पाए गए तो आप ख़तरे में पड़ सकते हैं। आप कोई भी हों, लेकिन अगर आप विचारवान हैं तो किसी भी पल ख़तरे में पड़ सकते हैं। भीड़शाही ने पैट्रिक सस्किंड के उपन्यास ‘परफ़्यूम’ का-सा हाल कर दिया है। आलम यह है कि एक हत्यारे के समर्थन में अगर भीड़ है तो आज की तारीख़ में वह हत्यारा मृतक से पूछ सकता है—तुम्हारी हत्या करने में जो मेरे हाथों को चोट पहुँची उसका क्या?
छपने के पहले जिनने भी इस उपन्यास की पांडुलिपि पढ़ी उन सबने आकस्मिक क़िस्म के ख़तरों से आगाह किया। उनका कहना था कि जो भीड़ और हत्या की राजनीति कर रहे हैं, उन्हें यह किताब खटकेगी; लेकिन मुझे लगा कि यह उनका प्रेम है जो आगाह करने पर उन्हें मजबूर कर रहा है।
मुझे जो ख़तरा प्रतीत होता है, वह चेतना-संपन्न वर्ग से अधिक है। वह यह कि क्या हम मानसिक तौर पर समकालीनता पर रचना के माध्यम से बातचीत करने के लिए तैयार हैं? यह जीवन में वर्तमान की अतिशयता से होने वाली परेशानी है या उससे बचने की प्रविधि, कह नहीं सकता; लेकिन लोग साहित्य को समय-समकाल से दूर रखने की वकालत करते नज़र आते हैं। आलोचना में चुप्पियाँ भी एक टूल हैं जिसने कभी यह ज़ाहिर नहीं होने दिया कि रचनाओं का देश-काल क्या हो।
‘वैधानिक गल्प’—यह नाम रखने का ख़याल कैसे आया?
यह ख़याल मुझे नागरिकता की परिभाषा से गुज़रने के दौरान आया था। श्रीलंकाई तमिल कवि काशीआनंदन की कविताओं का अनुवाद करते हुए यह ज़रूरत महसूस हुई कि राष्ट्र और नागरिक के संबंधों पर पढ़ा जाए। जब यह पढ़ा कि हम सब लोग मिलकर एक राष्ट्र बनाते हैं, वह राष्ट्र संस्थाएँ बनाता है और वही संस्थाएँ तदंतर में एक दायरा तैयार करती हैं—काल्पनिक-सा दायरा—जिसके भीतर आ सकने वाले लोग ही नागरिक कहलाते हैं तो मुझे बेहद आश्चर्य हुआ था। मैं कई दिनों तक नागरिकता की ऐसी परिभाषाओं पर रीझता रहा, कह लीजिए कि झुँझलाता रहा। वर्षों बीत गए, लेकिन तभी से यह पद ‘वैधानिक गल्प’ मेरे ज़ेहन में था।
क्या इसे एक राजनीतिक उपन्यास कह सकते हैं?
यह तो आप बेहतर बताएँगे।
बी.एच.यू. के आपके दिन बताते हैं कि आपने अपने लिखने-पढ़ने के विस्तार को इस तरह भी देखा कि अपने आस-पास के ज़्यादा से ज़्यादा जनों में साहित्य के प्रति रुचि पैदा की जाए। क्या इसे पीढ़ी-निमार्ण के कार्यभार की तरह देखा जा सकता है?
काश! पीढ़ी-निर्माण बहुत बड़ी बात है। मैं उस योग्य नहीं। बी.एच.यू. का दौर मेरे लिए ट्रांस का दौर रहा है। दोस्त मिलते गए। अमूमन हमारी दोस्तियाँ किताबों, ग़ज़लों और क्लास की बहसों से शुरू होती थीं; क्योंकि उस समय साधन और संसाधन दोनों सीमित थे, लेकिन धीरे-धीरे अपने पास ठीक-ठाक संख्या में किताबें जमा हो गई थीं। समय के साथ सबका अपना ‘रेंज’ विकसित हुआ, इसलिए सबके लिए किताबों का दायरा भी बढ़ा।
‘वैधानिक गल्प’ का रफ़ीक़ क्या आपकी अपनी तैयारी लिए हुए है?
कभी सोचा नहीं। यह ध्यान भी आपने दिलाया। अव्वल तो यह हक़ीक़त नहीं है; और अगर है तो इतनी दूर की हक़ीक़त है कि चाह कर भी ख़ुद को इससे जोड़ नहीं सकता।
‘वैधानिक गल्प’ के प्रारंभिक पृष्ठों के अर्जुन कुमार की कायरता को आपने हमारे बौद्धिक वर्ग की कायरता की तरह दर्ज किया है या पूरे समाज की कायरता की तरह?
कायरता एक डिफ़ेन्स है। समय के साथ इस शब्द ने अतिरिक्त अर्थ ओढ़ लिए हैं। अर्जुन के सिलिसले में यह कायरता नहीं है। मैं उसे उदासीनता कहूँगा। यों तो वह सब पूरे समाज पर लागू होता है, लेकिन बौद्धिक वर्ग के लिए विशेष है। मेरी तैयारी कम है, लेकिन जितनी भी है उसके हिसाब से मानता हूँ कि शुरुआत से ही देश का एजेंडा और बौद्धिक जमात का एजेंडा अलग रहा है। देश का एजेंडा से मेरा तात्पर्य है कि जो होना चाहिए था।
इस उपन्यास के प्रकाशन के साथ यह सूचना भी सार्वजनिक हुई कि इस क्रम में दो और उपन्यास हैं। इस त्रयी को कैसे देखें?
तीन उपन्यास हैं जिनके ज़रिए राष्ट्र और नागरिक (व्यक्ति) के संबंधों की पड़ताल करने की कोशिश है। भीड़शाही का आतंक मुझ पर छाया रहता है, उससे उबरने की कोशिश है। तीनों उपन्यास एक दूसरे से स्वतंत्र हैं।
इस उपन्यास का कथा-तत्त्व और प्रस्तुति बहुत सिनेमाई है। इस विशेषता ने बहुत पठनीय बना दिया है। सिनेमा से जो आपका रिश्ता है, वह कथा रचने में कितना आड़े आता है या कितनी मदद करता है।
प्रथम पुरुष आख्यान का शिल्प एक ज़रा चाक्षुष होता है, क्योंकि वह उतना ही बयान कर सकता है जितना उसके दायरों में है; लेकिन सिनेमाई कहना शायद उचित नहीं, क्योंकि मार तमाम स्पर्श रेखाओं (टेंजेशियल लाइंस) जैसे चरित्र हैं। बावजूद अपनी इस सफ़ाई के मैं कहना चाहूँगा कि सिनेमा और साहित्य में बेहतर बयान करने वाली प्रविधियों की आवाजाही अगर होती है तो सुखद है।
सबकी तरह सिनेमा देखना मुझे भी पसंद है। फिल्म पसंद आ जाए तब कई-कई बार देखना मुझे बहुत पसंद है। लेकिन इसे मेरी कमज़ोरी ही मानें कि मैं सिनेमा से या किसी भी विधा से भी बेहद कम प्रभावित हो पाता हूँ। इस हद तक शायद ही कभी प्रभावित हुआ होऊँगा कि इनकी तरह लिखा जाए या दिखा जाए। अगर अनायास कुछ हुआ हो तो मैं बता नहीं सकता। जैसे आपने रफ़ीक़ को मेरे बी.एच.यू. के दिनों से जोड़कर देखा तो मैं सोचने पर मजबूर हुआ कि क्या यह संभव है? लेकिन लिखते हुए कभी ऐसा नहीं लगा।
मुझे यह भी जानकारी है कि आपकी रसाई में दुनिया भर का सिनेमा तब से है, जब उस तक पहुँचना आज-सा आसान नहीं था।
क्या दौर था! एक अच्छी सीडी मिल जाए तब हम लोग ऐसे चलते थे जैसे हवा में चल रहे हों। फ़िल्म फ़ेस्टिवल्स तक जाना, वहाँ रुकना सब एक कठिन काम होता था। उस दौर का एक फ़ायदा मुझे यह नज़र आता है कि किताबें या फ़िल्में बड़ी मुश्किल से मिलती थीं, इसलिए अपनी पूरी ऊर्जा लगाकर और एकाग्रचित्त होकर उनसे गुज़रना होता था। जैसे किसी को अनमोल कोई चीज़ मिल जाए। लेकिन फिर भी यह दौर बेहतर है, जब किताबें और फ़िल्में आसानी से उपलब्ध हैं।
वैसे अब भी मेरी पहली पसंद पढ़ाई है। सिनेमा, लेखन, घूमना सब उसके बाद ही आता है। पहले भी यही होता रहा है। लिखने वाले समय की क़ीमत पर भी मैं पढ़ना ही पसंद करता हूँ। शुरू में लगता था कि आलस्य है, लेकिन फिर लगा, आदत है।
एक साक्षात्कार में आपने बताया था कि आप कथा के लिए डिटेलिंग और ब्योरों पर बहुत ज़ोर देते हैं, इसके लिए पर्याप्त श्रम करते हैं। यह कितना ज़रूरी है?
डिटेलिंग और ब्यौरों पर सबका ही ज़ोर होता है। बिना उसके क्या कहानी और क्या ही उपन्यास! दरअसल, कहना मैंने यह चाहा था कि प्रेम-कहानियों के संदर्भ में जिस भाव को मैं लिखना चाहता हूँ, हू-ब-हू वही लिख पाना मेरे लिए बेहद कठिन है। कहने का आशय कि उस भाव को डिट्टो लिख पाना बड़े परिश्रम की माँग करता है। वरना ज़रा-सा चूके नहीं कि कहानी कहीं और निकल जाती है।
हिंदी कविता में सातवें-आठवें दशक में जो बचाने का मुहावरा चलन में आया था, उसकी कथात्मक और औपन्यासिक वापसी ‘वैधानिक गल्प’ में नज़र आती है; ऐसा मुझे लगता है, आप इससे कितने सहमत हैं?
आपके इस प्रश्न ने सोचने पर विवश किया। मुझे लगता है कि हम उन्हीं संकटों से दो-चार हैं, मसलन सत्तर के दशक मं आपातकाल के बहाने और नक्सलवाद को ख़त्म करने के बहाने जितनी क्रूरता सरकारें बरत रही थीं, उसमें बचाने का मुहावरा स्वाभाविक ही चलन में आया था। यह समय का चक्र जैसे नदी का भँवर हो गया है जिसमें दो बच्चे डूब रहे हों और उनके चाचा, बलिष्ठ चाचा, उन्हें बचाने के लिए भँवर में उतर जाएँ; वे बच्चों को उठाकर बाहर फेंकते हों, लेकिन धार को तोड़ पाना मुश्किल हो और वे उतनी ताक़त न लगा पा रहे हों जितने से बच्चे उस भँवर से दूर चले जाएँ, वे बच्चे बार-बार पानी की तेज़ धार में फँसकर उसी भँवर में आ जाते हों, चाचा रोते जाते हों और हमें उठाकार बाहर फेंकते जाते हों, रोते जाते हों और बाहर फेंकते जाते हों, रोते जा रहे हों, बच्चों को बाहर फेंकते जा रहे हों… अनवरत। यह समय अपने कुचक्र की धार को मंद नहीं पड़ने दे रहा।
चंदन पांडेय (जन्म : 9 अगस्त 1982) हिंदी के सुपरिचित कथाकार हैं। वह उन रचनाकारों में हैं जिनके नए काम की प्रतीक्षा रहती है। ‘वैधानिक गल्प’ शीर्षक से उनका पहला उपन्यास गए विश्व पुस्तक मेले में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होकर लोकार्पित हुआ। इस उपन्यास के बहाने ही यह बातचीत उनसे ई-मेल के ज़रिए मुमकिन हुई है। उनसे chandanpandy1@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति में प्रयुक्त तस्वीरें ‘वैधानिक गल्प’ के लोकार्पण के अवसर की हैं।