कविताएँ और तस्वीरें ::
रुस्तम

hindi poet rustam 222020
रुस्तम

एक

अति-सुंदर,
पथरीली और चट्टानी
उस मरुभूमि में
जन्म-
जन्मांतर
कितने युद्ध हमने लड़े।
हम जीते, हम हारे।
कितने साका हमने किए—

केसरिया साफे बाँधकर,
हाथों में तलवारें लिए,
हम कूद पड़ते थे
शत्रु की
सेनाओं के भीतर
और
लड़-मिटते थे।

हम समर्पण नहीं करते थे।

दो

रेत हमें घेर लेती थी।

रेत, उठती थी।
रेत, उड़ती थी।
रेत, फैलती थी।
रेत, घूमती थी।
रेत, चीख़ती थी।

कैसे वह
एक बहुत ऊँची,
बहुत ऊँची
लहर की तरह आती थी!

फिर थम जाती थी।

रेत, गिरती थी।

रेत, बरसती थी।

रेत हमें ढक लेती थी।

तीन

हम सुबह-सुबह ही निकल गए।
बैलगाड़ियों पे सामान डाला और घर-बाहर छोड़कर चल पड़े।
उस बंजर से बचने का यही एक रस्ता था।
हम उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़े।
हमने सुना था कि हरा वहीं था।
दोपहर को चिलचिलाती धूप में हमने एक पेड़ देखा।
उसकी छाया ग़ायब थी।
एक भी पक्षी उस पर नहीं था।
जगह-जगह पशुओं के कंकाल पड़े थे।
उन्हें खाकर गिद्ध बहुत पहले वहाँ से जा चुके थे।
शाम को एक नगर के बाहर कुछ हड्डियों पर कुत्ते लड़ रहे थे।
वे ख़ुद भी हड्डियाँ ही थे।
नगर लगभग ख़ाली था।
ऐसी ही एक शाम हमें घेर लिया गया।

चार

आजकल
छियासठ की होगी वह
जिसे मैं राजस्थान में मिला था
जब मैं चौबीस का था।

उसी की नज़र मुझ पर पड़ी थी।
उसी ने शुरुआत करी थी।
पहल उसी की थी।

उम्र में वह मुझ से बड़ी थी
और यह वो समय था
जब मैं प्रेम शब्द को जानता भी नहीं था
पूरी तरह
(न अब जानता हूँ),

लेकिन वह जानती थी।

पर जिससे हम उद्वेलित थे
वह प्रेम नहीं कुछ और था।
जोधपुर की
चट्टानों को
(जो रोज़ हमें देखती थीं)
इसका पता था—

उन्हीं की ओट में
छिप-छिपकर
हम आलिंगन करते थे!!

पाँच

उन उँगलियों के बारे में मैं कुछ नहीं लिखूँगा।
बिल्कुल नहीं।
कभी नहीं।
और चाहे उन उँगलियों पे एक गुलाबी फूल पड़ा हो
जिसकी पाँच पंखुड़ियाँ हों,
और चाहे उन उँगलियों और उस फूल में भेद करना कठिन हो,
तब भी उनके बारे में मैं कुछ नहीं लिखूँगा,
ऐसा वादा मैंने ख़ुद से किया है—
बिल्कुल नहीं।
कभी नहीं।

छह

शायद उस शहर तक मैं पहुँच नहीं पाऊँगा
जहाँ तुम रहती हो।
शायद मैं उससे दूर कहीं पीछे छूट जाऊँगा अपनी यात्रा में—
संभव है उसी यात्रा में अंत मेरा हो
तुम्हें देखे बिना।
फिर भी अपनी कल्पना में मैं तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी आँखे, तुम्हारे होंठ, सब गढ़ लूँगा।
या फिर मैं यूँ सोचूँगा
कि तुम एक गुलाबी फूल हो
उस मरु में अकेला कहीं पड़ा हुआ।

सात

आज शाम कितनी उदास थी।
ओह वह लगभग रो रही थी।
आज दिन कुछ ऐसे ढल रहा था कि जैसे वह कल नहीं निकलेगा।
कितनी बातें मैंने तुमसे कीं।
ऐसे लग रहा था कि जैसे मैं नया हो रहा था,
कि जैसे एक नई आत्मा मुझमें बन रही थी,
एक दीप्त रोशनी मेरी आँखों के आगे फैल रही थी, आकाश की ओर उठ रही थी।
मैं काँप रहा था, एक नया जीवन जैसे कि मेरे भीतर ही भीतर आगे बढ़ रहा था।
पर तब भी यह शाम कितनी उदास थी।
वह लगभग रो रही थी।
दिन कुछ ऐसे ढल रहा था कि जैसे वह कल नहीं निकलेगा।

आठ

इस वितृष्णा में भी कोई वहाँ है,
उस मरु में।
मुझे नहीं पता कि वह कौन है—
कोई फूल या टहनी या पत्ता,
या उसका रंग क्या है—
शायद वह भूरा है
या लाल
या हरा।
शायद वह रेत का एक कण है,
कोई कंकड़
या पत्थर,
या कोई विशाल नीली शिला।
पर संभव है कि वह एक पर्वत है,
हाँ पर्वत,
या हवा
जो रेत को छूती हुई बहती है
और तब
उसी क्षण
रेत में
दौड़ जाती है एक सिहरन।

नौ

हमारे घोड़े थक चुके थे।

धूल से लिबड़े हम तब भी चले जा रहे थे।
पर वह जादुई एक प्रदेश था।
जैसे-जैसे हम बढ़ रहे थे हमारा गंतव्य हमसे दूर होता जा रहा था।
फिर भी हर एक क्षण वह कितना पास लगता था!!
उस ग़ुबार में भी वह काँच की तरह चमकता था।
कैसे एक भ्रम हमारे मन में वह पैदा कर रहा था!!
रातों को घंटियों की आवाज़ें आती थीं। हमारे तम्बुओं के पास विचित्र रोशनियाँ टिमटिमाती थीं।
हमने देखा कि हम ऐसी छायाओं से घिरे थे जिनके सामने हमारे शस्त्र नाकाम थे।
हम डरे नहीं,
लेकिन एक दिन हम कहीं पहुँचने से पहले ही लौट पड़े।

दस

निश्चित ही हम उदास थे
जब हम वहाँ से लौट रहे थे।
लेकिन प्रेम और उदासी का अटूट साथ है।
वह वीरान प्रदेश अब और भी वीरान लग रहा था।
पर हम हंडे हुए थे। प्रेम में न जाने कितनी ठोकरें हम पहले भी खा चुके थे।
सच तो यह है कि हम प्रेम की तलाश में नहीं निकले थे।
हमें पता था कि प्रेम मात्र एक शब्द है : हम कब से उसे छोड़ चुके थे।
एक गहर विरक्ति बहुत पहले से हमारे मन में रहती थी।
तब क्या था जो हमें चाहिए था? हम क्यों उस बंजर में यूँ भटक रहे थे?

वह अलभ्य कोई वस्तु थी जिसका बस आभास मात्र हमें था।
कुछ ऐसा
जो प्रेम की अनुपस्थिति,
जो हमारे मन में बसी
गहर
उस विरक्ति को
नए एक स्पंदन से भर सके।

ग्यारह

श्वेत रातें,
भूरी छतें।

उसे हम वहीं छोड़ आए,
वह जो रोज़ सोने जाती थी।

शुभरात्रि। शुभरात्रि। अब मुझे सोना है।
अच्छा रहे कि मैं स्वप्न में लौट जाऊँ।
इस पथरीले शहर में मैं कितनी अकेली हूँ।

शुभरात्रि।
नीले स्वप्न।
लपटों-सी उठती बाँहें।

शुभरात्रि।
एक अपार थकन से हम चूर थे।

न मृत जागते हैं,
न अ-मृत।

क़ब्रों पर
फूल निकल आते हैं।

पर मरु में केवल रेत बरसती है।

शुभरात्रि। शुभरात्रि।

बारह

नहीं, नहीं। नहीं, नहीं।
उन आँखों से मैं आँख नहीं मिलाऊँगा।
उन होंठों पर मैं होंठ नहीं रक्खूँगा।
वह त्वचा मेरी उँगलियों से अनछुई ही रहेगी।
वह घर तो क्या, मैं उस गली तक में नहीं घुसूँगा।
उस नगर में मैं पाँव नहीं धरूँगा।
घर से निकलूँगा,
उस नगर की ओर चलना चाहूँगा,
पर फिर भिन्न किसी दिशा में बढ़ जाऊँगा,
बढ़ता ही जाऊँगा।
नहीं, नहीं। नहीं, नहीं।

तेरह

ठंड के दिन थे।
हम पहाड़ी से उतर रहे थे।
हमारी राइफ़लें हमारे दाहिने कंधों पर थीं।
मैंने क्या बुरा किया, तुमने कहा,
यदि मैंने उसे पीछे वहाँ मरने के लिए छोड़ दिया?
वैसे भी वह बच नहीं सकता था।
बहुत देर तक हम चट्टानों के बीच उस सँकरे, ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते रहे।
बहुत देर तक मैंने कुछ नहीं कहा, न तुमने।
अब मैं तुम्हारे पीछे था। मैं ज़मीन पर देख रहा था। मेरा हृदय फट रहा था।
मैंने तुम्हारे हृदय वाली जगह पर निशाना साधा और ट्रिगर दबा दिया।
गोली की आवाज़ लंबे समय तक पहाड़ियों में घूमती रही।

 रुस्तम (जन्म : 30 अक्टूबर 1955) सुपरिचित कवि, दार्शनिक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : कुछ अजब दृश्य इधर मैंने देखे हैं

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