कविताएँ ::
अमन त्रिपाठी
या फिर
जाने किन ग्रहों की महादशा से निरंतर पीड़ित थे वे
उन लोगों के जीवन में कभी उनके स्वप्न मुताबिक़
दिन नहीं निकला
कौन जानता है वे क्या स्वप्न देखते थे
किसी अज्ञात जरजराते ग्रह के निवारणार्थ
उन्होंने कभी कोई पत्थर नहीं पहना
और वे कभी जान भी नहीं पाए कि जैसा उनके साथ है
वैसा क्यों है
क्यों वे लोग भाग जाते थे लड़कपन में ओशो के आश्रम
सात-आठ साल बाद लौट आने को और फिर
सारी उमर पछताने को
या गर्व और हसरत से कभी-कभी कहने को
कि वे नाज़ुक साल कितने हसीन थे
वे लोग जवान होने के दौरान
कम्यूनिस्टों से बच भी सकते थे
‘धीरे बहो दोन रे’ नहीं भी पढ़ सकते थे
और शादी-ब्याह करके घर-परिवार चला सकते थे
यह क्या कि कह दिया :
शादी और पूँजी से नहीं बँधूँगा
पच्चीस साल बाद केवल इस निष्कर्ष पर पहुँचने को
कि ग़लती शुरुआत में ही कहीं हो चुकी थी
बापों को ज़रूर गरियाते
माँओं को याद कर हुचुकते
पर उनके पैरों में लगी चकरघिन्नी
और आत्मा पर छाए अंधकार
और भीतर के निर्वात का स्रोत—
बापों को गरियाने और माँओं की ख़ातिर
हुचुकने से कहीं अलग
प्रणय और पण्य से कहीं अलग—
वे जो कुछ भी हो सकते हैं और
कुछ भी हो जाते हैं
जिन्हें किसी ग्रह ने मुक्ति नहीं दी
और वे घर छोड़कर कभी भाग भी नहीं पाए
उन्होंने या तो कविताएँ लिखना शुरू कर दीं और
कुछ गोदने गोदवा लिए
या फिर एक बिल्ली पाल ली
मृत्यु का माहात्म्य
एक व्यक्ति जिसके चले जाने से कोई ख़ाली जगह नहीं बनेगी
दरवाज़ा खोलकर चला जाएगा अपना निर्वासन और अपनी उपेक्षा साथ लेकर
और जैसा कि होता आया है लगातार उपस्थित लेकिन निरंतर उपेक्षित व्यक्तियों के साथ
उसके भी चले जाने पर लोग उमड़ पड़ेंगे अपनी शर्म और नज़दीकी दिखाने की युयुत्सा में
और ऐसा भी होता ही आया होगा कि
उस व्यक्ति के साथ लगातार बने रहे लोग
उसके जाने के बाद आए लोगों में
शामिल होने के लिए नहीं आएँगे
इस तरह
इन दो तरह के लोगों के द्वंद्व से या फिर
उपस्थित लोगों के स्वयं ही के विरोधाभासों से
स्मृति और संबंधों और सामाजिकता की एक परीक्षा संपन्न होगी
एक व्यक्ति के चले जाने की घटना के बाद के अनुष्ठान में
कहने की आवश्यकता नहीं पर मुँह खोलकर कह दिया जाए—
इस पूरे अनुष्ठान में
इस पूरी शर्म में
स्त्रियाँ कहीं नहीं हैं
वसंत में
वसंत में
जब कोई आएगा
तो अपने साथ
वसंत को भी लाएगा
वसंत आएगा पुनर्परिभाषित करता ख़ुद को
कभी नदी की तरह
कभी सरसों के खेत की तरह फूल की तरह
कभी वसंत के आने पर कोई
सुदीर्घ मृत्यु पूर्ण हो जाएगी
कभी किसी को वसंत की गंध में आएगी
ज़िंदा चमड़े के जलने की गंध
तब बुलबुलें भी आएँगी और उड़ जाएँगी
कौवे आएँगे और देर तक बैठे रहेंगे
कौवों को हम कौतूहल से देखेंगे
उनके बोलने को आगंतुक की सूचना मानकर
किसी के आने का इंतज़ार करते रहेंगे
एक पुराना दरवाज़ा खुलेगा और सामने दिखेगा
एक लंबे परिवार का विघटन
और नहीं दिखेगा एक मज़बूत रेशा वसंत की तरह
बुलबुलें आएँगी और उड़ जाएँगी
दुपहरों में बारिश होगी और बरसात में धूल उड़ेगी
वसंत आएगा ख़ुद को पुनर्परिभाषित करता हुआ
कभी धूल की तरह
कभी आगंतुक की प्रतीक्षा की तरह
कभी स्मृति की तरह
नष्ट होने से हम इतना तो नहीं डरते थे
मौतों पर हम बहुत कम
लगभग नहीं के बराबर रोते थे
रुलाई जब-जब आई तब किस बात पर आई यह तो ज्ञात नहीं
पर घर जलाने को
खेत छोड़ने को
विस्थापन के बारे में सोचने को दिनचर्या समझना हमारे ख़ून में था
हम इतिहास में भ्रमण करते थे और सिर्फ़ वर्षा ऋतु में प्रवास करते थे
कभी-कभी दिल टूटता था पर इस टूटने को अपने माथे पर
हमसे बेहतर कोई क्या पहनता होगा!
हमारे पास एक कबीर था एक मीर एक नज़ीर
पर देखते-देखते यह क्या हुआ
कि मृत्यु से निरपेक्षता के हमारे शब्दकोश में एक शब्द आया विकास
और सब कुछ ऐसे टूटा और विकसित हुआ
कि हम काँपने लगे कुछ भी नष्ट होने के नाम पर
हम जल्दी-जल्दी विकास की ज़द में आने से बचाना चाहते थे
अपने लोगों को
पर वहाँ कोई था ही नहीं
कभी-कभी तो यह भी लगता है कि
यह सिर्फ़ हम तीन ही लोग थे
जो इस सपने जैसी परिघटना से डर कर काँप रहे थे
सिर्फ़ तीन बचे थे
जो नहीं जानते थे कि किस-किस तरह से किया जा सकता है विकास
और यह भी नहीं कि परिवर्तन से हाथ जोड़कर कैसे कहा जाता है कि हे परिवर्तन!
अब आप न होइए और आप अब तुरंत हो जाइए!
अमन त्रिपाठी प्रयत्न-विस्तार के कवि हैं—स्वयं को बार-बार संशय से जाँचते हुए। वह ख़राब लगभग नहीं लिखते हैं, इसलिए दृश्य में देर-देर से प्रकट होते हैं। उनकी उपस्थिति एक बेहतरीन कवि मनोज कुमार झा की इस कविता-पंक्ति की याद दिलाती है : लुप्त होना दृश्य से घर ने सिखाया मुझको… अमन को ‘सदानीरा’ पर पर्याप्त पढ़ा जा सकता है : कहीं यह सब कुछ औपचारिकता न समझ लिया जाए │ ‘कोई गीत था तो यहीं था’ │ श्रीराम कंहार ने अब दीये बनाना बंद कर दिया है