पाठ ::
अमितेश कुमार

अपनी बड़ी बेटी अनन्या खरे के साथ विष्णु खरे

विष्णु खरे की कविता में स्त्रियाँ

‘देखना’ को विश्लेषित करते हुए अपने अंतिम साक्षात्कार में विष्णु खरे बताते हैं कि आयु और परिवेश के अलग-अलग अनुभव और चरण किस तरह देखने की सलाहियत पैदा करते हैं : बचपन, शिक्षा, नौकरी, जगह का छूटना, फिर वहाँ लौटना… यानी यात्राओं से देखने पर असर पड़ता है।

वह कहते हैं, “दरअसल, बाहर की आइडेंटिटी कोई मायने नहीं रखती और अंदर की आइडेंटिटी बहुत पेनफुल होती है, क्योंकि वह हमेशा देखती रहती है कि आप क्या हैं, संसार की आँखों में आप क्या हैं, अब आप क्या हो गए, अब आप क्या नहीं रहे।’’ इसी बोध से वह अंदर-बाहर की पहचान करते हैं और ‘देखते’ हैं और देखे गए की यह तफ़सील कविता में दर्ज होती है—बेबाक़ी से, निर्भय होकर; जैसे : 12 जुलाई 1976 की यह कविता, समय आपातकाल का, और परिवेश :

डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है
न डरो तो डरो कि हुकुम होगा कि डर

(डरो)

रघुवीर सहाय के ‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ के डर का यह अभिधात्मक विस्तार है। लेकिन यहाँ मेरा उद्देश्य विष्णु खरे की कविता के विश्लेषण में जाना नहीं है। दरअसल, उनसे की गई अंतिम बातचीत पढ़ते हुए एक ख़ास तथ्य पर मेरी नज़र पड़ी। विष्णु खरे कहते हैं, “जब मैं केवल छह साल का था, तब मेरी माँ की मृत्यु हो गई। माँ की स्मृतियाँ बहुत कटी-छँटी और सेलेक्टिव हैं। माँ की मृत्यु के बाद मेरी दोनों बुआओं की मृत्यु हुई। मेरे बारह साल के होते-होते औरतें हमारे परिवार से एकदम साफ़ हो गईं। औरत नाम की चीज़ ही नहीं बची।” जीवन में औरतों की अनुपस्थिति ने उनमें औरतों को देखने-जानने की उत्सुकता तो बनाई ही होगी या एक कसक होती होगी। बाहर की औरतों को देखने का यह अनुभव कैसा है? इस जिज्ञासा से मैं उनकी कविता में औरतों की उपस्थिति को देखने लगा और मैंने पाया कि वह इस अनुपस्थिति के अनुभव के उपरांत सार्वजनिक की उपस्थिति को कविता में कैसे दर्ज करते हैं? उनकी बहुत-सी कविताओं में यह ब्योरा मिल जाएगा। मेरी नज़र कुछ ख़ास कविताओं पर है, जिसके बारे में आगे बात होगी।

परिवार में औरतों की अनुपस्थिति को वह ‘दिल्ली में अपना फ़्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है’ कविता में कल्पित करते हैं :

माँ होतीं तो उन्हें कौन-सा कमरा देता?…

बड़ी बुआ होतीं तो उन्हें कौन-सा कमरा देता?…

एकल परिवार के दौर में वाचक एक फ़्लैट में अपना पूरा कुनबा विशेषकर औरतों को बसाना चाहता है, ताकि वह घर को घर में बदल सके :

कुछ ऐसा करो कि इस नए घर के सपने पुराने होकर दिखें
और उनमें मुझे दिखो बाबू भौजी बड़ी बुआ छोटी बुआ तुम

पितरों को घर में बसाने की कल्पना करते वाचक उनकी भूमिका या उनकी व्यक्तित्व की विशेषताओं को उद्धृत करना नहीं भूलता :

घर की बड़ी औरतें मजबूरन ही
कुछ घंटों का आराम चाहती हैं

(दिल्ली में अपना फ़्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है)

‘लड़कियों के बाप’ कविता में चिंतित बाप और नौकरी की इच्छुक लड़की के संघर्ष को दर्ज किया गया है। कविता के ब्योरे बहुत बारीक हैं, जैसे : साइकिल से उतरकर पैदल जाना, बाप की उम्र, लड़कियों की उम्र, टाइपराइटर का वज़न आदि। लड़कियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए कविता उनकी स्थिति का ईमानदार चित्रण करती है। लड़कियाँ कैसी हैं—सादी, घरेलू और बेकार। वे जो इम्तिहान में किसी तरह पास हुई हैं। अँग्रेज़ी ग़लत-सलत बोलने वाली और जिनकी देहयष्टि भी कातर है। इस कविता में सार्वजनिक दृश्य के रोज़मर्रापन को विष्णु खरे ऐसे चित्रित करते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण की रूपरेखा स्पष्ट हो जाती है :

अपनी बेटियों और उनके टाइपराइटरों के साथ
क़रीब-क़रीब गिरते हुए उतरते हुए
जो साइकिल से आते हैं वे गेट से बहुत पहले ही पैदल आते हैं

(लड़कियों के बाप)

गेट से बहुत पहले से पैदल आना इस दृश्य को सतर्क निगाह वाला व्यक्ति ही देख सकता है। आने को देखने के बाद जाने को वाचक कैसे देखता है, यह भी देखिए :

जो पिता के साथ ठंडे पानी की मशीनवाले से पाँच पैसा गिलास पानी पीती है
और इमारत के अहाते से बाहर बैठती है साइकिल पर सामने
दूर से वह अपने बाप की गोद में बैठी जाती हुई लगती है

(लड़कियों के बाप)

लड़कों की विजय-आकांक्षा का स्वप्न पालने वाले अभिभावकों के समाज में लड़कियों की नौकरी की तलाश में और उसकी फ़िक्र करते पिता का ऐसा चित्रण हिंदी साहित्य में दुर्लभ है। यह एक रोज़मर्रापन और उपेक्षणीय सामाजिक व्यवहार के सैद्धांतीकरण की भी कोशिश है। कविता में वाचक पूरी तरह बाहरी है। वह बाहर से इस प्रक्रिया को देखता है। एक दूसरी कविता में वाचक नौकरी देने वाली जगह पर मौजूद है और कविता का शीर्षक है—‘बेटी’। यहाँ अब वह पिता के साथ नहीं है। उनकी देहयष्टि और आर्थिक विपन्नता को वाचक अपनी मध्यवर्गीय चेतना से महसूस करता है :

वह सूखी साँवली लड़की
जिसके पसीने में बहुत पैदल चल के
कई बसें बदलने की बू थी
जिसके बहुत पहने कपड़ों से धूपहीन खोली के सीले गुदड़ों
और आम के अंचार की गंध उठती थी

(बेटी)

नौकरी न दे सकने के बावजूद वाचक के चित् का विस्तार होता है और वह नौकरी की तलाश में निकली हज़ारों बेटियों को मेरी हज़ारों बेटियाँ कहकर संबोधित करता है :

सुबह फिर निकल जाती हैं मेरी हज़ारों बेटियाँ
एक परेशान डरी हुई अपमानित उम्मीद लिए
अपने असली पिताओं से अलग उस पिता की तलाश में
जो उन्हें बेटी या क़ाबिल माने न माने रख तो ले।

(बेटी)

विष्णु खरे अपनी कविताओं में स्त्री को उसी दृष्टिकोण से दर्ज करते हैं जिस कोण से स्त्रियों को सामाजिक जीवन में देखा जाता रहा है—यानी एक वस्तु की तरह या देवी की तरह। सामाजिक जीवन में स्त्रियों का आचरण और स्वभाव एक निर्मिति है और पुरुषों द्वारा उनको देखा जाना भी एक निर्मिति है। इस निर्माण से बाहर निकलकर जब कोई स्त्री अपना निर्माण अपनी शर्तों और आकांक्षाओं पर करती है तो उसको देखने का सार्वजनिक नज़रिया बदल जाता है। बुद्धिजीविता, संवेदनशीलता इत्यादि के बाह्य आवरण के बावजूद पुरुष की लैंगिक असंवेदनशीलता उभरकर सामने आ ही जाती है। ऐसा हम अपने अनुभव और सार्वजनिक उदाहरणों से भी जानते हैं। रचनाकारों के सार्वजनिक जीवन में यह उभरकर सामने आता भी रहा है। विष्णु खरे की एक कविता है—‘हमारी पत्नियाँ’। इस कविता के दूसरे बंद में वाचक दर्ज करता है :

यदि हम सजग और संवेदनशील व्यक्ति हैं
और ऐसा मानने में झूठा संकोच कैसा कि हम हैं
तो हमने ग़ौर किया होगा
कि किस तरह हमारे लिए हमारी पत्नियों की ज़िंदगी
सिर्फ़ उस दिन से शुरू होती है
जब हमने उन्हें पहली बार देखा था—
उसके पहले के उनके जीवन के बारे में
एक ही शंका हम अपने अंदेशे को छेड़छाड़ में छिपाते हुए
लगभग आजीवन उनकी बनिस्बत अपने से करते हैं
कि हमसे पहले कोई और तो नहीं था।

(हमारी पत्नियाँ)

पति-पत्नी के बीच शक्ति-सरंचना कैसे काम करती है, कविता में इसका भी विवरण है। पुरुष यानी पति इस शक्ति-सरंचना को अपने ऐतिहासिक सुविधाजनक वर्चस्व से अपनी तरफ़ झुकाता है और उसको असुविधा तब होती है, जब पत्नी ख़ुदमुख़्तार होने लगती है और सतत क्या चलता है :

ज़्यादतियों के अनूठे नुस्ख़े आज़माते हैं हम अपनी पत्नियों पर
बचाना चाहते हैं अपनी पत्नियों को
ज़माने की बदशक्ली से
और उनसे जिन्हें हम सही या ग़लत उनकी ग़लतियाँ या बेवक़ूफ़ियाँ समझते हैं
ताकि ने उस तरह संपूर्ण और जटिल न बन सकें
कि हर बार उन्हें उन्हीं की शर्तों पर समझना पड़े

(हमारी पत्नियाँ)

यह कविता यह भी प्रमाण देती है कि विष्णु खरे उस पुरुष-मानस को अनावृत कर रहे हैं, जो अपने वर्चस्व के तंत्र बनाए-बचाए रखना चाहता है—उदारता के एक घोषित आवरण के साथ। स्त्रियों पर लिखी कविता में ज़ाहिर है कि मर्दों के बुनियादी आचरण के यथार्थ को उजागर करना ही लक्ष्य है, इसमें एक निर्मम तटस्थता है। इस कविता में भी घरेलू वैवाहिक जीवन और रोज़मर्रापन के विवरणों से ज़ाहिर होता है कि विष्णु खरे कितनी अधिक सतर्कता से ‘देखते’ हैं। इस सतर्कता का क़ायल मैं ‘हर शहर में एक बदनाम औरत होती है’ पढ़कर भी हुआ। यह कविता शहर के विद्रूप को रचती है—ऐसी औरतों को हवाले से जो ख़ुदमुख़्तार होती हैं और मध्यवर्गीय नैतिक मानदंडों से अलग एक स्वायत्त जीवन-शैली अपनाती हैं। कविता के शीर्षक में ‘हर’ का प्रयोग इसे एक सार्वदेशिक यथार्थ की कविता बनाता है, क्योंकि शहर में ऐसी औरतें लगातार जनता की निगाहों के फ़ैसले और पूर्वाग्रह की निर्मिति होती हैं। विष्णु खरे इन औरतों को एक तरफ़ उस दृष्टि से चित्रित करते हैं जिससे शहर का पुरुष-समुदाय उन्हें देखता है, दूसरी तरफ़ इन सबको देखने वाले की वाचक की नज़र से भी। ये औरतें दिखने में मर्दों के अनुकूल ही वांछनीय हैं, जिनके लिए ‘सैक्सी वालप्चुअस मैन-ईटर टाइग्रेस-इन-बेड आदि सारे विशेषण उसके वास्ते अपर्याप्त सिद्ध होते हैं।’ यह औरत होने से अधिक गढ़ी जाती है :

वह एक ऐसा वृत्तांत ऐसी किंवदंती होती है
जिसे एक समूचा शहर गढ़ता और संशोधित-संवर्द्धित करता चलता है

(हर शहर में एक बदनाम औरत होती है)

कवि यह नहीं भूलता कि ऐसी स्त्री मर्दवादी कल्पना की उत्पाद है और जिसको तैयार करने वाले ही उसके बारे में सब जानना चाहते हैं, बात करना चाहते हैं। बदनाम औरत के ब्योरे में वाचक मध्यवर्गीय हिप्पोक्रेसी की तहें उघाड़ देता है और ऐसी औरते हैं भी तो समाज के किस काम आती हैं? उनकी हैसियत क्या है… यह भी बताता है :

अध्ययन से मालूम पड़ जाएगा
कि शहरों की ये बदनाम औरतें बहुत दूर तक नहीं पहुँच पातीं
निचले और बीच के तबकों के दरमियान ही आवाजाही रहती है इनकी
न उन्हें ज़्यादा पैसा मिल पाता है और न कोई बड़ा मर्तबा
वे मँझोले ड्रांइगरूमों औसत पार्टियों समारोहों सफलताओं तक ही
पहुँच पाती हैं क्योंकि उच्चतर हलक़ों में
जिन औरतों की रसाई होती है वे इनसे कहीं ज़हीन और मुहज़्ज़ब होती हैं

(हर शहर में एक बदनाम औरत होती है)

विष्णु खरे अपनी कविता के वाचक मर्द और औरत को बराबरी के निषिद्ध और प्रतिबंधित धरातल पर यानी चाह (Desire) के स्तर पर भी साथ खड़ा करते हैं, जहाँ सिर्फ़ मर्दों की इजारेदारी रही है :

अगर हर फ़ुर्सत में एक नई औरत को हासिल करना अधिकांश मर्दों की चरम फ़ंतासी है
तो बदनाम औरत भी यह क्यों न सोचे
कि अलग-अलग या एक ही वक़्फ़े में कई मर्दों की सोहबत भी
एक शग़ल एक खेल एक लीला है
और कौन कह सकता है कि उसमें सिर्फ़ वहीं गँवाती है

(हर शहर में एक बदनाम औरत होती है)

~•~

यहाँ उल्लेख में आई कविताओं में सार्वजनिक स्पेस में औरत को देखने की जिज्ञासा, उन्हें अलग-अलग निगाहों से देखे जाने को सामाजिक शक्ति-सरंचना में उनकी स्थिति के साथ देखा गया है। कवि ने अपनी पुरुष-दृष्टि को छुपाने का प्रयास नहीं किया है, और निर्मम ब्योरों के साथ करुणा का जो स्वर कविता में है, वह भी एक मर्द की पोजिशन को ही तुष्ट करता है। सपाट गद्य और बोलचाल की भाषा में संभव हुई इन कविताओं में सामाजिक स्तरीकरण के पाठ निहित हैं, जो गहन बिंबात्मक अनुभवों से संघनित हैं। रोज़मर्रापन की ऐसी सघन और बौद्धिक कविताएँ दुर्लभ हैं।

विष्णु खरे (1940-2018) की कविताओं का यह पाठ अमितेश कुमार के एक वक्तव्य का संशोधित और संपादित रूप है। यह वक्तव्य गए दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक संगोष्ठी में दिया गया। विष्णु खरे की कविताओं का समग्र अब सेतु प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित है। अमितेश कुमार से और परिचय के लिए यहाँ देखें : ‘अँधेर नगरी’ के अँधेर का अर्थ ‘ख़ुद को मैंने संगीत के ज़रिए तोड़ा’‘मैं एक व्यक्ति के तौर बहुत राजनीतिक आदमी हूँ’

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