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श्रुति कुमुद

श्रुति कुमुद │ क्लिक : सुघोष मिश्र

‘जिगरी’ की ज़मीन

प्रकृति पर मनुष्य को तरजीह या दोनों का समन्वय, यह द्वंद्व हर दर्शन को आकार देता रहा है। बीसवीं सदी में विज्ञान की मदद से मनुष्य ने ख़ुद को केंद्र में स्थापित कर लिया और फिर कला की विधाओं में भी यह केंद्रीयता लक्षित होने लगी। लेकिन पशुओं और मनुष्यों का आदिकाल से बना संबंध तब तक लोगों ने बचाना चाहा, जब तक तकनीक और नीतियों ने उनका जीना दूभर नहीं कर दिया। मसलन ट्रैक्टर। ट्रैक्टर की ख़ूबियों से सब वाक़िफ़ होंगे और उसके फ़ायदे स्पष्ट दिखते हैं, लेकिन कोई भी तर्क खेती से बैलों के निष्कासन को जायज़ नहीं ठहरा पाता। वैसे भी रसायन आधारित कृषि-विधियों की समीक्षा अभी बाक़ी है।

इस स्थिति में चरवाहों, सपेरों और मदारियों के जीवन का हाल इसलिए भी अधिक चिंता का विषय है; क्योंकि एक तरफ़ बकरियों, भेड़ों, साँपो, बंदरों तथा भालू के जीवन का प्रश्न और उन पर टूटने वाले दुख के पहाड़ों का विषय हमें चिंतित करता है तो दूसरी तरफ़ मनुष्यों की वह आबादी है जो इन जीवों पर जीविका के लिए आश्रित है और सदियों से रही है; लेकिन उनका पुनर्वास मुकम्मल नहीं हो सका है।

तेलुगु भाषा के महत्त्वपूर्ण रचनाकार पी. अशोक कुमार का उपन्यास ‘जिगरी’ मनुष्य और प्रकृति की इसी पारस्परिकता को रेखांकित करता एक विह्वल कर देने वाला उपन्यास है।

‘जिगरी’ का कथानक हमें मदारी परिवार के घर ले जाता है, वरना बक़ौल आलोकधन्वा : ‘‘उनसे उतनी ही मुलाक़ात होती है जितनी वे रास्ते में आ जाती हैं।’’

सहजीवन (मनुष्य और पशु) का ऐसा अन्योनाश्रित संबंध यह उपन्यास प्रस्तुत करता है जिसमें ‘समय’ एक बड़ा चरित्र बनकर उभरता है। ‘एक समय’ में सादुल नामक भालू पर अपने बेटे (चाँद) सा समान स्नेह रखने वाली बीबम्मा को ‘दूसरे समय’ में सादुल फूटी आँख नहीं सुहाता। ‘एक समय’ में सादुल की देखभाल के मसले में अपने पिता तक पर भरोसा नही करने वाला चाँद ‘दूसरे समय’ में सादुल को जीवित ही गड्ढे में दफ़्न कर देना चाहता है।

आसन्न भविष्य के लिए मनुष्य वर्तमान और बीते समय को मूल्यवान बनाने वालों को विस्मृत ही नहीं करता वरन् उसकी क़ुर्बानी देने के लिए भी तैयार हो जाता है।

वर्तमान परिदृश्य में अकेले होते जाने की हमारी नियति के बीच यह उपन्यास हमें बहुत आत्मीयता से लबरेज़ और प्रेम से भरे सादुल और इमाम के संबंध में ले जाता है, जिससे कुछ वर्ष पहले का समय हमारी स्मृति से दस्तक देने लगता है। एक विस्तृत परिवार का दृश्य। बहुत सारे लोग। आस-पास के पशु-पक्षी। सबके सुख-दुख और चिंताओं से निर्मित एक ऐसे परिवार की याद अब बेचैन कर देती है, जिसके जन महज़ कुछ वर्षों में अलग-थलग हो जाने को विवश हो चुके हैं।

सादुल इमाम की जीविका का साधन रहा है। बीस वर्षों का उनका साथ है। शुरू के एक-आध बीमारी के साल को अलग करके देखें तो भी उन्नीस साल सादुल ने इमाम के परिवार का भरण-पोषण किया है। चाँद और सादुल साथ-साथ बड़े हुए हैं। चाँद जब परिवार को चलाए रखने और ख़ुद के लिए क़ाबिल होता है, तब तक बीस वर्ष की अवस्था का यह भालू मनोरंजन के लायक़ नहीं रह पाता।

चाँद को मिलने वाली ज़मीन और सँवरते भविष्य के बीच स्पष्ट कोई बाधा है तो वह सादुल है, ऐसा उसे लगता है और ऐसा लगने के पीछे एक सरकारी नियम है। अब उसे ज़मीन चाहिए, थका-हारा सादुल नहीं। माँ को किसी भी हाल में बेटा और उसका सुंदर भविष्य चाहिए, सादुल नहीं।

इमाम अपने अनुभव से ‘सिस्टम’ को जानता है। इसलिए ‘मुफ़्त की ज़मीन मिल जाएगी’ इस बात पर उसको कभी विश्वास नहीं होता। वह बार-बार सशंकित होता है। इसी क्रम में पुलिस प्रशासन की निरंकुशता की कितनी कितनी याद उसे खुलती है। गाँव की याद तो उसे डरा ही देती है, जब इमाम खेल दिखाने किसी गाँव में गया हुआ है और उसी दिन उस गाँव में चोरी हो जाती है। पुलिस जानबूझकर इमाम और उसके बेटे चाँद को चोर बता देती है। अगर आप पुलिस का हिस्सा तय समय से चुकाने में देरी करते हैं तो आप चोर, उचक्के, आतंकवादी कभी भी घोषित हो सकते हैं।

घर में दो टीम हो चली हैं। एक तरफ़ ज़मीन मिलने की कल्पना में हिंसक हो चले माँ और चाँद, दूसरी तरफ़ दुनिया देखा, भालू और मनुष्य के प्रति एक जैसा प्रेम रखने वाला इमाम और मनुष्यों से भी समझदार सादुल।

इमाम को भी चुनाव करना है। यही चुनाव इस उपन्यास का तत्त्व है—एसेंस।

अशोक कुमार का वैचारिक पक्ष इतना स्पष्ट और उज्ज्वल है कि कहीं भी सादुल के मनुष्य न होने एहसास नहीं होता। जब चाँद उसे पीटता है तब का दृश्य अत्यंत मार्मिक है। खुला हुआ भालू जब चाहे किसी मनुष्य को मार डाले, लेकिन सादुल उस आसन्न संकट के समय भी चाँद को डराता मात्र है।

उपन्यास से अलग यह बात भी रेखांकित करनी चाहिए कि भारतीय भाषाओं की रचनाओं का दूसरी भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से पहुँचना अत्यंत ज़रूरी है। बहरहाल, अभी तो आलम यह है कि भारतीय भाषाओं की पुस्तकों तक भी अँग्रेजी के ज़रिए ही पहुँचना हो पाता है। इस अर्थ में ‘जिगरी’ का हिंदी में अनुवाद करने वाले जे.एल.रेड्डी धन्यवाद के पात्र हैं।

श्रुति कुमुद हिंदी लेखिका हैं। वह विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन (पश्चिम बंगाल) में हिंदी पढ़ाती हैं। उनसे shrutikumud@gmail.com पर बात की जा सकती है। समीक्षित उपन्यास को पाने के लिए यहाँ देखें : जिगरी

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