संस्मरण ::
अविनाश मिश्र
‘प्रेम’ प्रसंग
एक मृत्यु एक मनुष्य को एक नए सिरे से समझने का अवसर है।
एक मृत्यु बहुत कुछ समझा सकती है, बशर्ते वह आपकी अपनी न हो। यह भी है कि किसी के न रहने की दूरी में आप उसे बेहतर देख सकते हैं, जिसके निकट रहकर उसका बहुत कुछ आपसे छूटता रहता था और यह नहीं लगता था कि वह बस बहुत दूर जाने को ही है।
इस प्रसंग में प्रेम भारद्वाज मुझे कभी जँचे नहीं। मैंने उनके साथ चार साल से ज़्यादा समय तक एक छत के नीचे नौकरी की। इस दरमियान कई मौक़े ऐसे आए, जब मुझे लगा कि मैं आख़िर इतनी मूर्खता कैसे सह रहा हूँ! लेकिन इस प्रकार की तकलीफ़ से नजात मुझे—तब भी और अब भी—यह सोचकर ही मिलती रही (है) कि समाज का अधिकांश मूर्खताओं से ही गतिशील और संपन्न है। मूर्खताओं ने सर्वोच्च स्थानों तक को घेर रखा है। वे इतनी ज़्यादा कामयाब हैं कि उनका यथार्थ कल्पना से परे नहीं है। इसलिए जीवित रहने के लिए मूर्खताओं की अनदेखी करनी पड़ती है और अक्सर मूर्ख बनना पड़ता है।
प्रेम भारद्वाज भीगे हुए कोयले के रंग के थे। ज़रा-सी हवा में उड़कर बिखरने वाले खिचड़ी बाल लिए हुए, वह एक अस्त-व्यस्त और भावुक मनुष्य थे। ‘पाखी’ का संपादकत्व उनके लिए स्प्रिंग-बोर्ड सरीखा था, इसके ज़रिए उन्होंने अपनी उन साहित्यिक-असाहित्यिक इच्छाओं को छू लिया, जिन्हें वह ‘पाखी’ का संपादक हुए बग़ैर ग़ालिबन ही कभी छू पाते। वह तत्काल के आरोहावरोह में रहते थे। इसमें ही उनके संघर्ष, सुख और घाव थे। इस प्रक्रिया से वह कुछ दूरगामी और स्थायी महत्त्व का काम कर सकें, इतनी क्षमता उनमें नहीं थी। वह ज़रूरत पड़ने पर घंटों मेहनत कर सकते थे, रात-रात भर जागकर काम कर-करवा सकते थे; लेकिन जब कोई ख़ास ज़रूरत न हो, तब वह एक कामचोर में बदल जाते थे और दूसरों को भी कामचोरी करने देते थे। वह दूसरों के काम से अपनी कामचोरी को ढँकना भी जानते थे। इतनी ही उनकी योग्यता थी—कार्य-शैली के संदर्भ में। उनमें तर्कशुद्ध निरीक्षण-क्षमता का घोर अभाव था। वह एक वाक्य तक शुद्ध नहीं लिख सकते थे। इस तथ्य को उनकी कॉपियों और उनके साथ काम कर चुके व्यक्तियों के अनुभवों से जाँचा जा सकता है। उनका लिखा कुछ भी तब तक सही प्रकाशित नज़र नहीं आ सकता था, जब तक कि कोई सही लिखने वाला उनके लिखे को सही न कर दे। इसके बाद भी उनके लिखे में ग़लतियाँ रह जाती थीं। वह भाषा और भाषा के प्रति दायित्व के प्रसंग में अचेत थे। वह कोई नशा नहीं करते थे, फिर भी बेख़ुदी ओढ़े रहते थे। इस सबके बावजूद वह एक संस्थागत पत्रिका के संपादक थे। यहाँ प्रश्न उठ सकता है—कैसे? बताता हूँ। इसे केवल प्रेम भारद्वाज के प्रसंग में न लेकर, एक प्रवृत्ति के अंतर्गत समझिए। प्रेम भारद्वाज के पास एक लचीली रीढ़ और एक व्यवहार-कुशल दिमाग़ था जिसमें ख़ुशामद भरी हुई थी। वह दिमाग़ वह नहीं रखते थे जिसमें विज़न, स्थायी महत्त्व की कार्य-योजनाएँ, भाषा का परिष्कार, नैतिक मूल्य, जोखिम, स्पष्ट वैचारिक नज़रिया और पक्षपातरहित चयन-विवेक होता है। वह मूलतः मालिक के साथ खड़े होने वाले व्यक्ति थे और इसके लिए वह कुछ भी स्वाहा कर सकते थे। मुझे यह जानकर बेहद तअ’ज्जुब हुआ था कि अपूर्व जोशी ने उन्हें नौकरी से निकाल दिया—लगभग बेइज़्ज़त करके। मालिक ने ही उनसे वह सब कुछ छीन लिया जिसके भरोसे वह जीते थे—प्रतिभा और योग्यता से बिल्कुल हीन होकर। उनके न रहने में इस छीने जाने की अहम भूमिका को मैं इस संस्मरण में रेखांकित करता हूँ।
जीवन को कहते हुए उसमें अल्पविराम और पूर्णविराम को नहीं कहा जाता है और उस अंतराल को भी जो एक शब्द से दूसरे शब्द के मध्य नज़र आता है, लेकिन जीवन को लिखना इससे अलग है; इसमें अल्पविराम और पूर्णविराम को भी लिखा जाता है और उस अंतराल को भी जो एक शब्द से दूसरे शब्द के मध्य नज़र आता है। इस नज़र आने में जीवन को लिख रहा एक वाक्य कुछ इस प्रकार की सुयुक्ति की तलाश में रहता है जिसमें वह कुछ इस प्रकार पूरा हो कि उसमें अल्पविराम और पूर्णविराम को न कहा जाए और उस अंतराल को भी जो एक शब्द से दूसरे शब्द के मध्य नज़र आता है। मैं जीवन और लेखन को जोड़कर लिखना चाहता हूँ, लेकिन सब कुछ जुड़ा हुआ नहीं है। कभी-कभी किसी के बारे में लिखना, उन चीज़ों से दुबारा गुज़रना है जिन्हें आप भूलना चाहते हैं। प्रेम भारद्वाज के बारे में लिखने से मैं इसलिए ही बचता रहा हूँ। उनके न रहने पर (इस संस्मरण से पूर्व) मैंने कहीं एक पंक्ति तक नहीं लिखी। मैं उनकी शोकसभा में नहीं गया। घटित को इच्छा बना लेने की आदत की वजह से मुझे प्रेम भारद्वाज बतौर व्यक्ति कभी बुरे नहीं लगे। उनकी वजह से मेरे जीवन में कभी-कभी जो अप्रिय घटित हुआ, उससे मेरा नुक़सान कम; फ़ायदा ज़्यादा हुआ।
मेरे अब तक के जीवन के सबसे रचनात्मक, विवादात्मक और प्रकाशित वर्ष (2012-2016) वे हैं, जिनमें मैं ‘पाखी’ के कार्यालय में सोमवार से शनिवार सुबह दस से शाम छह बजे तक नौकरी करता था—प्रेम जी के सहायक और अपूर्व जी के मुलाज़िम के रूप में।
इस अवधि में कोई भी दिन ऐसा नहीं गुज़रा जिस दिन प्रेम जी और मैं एक दूसरे के प्रति संदेह से मुक्त रहे हों। संभवतः वह मुझसे असुरक्षित महसूस करते थे। मैं उन्हें एक दयनीय व्यक्ति समझता था। वह शुरू में मुझे ‘पाखी’ में चाहते भी नहीं थे, बाद में मैं उनकी ज़रूरत बन गया। मैंने उनके लिए संपादन बहुत आसान कर दिया था। मुझे ‘पाखी’ में नौकरी वरिष्ठ साहित्यकार उद्भ्रांत जी की अनुशंसा पर अपूर्व जी ने दी—तब जब मुझे इसकी बहुत-बहुत ज़रूरत थी। मैंने चार साल से अधिक के अपने कार्यकाल के दौरान तीन बार इस्तीफ़ा दिया, लेकिन अपूर्व जी ने तीनों बार मुझे रोक-बुला लिया। मुझे निकाला भी अपूर्व जी ने ही।
इस सबके बीच प्रेम जी और मैं—एक दूसरे को लगभग नापसंद करते हुए—चार साल तक एक पत्रिका को साथ मिलकर चलाते रहे। इस ‘पाखी’-काल में मैंने कई नई चीज़ें सीखीं। महुआ माजी बनाम श्रवण कुमार गोस्वामी, निदा फ़ाज़ली बनाम अमिताभ बच्चन और कुमार विश्वास बनाम मुख्यधारा के हिंदी कवि जैसे बड़े विवादास्पद प्रकरणों को छोड़ भी दें तो छोटे-मोटे विवाद ‘पाखी’ में हर महीने होते रहते थे। इनके ज़रिए हिंदी समाज का नक़ली, क्रूर, सतही, दोग़ला, स्वार्थी, अवसरवादी और विचित्र चरित्र समझने में मुझे बेहद मदद मिली।
‘पाखी’ के अपने शुरुआती दिनों में मैं बहुत अवसादग्रस्त, गंभीर और मनहूस नज़र आता था, प्रेम जी ने मुझे मेरी इस स्थिति से बहुत जल्द ही उबार दिया और मुझे संस्थान के ख़ुशनुमा माहौल के अनुरूप कर दिया। वह एक मिलनसार व्यक्ति थे और उनका नाम उनके गुणानुरूप था। उनमें प्रेम था। उनकी स्मृति अच्छी थी। वह उत्प्रेरित करते थे। वह मुझे साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक बहसों में उलझा देते थे। वह नई जानकारियों में रुचि रखते थे और सुनते थे और तर्क करने देते थे और सीखते थे और उतार लेते थे, लेकिन श्रेष्ठ उनके संपर्क में नहीं था; लिहाज़ा वह कमतर से भी कमतर थे। लेकिन वह अपने जीवनानुभवों, अपनी स्मृति और अपने अंदाज़ से कार्यस्थल को इतना रोमांचक, सहानुभूतिमय और प्रेमपूर्ण बनाए रखते थे कि इसे भुला पाना मेरे लिए आज भी संभव नहीं है। इसमें अपूर्व जी के सहयोग के साथ-साथ उन बहुत प्यारे सहकर्मियों का योगदान भी बहुत यादगार है, जिन्हें एक साथ एक दफ़्तर में पाना कम से कम इस दौर में अन्यत्र असंभव है।
मासिक पत्रिका ‘पाखी’ और साप्ताहिक अख़बार ‘दि संडे पोस्ट’ का दफ़्तर एक ही है। ‘पाखी’ और ‘दि संडे पोस्ट’ अपूर्व जी की दो आँखें हैं—सबको समान देखती हुईं। लेकिन इस अवधि में ही मेरे कुछ लेखों, फ़ेसबुक पोस्ट्स और रिपोर्टिंग्स पर हिंदीसाहित्यसंसार की प्रकाशित-मौखिक प्रतिक्रियाओं से अपूर्व जी और प्रेम जी को सीधे तौर पर मानसिक परेशानियाँ झेलनी पड़ीं। मेरी ओर से यह सब कुछ अनायास था। मैं संस्थान में पूरी तरह अनुशासित था, लेकिन संस्थान के बाहर मेरी एक दूसरी साहित्यिक दुनिया थी; जहाँ मैं कोई अनुशासन, बंदिश और दबाव स्वीकार नहीं कर सकता था। प्रेम जी उसे भी नियंत्रित करने की कोशिश करते रहते थे। ‘पाखी’ से परे की इस दूसरी साहित्यिक दुनिया में मेरे तत्कालीन शुभचिंतक इस पर अचरज करते थे कि मैं प्रेम भारद्वाज (जैसे मूढ़) के साथ कैसे काम कर पा रहा हूँ। ज्ञानरंजन, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, असद ज़ैदी, देवी प्रसाद मिश्र, पंकज चतुर्वेदी के नाम इस प्रसंग में उल्लेखनीय हैं; और विष्णु खरे का भी जिन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि वह आदमी (प्रेम भारद्वाज) निहायत ही ग़ैरज़िम्मेदार, स्वार्थी और बेहूदा है। वह मदारी है। वह जब मंच पर बोलता है, तब लोग मुँह फाड़कर उसे देखते हैं कि ये कर क्या रहा है!
इस सबके बावजूद मुझे प्रेम जी के साथ काम करना कभी मुश्किल नहीं लगा और हो सकता है कि मुझे अगर वहाँ से (प्रेम जी की तरह ही, लेकिन प्रेम जी से पहले) निकाला न गया होता तो मैं आज भी वहाँ काम कर रहा होता और शायद प्रेम जी भी।
प्रेम भारद्वाज मेरी स्वतंत्र अस्मिता के पक्षधर नहीं थे। वह संस्थान के प्रति पक्षधरता और मठाचार्यों की पादुका उठाने में यक़ीन रखते थे। वह डर-डरकर क़दम रखते थे। मैंने उन्हें बहुत बार बहुत निराश-ओ-नाराज़ किया। उनके साथ काम करते हुए और उनकी जानकारी में ही मेरा साहित्यिक काम-काज हिंदी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहा था, लेकिन प्रेम जी कभी मुझसे ‘पाखी’ में लिखने के लिए नहीं कहते थे। एक साल तक ‘पाखी’ की प्रिंट-लाइन में उन्होंने मेरा नाम तक नहीं जाने दिया, वह समझते थे कि यह मेरे लिए महत्त्व का है और मैं इसके लिए उनसे अनुरोध करूँगा। ‘पाखी’ के विशेषांक जब पुस्तकाकार प्रकाशित हुए, वहाँ भी वह सारा श्रेय ख़ुद ले गए। यहाँ यह सब कहने का अर्थ बस यह है कि इस तरह की संकीर्णताएँ थीं उनमें। जबकि मुझे नहीं लगता कि यह सब करके किसी का भी कुछ ख़ास बनता-बिगड़ता है।
प्रेम भारद्वाज को हिंदी के कमतर की भी कमतर समझ थी। हिंदी की इंतिहाई ख़राब लेखिकाओं की कॉल से उनका सेलफ़ोन दिन भर व्यस्त रहता था। उनके केबिन में घुसने पर एक अजीब दुर्गंध से सामना होता था। वह अपनी झूठी तारीफ़ सुनकर बहुत जल्द प्रभावित हो जाते थे और झूठी तारीफ़ करके बहुत जल्द प्रभावित कर देते थे। ‘पाखी’ का संपादकत्व उनके लिए सब कुछ था, इसे गँवाकर वह कहीं के नहीं रहे। ‘पाखी’ में ही उनके प्राण थे। लेकिन मुझे सिर्फ़ संपादन पसंद था (है), किसी पाखी में अपने प्राण रखना नहीं। मैंने जबसे साहित्य पढ़ना शुरू किया, धीरे-धीरे यह इच्छा रूप लेती गई कि किसी पत्रिका के दफ़्तर में किसी कथ्य में सिर घुसाए उसे संपादित करता या पढ़ता रहूँ। यह मेरे मन का रोज़गार है, क्योंकि इसे करते हुए मैं अपने मन का काम कर रहा होता हूँ—यानी पढ़ना। इसलिए ‘पाखी’ मेरे लिए एक आदर्श जगह थी। मेरी आर्थिक ज़रूरतें कम थीं और ‘पाखी’ में पढ़ने-लिखने की बहुत आज़ादी थी। वहाँ कोई विशेष दबाव नहीं था, बस एक डेडलाइन थी जिसके भीतर आपको पत्रिका की प्रेस-कॉपी तैयार कर देनी होती थी। बाक़ी समय आप साहित्यिक दुनिया में विचरते रहिए। मैंने जिसे ऊपर ‘पाखी’ से बाहर की साहित्यिक दुनिया कहा है, दरअसल वह बाहर की नहीं थी; ‘पाखी’ उसके भीतर ही थी।
प्रेम भारद्वाज से मेरे मतभेद की एक बड़ी वजह यह थी कि मुझे लगता था कि वह ‘पाखी’ के पन्नों और ‘पाखी’ को प्राप्त पर्याप्त संसाधनों का सही उपयोग नहीं कर रहे हैं। वह हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता की गौरवशाली परंपरा से अपरिचित हैं। वह भाषा के नव-अन्वेषित व्यवहारों और उसके नवाचार से अनभिज्ञ हैं। मुझे लगता था कि जो प्रसार और सुविधाएँ ‘पाखी’ को प्राप्त हैं, उनमें उसका इतने गए-गुज़रे, कामचलाऊ और असुंदर ढंग से निकलना साहित्यप्रेमियों और हिंदीसाहित्यसंसार के साथ विश्वासघात है।
‘पाखी’ से बतौर सहायक संपादक जुड़ने से पूर्व, मैंने कभी इस पत्रिका को छुआ तक नहीं था। मैं इसे एक बहुत ख़राब पत्रिका समझता था और अब भी समझता हूँ। इसे आत्मश्लाघा और पूर्वाग्रह समझा जाएगा, लेकिन मैं यह कहूँगा ज़रूर कि ‘पाखी’ के मैंने सिर्फ़ वे ही अंक पढ़े हैं; जिनसे मैं बतौर सहायक संपादक संबद्ध रहा हूँ। मैंने इस अवधि में ही कुछेक बार ‘पाखी’ में लिखा, न इसके पूर्व—न इसके पश्चात्। अपूर्व जी के आग्रह पर प्रेम जी की स्मृति में यह संस्मरण इस अवधि के प्रति (जिसे मेरा ‘पाखी’-काल कह सकते हैं) मेरा कृतज्ञता-ज्ञापन है।
editor@sadaneera.com
‘पाखी’ (जून-2020, प्रेम भारद्वाज पर एकाग्र) से साभार प्रस्तुत।
“घटित को इच्छा बना लेने की आदत”
गहन जीवन अनुभव और विवेक से गर्भित आलेख
बहुत शुभकामनाएं!
बहुत सन्तुलित। वास्तव में सन्तुलित संस्मरण इसे ही कहते हैं। ज्यों की त्यों धर दीनी..
came to know.
मैं भी प्रेम भारद्वाज जैसे लोगों के बीच ईर्ष्या और कुंठित माहौल में नौकरी करने आया ( कर रहा हूँ )। किसी दिन आपके जितना ही ईमानदार होकर पहली नौकरी के बारे में लिखना चाहूँगा।