ग्राफिक गल्प ::
मीनाक्षी जे — जे सुशील
भूखी डायरी-II
एक
मेरी डायरी बहुत भूखी रहती है। चाहती है हमेशा इसमें कुछ लिखा जाता रहे। जैसे पेट को खाना चाहिए, वैसे ही डायरी को स्याही चाहिए। डायरी की भूख अक्षरों से और प्यास स्याही से मिटती है। पैंतीस साल की उम्र तक कभी-कभी डायरी लिखने का शौक़ रहा, लेकिन आज उन सभी पन्नों को एक साथ करने का मन हो रहा है जो शायद डायरी में लिखे जाने चाहिए थे।
दो
14 नवंबर : चाचा नेहरू पर भाषण है। नेहरू जी के बारे में इससे ज़्यादा नहीं पता कि वह हमारे पहले प्रधानमंत्री थे। सामने मैदान में स्कूल के सभी बच्चे हैं। आदरणीय प्राचार्य महोदय (जिन्हें हम टमाटर भी कहते थे) और शिक्षकगण के बाद आँखों के आगे अँधेरा, लेकिन अगले ही पल भड़भड़ बोल रहा हूँ। कब ख़त्म हुआ नहीं पता। तालियाँ बज रही हैं। अपनी पंक्ति में लौटा तो क्लास टीचर (देगची सर—चूँकि उनकी तोंद निकली हुई थी) ने दो मार्टन की टॉफी दी हैं। मस्त हो गया।
तीन
माइकल का बाप हमारे घर के सामने गिरा हुआ है। नशे में धुत्त उसके साथ एक और भी है जो बोलता है—ब्रहा विष्णु महेश्वर… आमार नाम झाड़ेश्वर। हमारे बग़ल में केदार बूढ़ा भी है। कारख़ाने में जाते समय भी टुल और निकलने के बाद भी टुल रहता है। एक ही साल में तीनों एक-एक करके मर गए। दारू पीना बुरी बात है।
चार
माँ संतोषी माँ का व्रत करती है, मतलब शुक्रवार को खट्टा नहीं खाना है। गुड़ और चना। छुपकर सुना कि पापा पहले बहुत दारू पीते थे। माँ ने व्रत किया तो पापा की दारू छूट गई। मैंने पापा को कभी नशे में नहीं देखा। पता नहीं कब पीते होंगे। जो भी हो इस चक्कर में गुड़-चना अच्छा लगता है। कोई फ़िल्म भी है—‘जय संतोषी माँ’। संतोषी माँ फ़ैशन में है। मेरी माँ बहुत फ़ैशन करती है।
पाँच
बबली अपने ही क्लास में है। उसके सीने बहुत उभरे हैं—बड़े-बड़े। वह उम्र में भी हमसे बहुत बड़ी है। दौड़ती है तो दूध ज़ोर-ज़ोर से हिलते हैं। सिंगा बोलता है कि फ़ुटबॉल का ब्लाडर है। गोल-गोल मोटी बबली हमको पूरा ही ब्लाडर लगती है। आठवीं में पहली बार नंगी तस्वीर भी देखी थी। कौन लड़की थी भगवान जाने। कोई अँग्रेज़ थी।
छह
छह तारीख़ बहुत मनहूस होती है। उस दिन पापा को वेतन मिलता है। मतलब घर में खाना नहीं पकेगा। सूदख़ोर आएँगे। पापा खाना नहीं खाएँगे। कोई खाना नहीं खाएगा। कोई किसी से कुछ नहीं पूछेगा। पता नहीं क्यों उस दिन भूख ही नहीं लगती है। कल से फिर माँ क़र्ज़ माँगने निकलेगी। दस रुपए सैकड़ा, बीस रुपए सैकड़ा। क़र्ज़ से रिश्ता पुराना पड़ चुका है।
सात
कॉलेज का नाम ही फ़क़ीर मोहन है। बहुत बाद में मालूम हुआ कि फ़क़ीर मोहन जैसे लेखक भारत में कम ही हुए हैं। कोई मार्केज़ है जो मैजिकल रियलिज्म लिखता है, लेकिन पता चला कि फ़क़ीर मोहन तो मैजिकल रियलिज्म का बाप है। दिल्ली में पता चला कि फ़क़ीर मोहन आज़ादी की लड़ाई भी लड़ा। कॉलेज के लड़के बोलते हैं—Fucking Mohan… बोलने वालों में मेरा नाम भी जोड़ा जाए।
आठ
बोल्ड एंड ब्यूटीफुल—हमको गोरी लड़की से ही शादी करना था। मुँह में चुम्मा देती थी। सांटा बारबरा। अँग्रेज़ी तो नहीं ही समझ में आता था, लेकिन मुँह वाला चुम्मा के चक्कर में घंटो स्टार प्लस टी.वी. देखते थे। पते नहीं चलता था कि कौन किसके साथ प्रेम कर रहा है और कौन किसको चुम्मा ले रहा है। बाद में जी टी.वी. पर भी चुम्मा-चाटी शुरू हुआ। बाद में पता नहीं क्यों बंद हो गया। बहुत्ते मज़ा आता था।
नौ
उम्र याद नहीं। दस या बारह साल। एक कमरे का घर था। कोई घर में आया था। सुरेंदर चाचा का बेटा। बड़े थे। पूछने लगे कि बड़े होकर क्या बनोगे। हमको लगा कि क्या कहें… क्या कहें… बहुत सोच के जवाब दिए कि आदमी बनेंगे… कहने की देर थी कि एक चमेटा लगा… हमको सिर्फ़ माँ ही मारती थी। हम उसी दिन तय कर लिए कि बड़े होके कुछ भी बनेंगे, आदमी नहीं बनेंगे… अब माँ बोलती है कि इ छौरा कहियो आदमी नय हेतय… माँ को क्या बताएँ कि थप्पड़ के डर से आदमी नहीं बने।
दस
कदंब का पेड़। दो बैठने वाली पुलिया। सामने से आती दो लड़कियाँ जिसमें से एक पर मेरा दावा था। दावा साबित करना ज़रूरी था उस दिन क्योंकि दूसरा दावेदार सामने वाली पुलिया पर बैठा था। लड़कियाँ गुज़रीं, सीटियाँ बजीं, देखते ही देखते मेरे दो चंगू-मंगू दोस्त स्कूटर पर यूँ आए मानो वे दोस्त नहीं, सुपरमैन और बैटमैन हों। बोले चलो आज साले को ‘आई लव यू’ बोल ही देना है। गाड़ी रुकी। हम उतरे। सामने लड़की। बोलती बंद। पंद्रह सेकंड तक लड़की और मैं। माँ क़सम… आई लव यू… दुनिया के तीन सबसे ख़तरनाक शब्द हैं।
ग्यारह
दादर स्टेशन पर हावड़ा-कुर्ला एक्सप्रेस रुकी तो हमें लगा कि अब हम हीरो बन ही जाएँगे। सीढ़ियाँ चढ़-उतर कर, लोकल का टिकट कटाया। सांताक्रूज। बाहर ऑटो वाले से कहा कि रॉयल पैलेस होटल जूहु। बिना दाम पूछे जैसे ही उसने मीटर गिराया… मैंने रोका… पैसे बता दो। वह बोला मीटर डाउन। मैंने कहा न कि पैसे बताओ वरना मैं डाउन। भाई समझ गया कि अभी-अभी उतरा है बंबई में। हँसने लगा और बोला कि दस-बारह बनेंगे। पहुँचा दिया होटल नौ रुपए में। बंबई ईमानदार शहर है।
बारह
एक छठ पूजा होती है जिसमें माथे पर टोकरी भर के फल लेकर नदी पर जाना पड़ता है। हमको सिर पर कुछ ढोने में बहुत ग़ुस्सा आता था। एकदम बैकवर्ड देहाती टाइप काम है। मँझला भाई ढोता था। हम पीछे खड़े होते थे ताकि लड़कियों को देखें। नदी किनारे। बाद में पता चला सारी लड़कियाँ टोकरी ढोने वालों को देखती हैं… जब तक पता चला तब तक बड़े हो गए थे… फिर भी टोकरी ढोने लगे… अब सब हमको देखती हैं, लेकिन हम सिर्फ़ माँ को देखते थे जो नदी के पानी में खड़ी रहती थी।
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‘भूखी डायरी’ की पहली क़िस्त ‘सदानीरा’ के 20वें अंक में प्रकाशित और ख़ासी प्रशंसित हुई। यहाँ इसकी दूसरी क़िस्त के साथ यह सूचना साझा करते हुए प्रसन्नता हो रही है कि मीनाक्षी जे (मी) और जे सुशील (जे) ने इस काम को अब लगभग एक किताब की शक्ल दे दी है। मी और जे कलाकार दंपति हैं, और इन दिनों सेंट लुइस, मिसौरी, अमेरिका में हैं। मी सेंट लुइस में वाशिंगटन विश्वविद्यालय से मैकडॉनेल स्कॉलर के तौर पर एम.एफ.ए. (मास्टर ऑफ़ फाइन आर्ट्स) की पढ़ाई कर रही हैं। जे अपनी बी.बी.सी. की नौकरी से ब्रेक पर हैं और घर-परिवार की देखभाल में मी की मदद करते हैं। मी से meejha@gmail.com पर और जे jey.sushil@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 21वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।
बहुत सुंदर ❤❤ अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी।।।।
भूखी डायरी -२ मज़ेदार लगी
भूखी डायरी बहुत ही शानदार है, एक लड़का जो किशोरावस्था में है दुनिया को कैसे देखता हैं, बहुत ही मार्मिक है । चित्रसज्जा गजब की है।
अतुलनीय