ग्राफिक गल्प ::
मीनाक्षी जे — जे सुशील
भूखी डायरी
एक
उम्र : चार साल। 1980 …एक बड़ी-सी सफ़ेद बकरी जिसके दाढ़ी भी है। दो मेमने। सुबह से तेज़ बारिश। बारह बजे कारख़ाने का पोंगा बजा है। पप्पाजी (हम पापा नहीं बोलते इससे पाप लगता है, ऐसा माँ ने कहा था शायद) आने ही वाले हैं। साथ में एक मरगिल्ला-सा कुछ है—हरा सा… तोता है—भीगा हुआ। कारख़ाने के गेट पर शायद घोंसले से गिर गया होगा। अब वह मेरा सबसे अच्छा दोस्त है, बोलता है—मिठू… मिठू…।
दो
उम्र : पाँच साल। 1981 …दुपहर में सोना ही पड़ता है, क्योंकि माँ सोती है। मैं माँ का दूध पीने की कोशिश करता हूँ, लेकिन दूध है नहीं। डिब्बे का दूध मेरी ख़ुराक है, क्योंकि माँ का दूध बड़ा भाई पी जाता है। अब वह सात साल का है तो बिना दूध के माँ का स्तन मेरा है। माँ उठेगी तो मारेगी नहीं। मुँह पोंछकर तैयार करेगी। लंबे बालों में फीता बँधेगा और मैं पहनूँगा फ्रॉक। पापा को बेटी चाहिए थी, लेकिन मैं पैदा हो गया—तीसरा बेटा। आँखों में काजल गड़ता है।
तीन
उम्र : क़रीब छह साल। स्कूल का पहला दिन। बस्ता लादकर पहुँच तो गया हूँ—गेट पर, लेकिन सीढ़ी पर चढना नहीं चाहता। फिर एक धोती-कुर्ता वाला आदमी पकड़कर ले जाता है। माँ का हाथ छूटता है और मेरा रोना चालू। पाँच मिनट में मैंने धोती-कुर्ता वाले कृष्णा सर का हाथ काट लिया है और स्कूल के बाहर भाग चुका हूँ। दौड़-भाग के बाद माँ ने फिर मुझे सौंप दिया है—कृष्णा सर के हाथ। उस दिन के बाद कभी भागा नहीं स्कूल से। स्कूल की लत लग गई। पता नहीं कैसे।
चार
उम्र : दस साल। आज ज़ोरदार पिटाई हुई। मेरे बाग़ान में बकरी घुसी किसी और की तो मैंने दे मारा पत्थर। माँ को ग़ुस्सा आया। पिटाई हुई है साल के दतुअन से—सड़ाक-सड़ाक—चमड़ी निकल गई। पिट गए तो क्या हुआ। स्कूल छोड़ने तो माँ ही जाएगी और फिर प्यारे बादाम वाले से टिफ़िन पैक होगा—बिस्कुट चनाचूर और चीनिया बादाम।
पाँच
धाँय… धाँय… धाँय…। पुलिस की जीप तीर की मानिंद निकली और अँधेरी सड़क का सीना चीरती निकल गई। वेद प्रकाश शर्मा मेरे अकेलेपन का साथी है। ‘मनोहर कहानियाँ’, ‘सरस सलिल’, ‘प्रतियोगिता दर्पण’ …जो मिल जाए चट कर जाते हैं, मस्तराम भी, प्रेमचंद भी, रेणु और शिवानी भी। किताबें मिलती नहीं हैं। छोटा शहर है। पता भी होना चाहिए कि पढ़ना क्या है। बॉटनी के पौधों में उलझने में मज़ा नहीं आता है।
छह
ग्यारहवीं में साइंस—अँग्रेज़ी मीडियम। चार पीरियड। कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा है। अँग्रेज़ी मीडियम के तरुण ने एक पर्चा दिया कि इस पर साइन कर दो। मैंने पूछा कि क्या है। वह बोला—अँग्रेज़ी आती नहीं है तो यहाँ रहोगे नहीं। उसके लिए अप्लीकेशन है। साइन कर दो। बहुत बदतमीज़ी है। हम बोले कि छोड़ेंगे नहीं चाहे जो हो जाए। चार महीने बाद तरुण मेरा सबसे अच्छा दोस्त हो गया है। अँग्रेज़ी का भूत अब पीछा नहीं करता। उस भूत के पीछे तरुण लग गया है।
सात
सितारा मौसी बहुत सुंदर है। वह शमुल्ला की मौसी है। हमको सितारा मौसी से ही शादी करना है। माँ को बोले भी थे। सब हँसने लगे थे—बात सुनकर। उसके बाद रेडियो पर बोला गया—इंदिरा गाँधी अब हमारे बीच नहीं रहीं। हँसना रुक गया। सब रेडियो पर ही टिक गए… हम पूछते रहे कि क्या हुआ… क्या हुआ… फिर किसी ने कहा कि भारत का सितारा टूट गया। इंदिरा गाँधी भी सितारा मौसी की तरह सुंदर होंगी।
आठ
चक्का… जाम… मतलब काम बंद। पापा कारख़ाने नहीं जाएँगे। करीम चाचा, भूपाई दा, सिंगा सब खदान में हैं—तीन दिन से। पुलिस भी है, गेट के सामने। फिर किसी बनर्जी बाबू ने झूठ बोला कि बोनस मिलेगा… बोनस मिलेगा। सब मज़दूर खदान से ऊपर आए। पता चला बोनस की कोई डील नहीं हुई। मज़दूरों ने बनर्ज़ी बाबू को पूरा बोनस दिया—लात-जूता-थप्पड़। फिर पुलिस आई और पुलिस ने मज़दूरों को बोनस देना शुरू किया—लाठी-बोनस। बोनस बहुत ख़तरनाक चीज़ है। हम अपने ऑफ़िस में बोल दिए हैं कि हमको बोनस नहीं चाहिए।
नौ
आज बंदी है, लेकिन स्कूल खुला है। हम लोग इंतज़ार कर रहे हैं कि कब जय झारखंड आए और स्कूल बंद कराए। शाम को आया जय झारखंड। अरुण भइया हैं एक, जय झारखंड को समझाने गए कि स्कूल न बंद करे। पड़ा दो तमाचा खींच के अरुण भइया को। सब हीरोगीरी निकल गया। यहाँ असली हीरो जय झारखंड ही है। बोल जय… झारखंड… जय… झारखंड…
दस
एक दिलगौरी है। हर दिन सुबह में उठकर पैर धोता है—झामा से। सुबह-सुबह झामा और साबुन लगाकर पैर झकझक सफ़ेद कर लेता है दिलगौरी। उसका घर ऊँचका पर है। उसकी बीवी पैर नहीं धोती है। हम लोग हँसते है और उसे ‘दिलौगरी पैर धोलू’ कहकर चिढ़ाते हैं। एक दिन बाबा को बोले, ‘‘बाबा इ दिलगौरी है न मुँह नहीं धोता है, पैरे धोता है ख़ाली।’’ बाबा बोले, ‘‘उही पैर से पावरोटी का आटा गूँथता है, जो तुम सुबह-सुबह लबर-लबर चाय के साथ खाते हो।’’ अब हम दिलगौरी को नहीं चिढ़ाते हैं।
ग्यारह
ट्रेन का टिकट तो कट गया है, लेकिन वेटिंग है। इंटरव्यू है दिल्ली में, तो जाना ज़रूरी है। एक ही सीट पर तीन लोग। सुबह 4.35 पर ट्रेन लग गई प्लेटफ़ॉर्म पर। पुरुषोत्तम राइट टाइम आती है। बस नंबर 615 पूर्वांचल हॉस्टल। सामने शीशा का एक बिल्डिंग है। ला मेरिडियन— दोस्त ने टोका, ‘‘अबे ला नहीं, ल मेरिडियन।’’ दिल्ली का वह पहला सपना था : सफल तभी मानेंगे जब ल मेरिडियन में खाना खाएँगे। बाद बाक़ी आगे इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन भी था। सपने में अभी भी ल मेरिडियन आता है।
बारह
किसी हॉस्टल में कभी इतना सुंदर कमरा नहीं देखे थे। भूदेव बहुत सफ़ाई से रहता है और पढ़ने में भी अच्छा है। पहली बार इतनी किताबें एक साथ देखे किसी कमरे में। रूममेट बोला तो लगा कि ज्ञान का भंडार उगल रहा है। फ्रस्टिया गए कि कुछ नहीं आता है हमको। पहली बार जीवन में पढ़ने का मन हुआ। कॉलेज में पढ़ाई होती है, यह इस कमरे को देखकर लगा था। इस कमरे तक आने में तीन साल लगे। जब हॉस्टल मिला तो वही कमरा लिए—222 …कमरा वही था, मैं बदल चुका था।
तेरह
‘मरुआ रोटी, मारा माछ… कचरी गमके ओय अँगना…’ पिताजी को यह गाना बहुत पसंद था। हमको पसंद था : ‘सिरहुनिमे चेत काना…’ पिताजी को दाल-भात-सब्ज़ी पसंद था। हमको पानी-भात–प्याज पसंद था। पापा को बगिया और ठेकुआ पसंद था। हमको मीट-पीठा और चावल-पीठा पसंद था। पापा शराब नहीं पीते थे। हमको हंडिया का नशा था। बाप-बेटे में तनातनी वहीं से थी। पापा हमको संस्कारी बनाना चाहते थे और हम जंगली हो गए। हमको अब जंगल के क़ानून से डर नहीं लगता।
***
यहाँ इस प्रस्तुति में प्रयुक्त तस्वीरें मीनाक्षी जे (मी) की हैं और गद्य जे सुशील (जे) का। मी और जे कलाकार दंपति हैं, और इन दिनों सेंट लुइस, मिसौरी, अमेरिका में हैं। मी सेंट लुइस में वाशिंगटन विश्वविद्यालय से मैकडॉनेल स्कॉलर के तौर पर एम.एफ.ए. (मास्टर ऑफ़ फाइन आर्ट्स) की पढ़ाई कर रही हैं। जे अपनी बी.बी.सी. की नौकरी से ब्रेक पर हैं और घर-परिवार की देखभाल में मी की मदद करते हैं। मी से meejha@gmail.com पर और जे से jey.sushil@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 20वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।
आनंद आया पढ़के. अगर सम्भव हो तो और पब्लिश करें।
It was mesmerizing! When is this coming in form of book and reaching the stores? Eagerly waiting!
लाजवाब।
इसमें गद्य लाज़वाब है कि उसका रेखांकन – यह कहना बड़ा मुश्किल काम है। 💐👌