गद्य ::
जे सुशील
हाथों में थमा कैमरा साँस लेना बंद कर चुका था। आँखें रुक गई थीं और सामने बीस साल पुराना वक़्त बाँहें खोल कर खड़ा था।
दस बटे बारह का एक कमरा जिसमें एक पलंग थी। सीमेंट के चार रैक्स में सबसे ऊपर सूटकेस। फिर किताबों की जगह। फिर भगवान जी और सबसे नीचे बाक़ी सब कुछ।
खिड़की की हरी रेलिंग पर कोई लटका हुआ था। लंबे बाल। हाफ़ पैंट और आँखों में शरारत। खिड़की से बाहर हरे-हरे आमों को देखता। सामने किसी की शादी का खाना पक रहा था और वह इस खाने को ललचाई आँखों से देख रहा था।
फिर आवाज़ आई… माँ भूख लगी है। दो चोटी वाली माँ किचन से निकली थी—चीनी भर के बनाई रोटी के साथ। माँ को पता होता है कि लंबे बालों वाला ललचा गया है—शादी का खाना देख कर।
कैमरा रुक गया था। रील पीछे घूम गई थी—बीस साल पीछे। क्लिक करने के लिए उठी उँगली फ़्रीज हो गई थी। फ़्रेम में वह लंबे बालों वाला लड़का आ नहीं रहा था। कैसे आता वह तो कैमरे के पीछे था।
दो कैमरे, एक वीडियो रिकॉर्डर और एक मोबाइल। सब कुछ रिकॉर्ड कर लेना था। सूखी लकड़ियों से घिरे बाग़ान के सामने भी कोई खड़ा था। टिन का दरवाज़ा ठीक करता हुआ।
चिलचिलाती धूप में फावड़ा और गैंती चलाता। पसीने से तरबतर पतले-पतले हाथ थके थे, लेकिन ख़ुश थे। गैंती पत्थर पर लगती और टन की आवाज़ आती थी। फूल उगाने थे, गर्मी की छुट्टियों में।
गीली मिट्टी ऊपर आ गई थी। साथ में दूब घास, पत्ते और सड़ा हुआ बेल भी जो पेड़ से गिरा था। घर के भीतर से माँ ने आवाज़ दी थी—अब छोड़ दो। बीज डाल दो, शायद इस बार तुझसे फूल लग जाए।
हर कैमरा क्लिक कर चुका था, लेकिन न तो गीली मिट्टी आई… न दूब और न ही सड़ा हुआ बेल। एक बदसूरत झोपड़ी जो उस मिट्टी पर बन आई थी, उसका दरवाज़ा तस्वीर में मुँह चिढ़ा रहा था। बग़ल के बाग़ान की बकरी मिमियाई और बोली—कहाँ रहे इतने दिन। अब तो मैं जा चुकी हूँ।
दो कमरों वाले घर के सामने अमरूद का पेड़ सूख चुका था, लेकिन बाक़ी हरियाली बहुत थी। बालकनी में खड़ा लड़का अब युवक हो चला था। अस्त-व्यस्त हल्की दाढ़ी और बाल लंबे हो चुके थे। अजीबोग़रीब चश्मा और बेचैनी थी चेहरे पर।
बार-बार बालकनी में आता किसी को खोजता फिर घर के भीतर चला जाता। टी.वी. चलने की आवाज़ साफ़ आ रही थी। कैमरा निकला और खटाखट प्रिंट के प्रिंट बनने लगे। पीली दीवार पीली ही थी। सूखा अमरूद का पेड़ भी था। लेकिन लंबे बालों वाला ग़ायब था, यहाँ भी। उसकी बेचैनी कैमरे के पीछे दिखने लगी थी।
कुछ भी क़ैद नहीं हो रहा था कैमरे में, लेकिन बहुत कुछ खींच रहा था। कॉलोनी के ग़ुंडई चौक से आगे बढ़ते हुए पान की गुमटियाँ जो अब बड़ी हो गई थीं। भरा हुआ सामान मुँह चिढ़ा रहा था और पान लगाता पंकज बूढा़ हो चुका था। बाबू मुस्कुराया था, उसके दाँत सफ़ेद से भूरे हो चले थे, बोला इतना कैमरा है फ़ोटो खींचो न।
भूरे दाँत और मुँह चिढ़ाता सामान क़ैद हो गए, लेकिन अपने लिए पचास पैसे वाली टॉफ़ी ख़रीदता लंबे बालों वाला वह बेचैन युवक अब भी मुस्कुरा रहा था, मानो कह रहा हो कि मुझे क़ैद नहीं कर सकते तुम।
मन भीग चुका था बेचैनी से। जगह-जगह घरों के आगे टीन के बदसूरत छप्पर बेचैनी को और बढ़ा रहे थे। पहाड़ और नदी के बीच का फ़ासला दो मिनटों में तय हो गया। मंदिर भी वहीं था। वह गहराई का संकेत भी वहीं था और नदी को पार करने वाले ग्वाले भी कमर तक पानी में डूबे हुए थे।
लंबे बालों वाला शख़्स भी वहीं था। पानी में पत्थर फेंकता। जब-जब पत्थर पानी से टकराता, कैमरा टूटता… फ़्रेम टूटता और कुछ मन के अंदर गूँजता।
कैसे क़ैद कर लोगे तुम इस प्लास्टिक के साँचे में अपनी अंतरात्मा को?
कैसे क़ैद कर लोगे तुम अपने ज़ेहन में अपनी मासूमियत को?
अपने बिताए हुए पलों को तुम सिर्फ़ देख सकते हो।
उन्हें अपने मानस पर उकेर सकते हो तुम
क़ैद नहीं कर सकते अपने दिमाग़ में क्योंकि दिल दिमाग़ नहीं होता और दिमाग़ दिल नहीं होता।
जाओ अपने उस नन्हे फ़रिश्ते को अपने दिल में सँजो कर, उस बेताब किशोर को अपनी बाँहों में दाब कर, उस बेचैन युवक को कलाई से पकड़ कर… फिर वह शायद तुम्हारे पास और तुम्हारे साथ रह सकेगा।
जे सुशील का काम-काज समय-समय पर ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित, प्रशंसित और चर्चित रहा आया है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें :
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इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज सुमेर के सौजन्य से।