अजंता देव की कविताओं पर ::
दीपशिखा

दीपशिखा

ईशावास्योपनिषद की एक बहुचर्चित सूक्ति है :

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

अर्थात : सत्य का मुख सोने के पात्र से ढंका हुआ है. हे पूषन! वह सत्य-धर्म दिखाई दे इसके लिए तू उस आवरण को हटा दे.

अजंता देव की कविताओं को पढ़ते हुए ऊपर उद्धृत सूक्ति बार-बार अपनी अर्थवत्ता को दुहराती हुई-सी लगती है. अजंता की हर कविता में परत-दर-परत तमाम प्रतिष्ठानों की भव्यताओं के आवरण धीरे-धीरे उतरने लगते हैं. सामाजिक संस्थाओं से लेकर बहुत से सांस्कृतिक उपादान जिस सार्वभौमिक वर्चस्ववादी संस्कृति के अहम् को अपने भीतर मूल्यों के तौर पर समेटे हुए हैं, अजंता देव अपनी कविताओं में बेलौस तरीके से उन मूल्यों की वास्तविकता को खोलती हुई दिखाई देती हैं. वर्चस्ववादी प्रवृत्ति कई बार उच्च कलात्मक मूल्यों और उससे जुड़ी संवेदनाओं को भी किस तरह विकृत कर देती है, इसे उनकी इस एक कविता-पंक्ति से समझा जा सकता है :

श्रेष्ठता की इच्छा कई बार कला को युद्ध में बदल देती है

इस तरह की पंक्तियां ऊपर से जितनी सरल लगती हैं, भीतर से उतने ही बहुस्तरीय सामाजिक-सांस्कृतिक विकास-क्रम को स्पष्ट करने की अर्थवत्ता लिए हुए हैं. हमारा समय ही नहीं बल्कि संपूर्ण सभ्यतागत विकास ही कई तरह की विडंबनाओं से निर्मित हुआ है, ऐसे में कुछ खास तरह की भव्यताएं अपने पीछे हर तरह की क्रूरताओं को छुपाए हुए हैं. अजंता ने अपनी कविताओं में बहुत सहज तरीके से इस सभ्यतागत स्वांग का मुलम्मा उतारा है.

अजंता देव के कविता-संसार में जितना प्रकट है, उससे कहीं ज्यादा अप्रकट :

काली आंखें
काले बाल
काला तिल
जब सौंदर्यशास्त्र ने इतनी काली चीजें गिना रखी हैं
त्वचा का कालापन क्यों नहीं…
क्यों सिर्फ अंधेरे में सहलाई जाती है काली देह
सवेरे हिकारत से देखे जाते हैं अपने ही नाखूनों के निशान 

इन पंक्तियों में एक साथ सभ्यतागत विकास और शास्त्रीय प्रतिष्ठानों के छल, औपनिवेशिक मानसिकता और उसका पितृसत्ता से गठजोड़ और उसमें भी हर तरह की असंवेदनाओं की मार को सबसे ज्यादा सहने वाली स्त्री की नियति एक साथ दर्ज है. पहली दुनिया से लेकर तीसरी दुनिया तक के देशों के सांस्कृतिक इतिहास से लेकर उसके वर्तमान तक के यथार्थ को इन पंक्तियों में देखा जा सकता है. इसे अजंता की काव्य-शैली के तौर पर भी देखा जा सकता है, जहां अधिकांश व्यंजना में है और बहुत कम अभिधा में. आज जब उत्पादकता की होड़ मची है, ऐसे समय में इस तरह की कविताएं निश्चित तौर पर वही रचनाकार रच सकता है जो विविध जीवनानुभवों को रचा-पचा कर उसे पुनर्सृजित करता है. ऐसी स्थिति में ही कला का कोई भी माध्यम जीवन से एकमेक हो सकता है. अजंता लिखती हैं :

राग को पूरी शुद्धता से गाना
और प्यार में सारे संकट को झेलना बहुत भारी काम है
देख-सुनकर ही मंच पर उतरना चाहिए

इस तरह की पंक्तियां किसी भी रचनाकार की कलात्मक प्रतिबद्धता और लेखकीय ईमानदारी के साथ ही साथ उसकी रचना-प्रक्रिया को भी खोलने का काम करती हैं. हर दौर में कला और जीवन में जिस तरह सायास एक दूरी बनाने की कोशिश की गई, तमाम कलाएं विशिष्टताबोध का शिकार होती रहीं, जिसे बेहद उत्कृष्ट सौंदर्याभिरुचि मानकर एक खास दायरे में जकड़कर रखा गया, उसे जनसुलभ नहीं बनाया गया. ऐसे कलात्मक उपादानों की निर्माण-प्रक्रिया को जीवन-प्रक्रिया के साथ रखकर देखने की दृष्टि उसी रचनाकार के यहां संभव हो सकती है, जो कलाओं के ऐतिहासिक अंतरावलंबन और उसमें सांस्कृतिक-चेतनाओं के परावर्तन को देखने-समझने का पक्षधर हो. ऐसा चेतस कवि या कलाकार ही आत्ममुग्धता का शिकार न होकर तटस्थ आलोचक की मुद्रा भी अपना लेता है :

क्यों अक्षरों के घूम
लगते हैं भूलभुलैया से
यह कौन-सा तिर्यक कोण है
जहां अपनी ही आंख
दूसरे की हुई जाती है

अपनी ही आंख का दूसरे का हो जाना गहरे आत्मालोचन को लेखन-प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण पक्ष के तौर पर स्थापित करना है. यहां मुक्तिबोध याद आ सकते हैं. यह दौर जितना क्रूरता का है, उतना ही आत्ममुग्धता का भी. व्यक्ति जितना आत्म-केंद्रित और स्वचेतस हो गया है, उतना ही असंवेदनशील और क्रूर भी. इस तरह की परिस्थिति का अगर कोई भी प्रतिपक्ष रचा जा सकता है, तो उसका सबसे बड़ा और कारगर हिस्सा तटस्थ आत्मालोचन का होगा. लेकिन जब हम पूरे परिवेश पर नजर डालते हैं तो आत्मालोचन तो बहुत दूर, संवाद की भी जगह रोज-ब-रोज कम होती जा रही है.

एक सभ्यतागत विकास-प्रक्रिया को अपने भीतर समेटे हुए अजंता देव की कविताएं सबसे ज्यादा अपने वर्तमान से संवाद करने वाली कविताएं हैं, जिस तरह का सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन वर्तमान में हो रहा, उसमें एक ओर तो सारी सीमाओं को तोड़ते हुए ग्लोबल विलेज का एक उदारवादी चेहरा है. वहीं दूसरी ओर लगातार कम होता डेमोक्रेटिक स्पेस है. दरअसल, यह नवउदारतावाद अपने भीतर एक खास तरह की क्रूरता लिए हुए है और समय-समय पर कभी उत्तरआधुनिकता के नाम पर तो कभी उत्तरसत्य के नाम पर यह क्रूरता अपना केंचुल छोड़ बाहर निकल आती है. किस तरह इस क्रूरता को संस्कृति का जामा पहनाकर एक सामान्य-बोध निर्मित किया जा रहा है और संवाद की सारी जगहों को संवाद की सारी जगहों पर खत्म किया जा रहा है, इसे अजंता बखूबी पकड़ती हैं :

पुरानी बंदिशों में वादी-संवादी का ख्याल रखा जाता था
आज-कल
विवादी सुर तीव्र-सप्तक में गाए जाते हैं

इस विवादी सुर को और तेज करने के लिए तमाम संसाधनों का इस्तेमाल कर एक भीड़तंत्र बनाया जा रहा है. इस भीड़तंत्र को बनाने में हर तरह की सत्ता जी-तोड़ कोशिश कर रही है. हर तरह की सत्ता के पास कुछ लोगों की भीड़ है जिसे जब जहां चाहे इस्तेमाल किया जा सकता है, और इसका परिणाम कुछ समय बाद इस सामान्य-बोध के तौर पर आएगा कि अब सत्ताएं आक्रांत नहीं करती हैं, बल्कि भीड़ को भारी करती है. अजंता की दृष्टि मानव-संसाधन को भीड़ में तब्दील करने वाली इस सत्ता-संरचना पर भी है :

भीड़ बचाती नहीं, कुचल देती है कभी-कभी खुद को भी
भीड़ एक सरल शत्रु है

इस सरल शत्रु को निर्मित किया जा रहा है. भीड़ का आत्मघाती चरित्र उसकी निर्मितिगत विशेषता है और सत्ता को सबसे ज्यादा प्रेम भीड़ के इस आत्मघाती चरित्र से है.

अजंता देव की कविताएं पढ़ते हुए बार-बार मुक्तिबोध याद आते हैं. वास्तव में मुक्तिबोध के बहाने से यह हिंदी कविता की एक समृद्ध बौद्धिक विरासत का स्मरण है. अजंता की कविताएं इसी विरासत का हिस्सा हैं. अपने समय में मुक्तिबोध को चांद का मुंह टेढ़ा लगा था, इस दौर में अजंता चांद को सत्ता-संरचना के संगी के तौर पर देख रही हैं. कोमलता की चादर ओढ़े हुए क्रूरता जिस तरह से अपनी तमाम अमानवीयताओं को छुपाए रखती है और उसे प्रकारांतर से महिमामंडित भी करती रहती है, अजंता की कविता इस गठजोड़ को बेनकाब करती है :

चांद बलवान के लिए चमकता है
निर्बल को सहारा हमेशा अंधेरे ने दिया
शिकारी का साथ देने का कलंक साफ दिखता है पूर्णिमा में

यह चमकदार छद्म निश्चित तौर पर ज्यादा आकर्षित करने वाला है, लेकिन इसका प्रतिरोध कठोर सत्य का साथ ही रच सकता है. ‘आधुनिक कुटिल इंद्रजाल’ के माध्यम से व्यवस्था के हर तरह के छल-छद्म की अजंता अचूक पहचान करती हैं. इस कटु यथार्थ की अभिव्यक्ति में ये कविताएं न तो फॉर्मूलाबद्ध हैं और न ही सतही भावुकता से भरी हुई. एक सजग कवि का विवेकसम्मत अनुभव इन कविताओं में दिखाई देता है.

जहां आज पूंजीवाद और वर्चस्ववादी संस्कृति अपने विस्तार में क्रूरता के चरम तक पहुंचती जा रही है, वहीं तमाम अस्मिताएं भी अपनी खोई हुई पहचान पाने में सक्रिय हो चुकी हैं. इन दोनों में लगातार द्वंद्व भी चल रहा है. अस्मिताओं की चेतना के इस युग में नस्ल से लेकर लैंगिक पूर्वाग्रह कुछ हद तक टूट रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर बाजार इन पूर्वाग्रहों को और अधिक ग्लोरिफाई करके प्रस्तुत कर रहा है. कई बार हिंदी कविता और समकालीन विमर्श इस द्वंद्व में फंस के रह जा रहे हैं.

आज निश्चित तौर पर हिंदी कविता स्थूल रूप में दिखाई देने वाले और बेहद सपाट तौर पर चलने वाले नैतिकता और अनैतिकता, शुद्धता और अशुद्धता, उत्कृष्ट और निकृष्ट, सांस्कृतिक वर्चस्व और पतन, देवी और वैश्या जैसे द्वंद्वों से आगे बढ़ चुकी है… लेकिन बेहद जटिल और सूक्ष्म द्वंद्वों में अभी भी फंसी हुई है : जैसे रचनाकार की अपनी संवेदना और समाज-प्रदत्त वर्चस्व का द्वंद्व. ऐसे में अजंता की कविताएं कला और साहित्य के मूल्यों का निर्वाह तो कर ही रही हैं, इस तरह के द्वंद्वों से बाहर निकलने का रास्ता भी दिखा रही हैं. बिना किसी शोर-शराबे या इश्तहार के ये कविताएं अपने भीतर हर तरह की संवेदनाओं को न केवल संजोए हुए हैं, बल्कि उसे प्रतिरोधी चेतना में बदलने का जरूरी काम भी कर रही हैं :

लोहे को लोहा ही काटेगा
सुवर्ण नहीं चांदी तो बिल्कुल नहीं
लोहे को अगर कोई नष्ट करेगा तो वह पानी है
यह पानी काली आंखों में आए आंसू भी हो सकते हैं

काली आंखों का यह पानी सहमी हुई नस्ल के भीतर की वह आग है जो दमन और शोषण के हर तंत्र के खिलाफ कभी भी भड़क सकती है, और इसके लिए उसे सुविधासंपन्न लोगों की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि वे अपनी छुद्रताओं के बोझ से ही इतने दबे हुए हैं कि उस पानी के आग में बदलने को महसूस भी नहीं कर सकते. असमानता के खिलाफ लड़ने की पहली शर्त होती है— आत्मविश्वास. यह आत्मविश्वास आता है किसी भी तरह गुलाम रह चुकी जनता में खास समय के बाद जन्म लेने वाले आत्मसम्मान से. इस आत्मसम्मान को अजंता की नस्लीय और लैंगिक संवेदना वाली कविताओं की मूल चेतना के तौर पर देखा जा सकता है :

यह मेरे लहू का लोहा था
जो रिस कर आ गया था मेरी त्वचा पर
चमकता था पसीना नाक पर
काले रंग की पालिश की तरह
मैं हर रंग की पृष्ठभूमि पर उभर आऊंगी
मत लगाओ मेरे गाल पर ब्रोंजर
थोड़ी देर धूप में रह कर
लोहे को तांबा बना दूंगी
कीमियागरी से

इस तरह की कविताएं बाजारवादी भूमंडलीकरण का प्रत्याख्यान भी हैं— जातिवादी, नस्लीय, पितृसत्तात्मक क्रूरताओं और छुद्रताओं का प्रत्याख्यान. अजंता अपनी कविताओं में परंपरागत और आधुनिक दोनों तरह के शोषण की सूक्ष्मता से पहचान कर पाने में सक्षम हैं. इसीलिए अजंता की कविताओं की स्त्री अपने भीतर की नैसर्गिक जैविक इच्छाओं को न केवल स्वीकार करती है, बल्कि पितृसत्ता के दंभ को तोड़ते हुए उसे एक चुनौती के रूप में प्रस्तुत भी कर रही है. हिंदी कविता में बहुत कम ऐसी रचनाएं मिलती हैं जो अपने भीतर मौजूद स्त्री को पितृसत्ता के इस नएं और बेहद सूक्ष्म शोषण-तंत्र से बचा पा रही हैं, जो स्त्री-मुक्ति को देह तक ही समेट देता है फिर प्रकारांतर से उसे अपने ही तरह से चालित करता है. अजंता की कविताओं में स्त्री इस नई तरह के छल में आए बिना अपने पूरे स्त्रीत्व के साथ उठ खड़ी होती है :

तुम्हारी जिह्वा
ठांव-कुठांव टपकाती है लार
इसे काबू करना तुम्हारे वश में कहां
तुमने चख लिया है हर रंग का लहू
परंतु एक बार आओ मेरी रामरसोई में
अग्नि केवल तुम्हारे जठर में नहीं
मेरे चूल्हे में भी है

एक समग्रता में अजंता देव की कविताएं हमारे समाज की निर्मिति और उसके वर्तमान में मौजूद हर तरह के दोहरे-चरित्र की न केवल पहचान कराती हैं, बल्कि उसके वर्चस्ववादी अहम् पर आघात भी करती हैं. यह सार्वभौमिक वर्चस्ववादी प्रवृत्ति पुरानी सामाजिक संस्थाओं से लेकर आधुनिकता की खाल ओढ़े नई उदारवादी संस्थाओं का भी मूल चरित्र हो सकती है.

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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकीं दीपशिखा इन दिनों अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ा रही हैं. वह हिंदी में आलोचना और उसमें स्त्री-हस्तक्षेप की स्थिति-गति से पूरी तरह परिचित हैं और उनके पास इस ओर कुछ करने के लिए पर्याप्त तैयारी है, लेकिन इसके बावजूद वह न लिखने के कारणों, आलस्य और संकोच से घिरी हैं. प्रस्तुत आलेख में अजंता देव के अब तक प्रकाशित चार कविता-संग्रहों — ‘राख का किला’, ‘एक नगरवधू की आत्मकथा’, ‘घोड़े की आंखों में आंसू’, ‘बेतरतीब’ — और ‘सदानीरा’ के 17वें अंक में प्रकाशित कविताओं को पाठ में लाया गया है. यह आलेख सदानीरा’ के 17वें अंक में पूर्व-प्रकाशित है. दीपशिखा से deepshikhabanaras@gmail.com पर बात की जा सकती है. इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज सौदामिनी देव के सौजन्य से.

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