डायरी और तस्वीरें ::
जे सुशील
कभी कभी पलट कर देखने लगता हूँ तो ये दो साल मेमोरी में रजिस्टर नहीं हो पाते हैं। आज लाइब्रेरी जाते हुए ऊपर देखा तो नीला आसमान दिखा। मैं यहाँ के आसमानों के बारे में बहुत कुछ लिखना चाहता था, लेकिन मेरे पास बादलों जितने शब्द नहीं थे और मैं लिखना नहीं चाहता था :
बादल रूई के फाहों जैसे लगते हैं।
यह वाक्य इतना अश्लील लगने लगा कि मैंने पिछले कुछ महीनों से बादलों की तरफ़ देखना बंद कर दिया, लेकिन इन दिनों आसमान में आकृतियाँ बनती रहती हैं—बादलों की। मुझे नहीं पता कि पूरे अमेरिका में आसमान ऐसा दिखता है या नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि इस शहर का आसमान और यहाँ के बादल मुझे बेहद पसंद हैं।
शब्दों में बता पाना मुश्किल है उस आसमान को जो मैं देख पाता हूँ। लगता है पूरा आसमान आपको अपने अंदर समेटे हुए है और उस पर किसी ने बटन की तरह बादल टाँग दिए हों। जिनकी आकृतियाँ बदलती रहती हैं। आसमान हमेशा नीला रहता है और दूर क्षितिज़ में समंदर की तरह घुसा हुआ।
मैंने गाँवों और पहाड़ों में भी साफ़ आसमान देखा है, लेकिन वहाँ विस्तार है—आसमान का दूर तक। यह आसमान आपको आग़ोश में लिए रहता है। पिछले दिनों कोई मिलने आया था तो उसकी पत्नी और हमने देर तक बादलों और आसमान की ही बातें कीं।
उस बातचीत के बारे में सोचते हुए ऐसा लगा कि मेरा आसमान पहले पुरुषों का आसमान था और यह थोड़ा-सा बदल कर औरतों के आसमान में घुस गया है। मैं इन दो सालों में थोड़ा-सा औरत हो गया हूँ। और ऐसा होना मुझे अच्छा लगता है।
यह कई लोग लिख चुके होंगे कि औरत होना आसान नहीं है। और मैं होना भी नहीं चाहता। मैं उनकी तरफ़ टकटकी लगा कर देखता हूँ कि वे कैसे इतना कुछ कर लेती हैं और ऐसा करते हुए भी अपने में कितना कुछ समेटे रह सकती हैं। ये अभूतपूर्व है।
मैं अपनी पार्टनर की भी बात नहीं कर रहा जो अपना एम.एफ.ए. करते हुए बच्चा पैदा कर लेती है। उसे पालती है। अपना आर्ट का काम करती है। नौकरी पर जाती है तो मुझे नाश्ता देकर, अपना लंच लेकर और लौटती है तो बच्चे को देख लेती है। वह इतना सब बिना किसी शिकायत के कर लेती है। मैं दिन भर बच्चे को सँभालने में चिड़चिड़ा हो जाता हूँ।
ये कितना बड़ा अंतर है, इसे औरतें बेहतर समझेंगी। मैंने एक दिन मी से पूछा कि तुम कैसे कर लेती हो इतना सब तो वह मुस्कुराई और बोली कि तुमने पूछा ये क्या कम है। समझ जाओगे। वह देर रात तक पहले आसमान देखती थी। अब उसके पास आसमान देखने का समय नहीं होता। वह बच्चे से छूटती है तो आर्ट में जा डूबती है। मेरे लिए बस यह काम बचा है कि मैं उसे आर्ट करने का समय उपलब्ध करा सकूँ।
मैंने जीवन में बहुत सारी मज़बूत, महत्वाकांक्षी, सफल, बदमाश, शोषण करने वाली, शोषित हो रही स्त्रियों को देखा है और उनसे बहुत कुछ सीखा है। मैंने लड़कियों को अपने बाप से पिटते और अपने बाप से विद्रोह करते हुए देखा है।
मैंने औरतों से सीखा है कि चीज़ों को अपने अंदर जज़्ब कर लेना कितना ख़तरनाक हो सकता है। इसलिए मुझे कभी-कभी लड़ाकू स्त्रियों को देखकर आनंद आता है। वे बीमार नहीं पड़तीं। चुप रहने वाली स्त्रियाँ बीमार पड़ती हैं। यह बात मैं अपनी माँ और पार्टनर के आधार पर कह रहा हूँ, कोई सिद्धांत प्रतिपादित नहीं कर रहा।
स्त्रियों के लिए मेरे मन में कोई सॉफ़्ट कॉर्नर भी नहीं है। मैं उनसे कंपीट करता हूँ। उनकी आलोचना करता हूँ और उनसे सीखता भी हूँ और यही मैं पुरुषों के साथ भी करता था और करता हूँ।
हाँ, इन दो सालों में औरतों के आसमान का एक छोटा हिस्सा देखने के बाद यह कह सकता हूँ कि मैं थोड़ा-सा और मैच्योर हुआ हूँ। मैं पहले भी स्त्रियों को डिसमिस नहीं करता था, लेकिन एक पुरुषवादी सोच तो रहती ही है मन में। एक ग्रंथि जैसा जो हम बचपन से पाते हैं। वह ग्रंथि कमज़ोर हुई होगी और उन बादलों में थोड़ी-सी तो गुम हुई होगी जो इन दो सालों में मैंने देखे हैं।
मैं परदेस से लौटते हुए उन बादलों को याद रखना चाहता हूँ और उस आसमान को भी जो मुझे हमेशा अपनी आग़ोश में लेता हुआ-सा दिखता है।
जे सुशील पत्रकार और लेखक हैं। इस प्रस्तुति से पूर्व भी ‘सदानीरा’ पर उनकी डायरी का एक अंश प्रकाशित, प्रशंसित और चर्चित हो चुका है। उस डायरी-अंश तथा उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : मैं चाहता हूँ कि न चाहूँ