एकाग्र ::
राही डूमरचीर
कविताएँ | कथाएँ | तस्वीरें | अनुवाद
कविताएँ
कहा बाँसलोई ने
मैं उन्हें बाँसलोई के बारे में बता रहा था
कैसे उसने हमें सींचा
कितना प्यारा है उसका होना, उसका
हमारी ज़िंदगी में बहना
उनमें से एक, मुझे बार-बार टोके जा रहे थे—
‘बरसाती नदी है न’
‘साल भर तो पानी नहीं रहता होगा’
‘छोटी नदी होगी, पहाड़ी नदियाँ जैसी होती हैं’
कहना चाहता था—
इतना बड़ा मुँह
हम कहाँ से लाते हैं
जो किसी नदी को छोटा कहे
कितनी भी छोटी हो
हमसे तो बड़ी ही होती है नदी
बाँसलोई ने कहा—
मुँहज़ोर होना ठीक नहीं
दिल किसी का भी हो,
नमी न दे सको
तो उसे चोट पहुँचाना ठीक नहीं
हुदहुदी नदी
पहाड़ के छोर से देख रहा था
हुदहुदी नदी को
जो पहाड़ से गिरते हुए
संताल परगना का
सबसे सुंदर प्रपात बनाती है
सैलानियों के लिए
पहाड़ के इसी छोर से
थोड़ी ही दूर पर
बहती हुई गंगा नदी भी दिख रही थी
जिसमें मिल जाना था हुदहुदी नदी को
एक हूक-सी उठी कहीं
कि हँसती-खेलती नदी की हस्ती
महज़ इतनी ही है
असुर हेम्ब्रम
‘ओड़मो निवासी असुर हेम्ब्रम की
संदिग्ध हालत में लाश बरामद
पुलिस की प्राथमिक जाँच में
असुर हेम्ब्रम के अत्यधिक नशे में होने की आशंका’—
अख़बार के एक कोने में छपी
इस ख़बर को पढ़ते हुए
महाजन जी झल्लाए—
‘एक दिन सब मरेगा दारू पी के
कुत्ता जइसा पड़ा रहेगा सड़क किनारे’
और पन्ना पलट दिया
सलमान ख़ान के शादी की
नई ख़बर में गुम होते हुए कहा—
‘लाइफ़ तो इसी मुल्ले का है’
तभी बारह साल का उनका बेटा
दौड़ता हुआ आया और बोला—
‘पापा, मम्मी बोली
दुमका वाला गाड़ी को
आज पैसा दे दीजिएगा,
दवा लाने के लिए’
‘ई औरत को भी
मेरे ही माथे पड़ना था’—
झल्लाते हुए वे उठे
और घर से बाहर निकल गए
उधर असुर हेम्ब्रम के गाँव से
पुलिस अपनी जाँच पूरी करके वापस आ गई
जाँच क्या थी लीपापोती थी
जैसा आदिवासियों के मामले में होता रहता है
पुलिस की उपस्थिति में
उनकी लाश को दफ़नाया गया
और थाना वापस आकर
पेड़ से उनके गिरकर मरने को
दर्ज कर लिया गया
पत्नी के लगातार इसरार के बावजूद
उनके बेटों का इंतज़ार नहीं किया गया
जो उस समय गाँव से बाहर थे
एक पास के गाँव में
घर-जमाई रह रहा था
दूसरा ईंट-भट्टे पर काम करने
बिहार गया हुआ था
छोटा बेटा भट्टे से लौटा,
ख़बर पाकर
आने के बाद से ही
थाने के चक्कर लगाता रहा लगातार
वह पुलिस से कहता रहा
कि उसके पिता की हत्या हुई है
पर पुलिस उसे टरकाती रही
कहते हुए—
‘असुरवा को कौन मारेगा जी
पी के गिर गया होगा पेड़ से
मर गया होगा’
पुलिस के चक्कर वह लगाता रहा
पर पुलिस ने एक नहीं सुनी उसकी
उसने ज़िला जाकर डीसी एसपी एसडीओ
सभी के दफ़्तर में गुहार लगाना शुरू किया
जिले में उसकीजि कोशिश ने, कुछ लोगों
और स्थानीय ख़बरों को प्रभावित करना शुरू किया
आज छह महीने बाद
अख़बार में फिर से ख़बर छपी है
असुर हेम्ब्रम की—
‘बेटे की शिकायत पर
छह माह पूर्व दफ़नाए गए
साठ वर्षीय असुर हेम्ब्रम के शव और विसरा को
एसडीओ के आदेश पर
पोस्टमार्टम और फ़ोरेंसिक के लिए राँची भेजा गया
बीडीओ की उपस्थिति में
सारी कार्यवाही पूरी की गई’
इस बीच एक परिवार बर्बाद हो गया
न्याय की उम्मीद में पथराती आँखों को देख
धरती थोड़ी और बूढ़ी हुई
थोड़ी और तड़पी
असुर हेम्ब्रम पहले नहीं थे
उनसे पहले भी उनके लोग
अपने नाम और पहचान की वजह से
किसी जाँच का हिस्सा नहीं बन पाए
इधर एक सी.आर.पी.एफ़. का बड़ा कैम्प
नए खुलने वाले कोयला-खदान की सुरक्षा के मद्देनज़र
ओड़मो गाँव में स्थापित हो रहा है
महाजन जी आश्वस्त हो रहे हैं,
यह ख़बर पढ़ते हुए—
‘अब न पता चलेगा
नक्सली लोगों को’
अमित मरांडी
सालों पहले
मेरे दोस्त
अमित मरांडी ने
एक विषय सुझाते हुए कहा,
इस पर कविता लिखो कभी—
‘जंगल में बेख़ौफ़ चर रहे हैं जानवर
और पेड़ की छाँव में निश्चिंत सोए हैं चराने वाले’
अमित की बात को तब हँसकर
बेपरवाही से टाल दिया था
तब अपनी जगहों से बाहरियों वाली हमदर्दी थी
इसलिए हर चीज़ में कविता दिख जाती थी,
पर भरोसे का वह इत्मीनान नहीं दिखता था—
पसरा हुआ
जिससे सराबोर थीं पहाड़ों की ज़िंदगी
तब नहीं जानता था
कविता से भी प्यारी
कई चीज़ें हैं दुनिया में
कि कविता भी उन्हीं के
शामिल होने से बनती है बेहतर
यह दृश्य आम था
हमारे आदिवासी इलाक़ों में—
मज़े से किसी पेड़ की छाँव में सोते हुए
या डूबकर बाँसुरी बजाते दिख जाते थे
गाय-बकरी चराते लोग
जहाँ तक जाती थी बाँसुरी की लहर
वहाँ तक बेख़ौफ़ चर आते थे जानवर
पसरी होती थी निश्चिंतता पहाड़ों के पार तक
जीवन के पोर-पोर से झरता था सुकून
कहाँ चला गया अमित मरांडी
क्यों नहीं गूँजती शाम होते ही
अब उसकी बाँसुरी
उसके खेत तो अब भी वैसे ही हैं
लहलहाते हैं, पेट भी भरते हैं पर उनका नहीं
जिनके घरों में बाँधकर नहीं रखे गए जानवर कभी
जिन्हें भरोसे के व्यापारियों ने
मजबूर किया जाने को ऐसी जगह
जहाँ से लौटकर वे नहीं आ पाए कभी
आजकल नहीं पता अमित कहाँ है
सिवाय उसकी माँ की सूनी आँखों के
उसका कोई ठिकाना नहीं मिलता मुझे
यहाँ से जाने के बाद, लोगों
का क्या हुआ—इस पर बेमन से
कुछ बातें की गईं, पर
सुकून के चले जाने के बारे में
कोई बात नहीं करता यहाँ
कहीं तो जाते ही होंगे सुकून भी
मैं सिर्फ़ इतना जानना चाहता हूँ—
जहाँ जाते हैं
वहाँ भी टिक पाते हैं या नहीं?
क्या वहाँ भी किसी को पेड़ के नीचे
सोया हुआ देखकर निश्चिंत
खिल जाती हैं,
बहुत-सी आँखें कपट से?
कथाएँ
उम्मीद
रिमिल ने जवाब देते हुए कहा—‘‘काश! आज भी रेलवे क्रॉसिंग का फाटक खुला हुआ हो।’’ चिढ़ते हुए मैंने कहा—‘‘यार मैं क्या पूछ रहा हूँ और तुम क्या जवाब दे रहे हो?’’
रिमिल ने उसी सहजता से कहा—‘‘यह तुम्हारे सवाल का जवाब नहीं हो सकता है, पर तुम्हें इस बात से ख़ुश होना चाहिए कि मेरे जवाब में एक उम्मीद है।’’
तकलीफ़
आरएसी-2 होने के बावजूद टिकट कन्फ़र्म नहीं हुआ था। साथी पैसेंजर कैसा होगा की चिंता, आगामी बारह घंटे की यात्रा से ज़्यादा परेशान कर रही थी। बहरहाल, साथी पैसेंजर अच्छा मिला तो चिंता दूर हुई। एक ही बर्थ पर अपने-अपने हिस्से में आराम खोजते हुए हमने बातचीत शुरू की। वह आर्मी में था और देश की महँगाई से परेशान था। देश की अवस्था से ज़्यादा उसे पानी के बोतलों में बिकने से परेशानी थी।
उसने मेरे चेहरे पर मायूसी लक्ष्य करते हुए पूछा कि मुझे बैठने में कोई तकलीफ़ तो नहीं है? जवाब में मैंने उसे अपनी उस नदी के बारे में बताया, जो हर जाने वाले को अपनी तकलीफ़ छुपाकर उत्साह से विदा करती है। उसने उत्साहित होकर कहा—‘‘अच्छा! आपके गाँव में नदी है?’’ मैंने उसे बताया कि नदी के किनारे ही हमारा गाँव है जो चारों तरफ़ पहाड़ियों से घिरा है। पहाड़ियाँ इस मौसम में सेमल के फूलों से लाल नज़र आती हैं।
‘‘फिर तो बहुत तकलीफ़ होती होगी आपको यहाँ से जाने में…’’—उसने कहा। ‘‘हाँ, होती है।’’ खिड़की से छूटती पगडंडियों को देखते हुए ही कहा मैंने—‘‘वहाँ कभी नहीं जाना चाहिए, जहाँ से जाते हुए तकलीफ़ न हो।’’
वारदात
वह पुलिस बनना चाहता था, पर सपना अधूरा रह गया। अब वह होर्डिंग्स और नेमप्लेट लिखने का काम करता है। पुलिस तो नहीं बन पाया, पर पुलिसवालों से ख़ूब छनती है। इसलिए उसके लायक़ काम होने पर उसे तुरंत याद किया जाता है। थाना प्रभारी का तबादला हो गया था। ख़बर मिलते ही वह अपनी पेंट करने वाली ब्रश और डब्बा लेकर निकल पड़ा। जब वह पुराने थाना प्रभारी का नंबर मिटा रहा था, तब अचानक उसे ख़याल आया कि मोबाइल नंबर बस दस संख्याएं ही तो है। इस इलहाम के बाद नए थाना प्रभारी की जगह बोर्ड पर उसने अपना नंबर दर्ज कर दिया।
अपना नंबर बोर्ड पर लिखकर वह जल्दी-जल्दी घर आया और मुश्तैदी के साथ फ़ोन के सामने डट गया। चार घंटे हुए, पाँचवाँ घंटा बीता पर उसके मोबाइल की घंटी नहीं बजी। उसने सोचा, उसके प्रभार लेते ही उसका इलाक़ा क्या अपराधमुक्त हो गया? इंतज़ार के दौरान अचानक उसकी आँख लग गई। फ़ोन की घंटी बजी, पर नींद नहीं खुली। दूसरी घंटी में नींद खुली, पर जब तक फ़ोन उठा पाता; फ़ोन कट गया। उसने सोचा कि पुलिस का इस तरह से बेपरवाह होकर सोना अच्छी बात नहीं है। इससे अपराधियों का हौसला बुलंद हो सकता है और वह उकड़ू होकर फ़ोन के सामने ही डट गया।
इस बार फ़ोन आते ही उसने तपाक से उठाया। ‘जय हिंद सर’ के संबोधन का उसी तेवर में ‘जय हिंद’ से जवाब दिया। फ़ोन करने वाला कोई पुलिसकर्मी था, जिसने कहा—‘‘सर, वारदात हो गई है।’’
‘‘वारदाsssत…!!!’’ यह शब्द सुनते ही उसे लगा कि उसकी सदियों की मुराद आज पूरी हो रही है। वह उस शब्द के जादू में घुलता जा रहा था कि फिर से सिपाही ने वारदात होने की बात कही। उसने भी तेवर से पूछा—‘‘ वारदात? कहाँ हुई है वारदात?’’
‘‘सर आपके घर में।’’
उसने कहा कि मैं तो अपने घर में ही… तभी उसे याद आया और सँभलते हुए कहा—‘‘अभी पहुँचता हूँ।’’
वह बाहर जाने के लिए तैयार हुआ। निकलने लगा तो दरवाज़े पर पेंट का डब्बा और ब्रश दिख गया। थोड़ी देर तक असमंजस की स्थिति में खड़ा रहा… फिर उसने डब्बा और ब्रश उठाया और घर से बाहर निकल गया।
इंतज़ार
वह अपने ही देश के दो प्रांतों के बीच, नो मेंस लैंड पर खड़ा था। दोनों तरफ़ की पुलिस अपने-अपने प्रांतों की ज़मीन पर उसे घेरकर खड़ी थी। उसके पास समर्पण करने या वहीं खड़े रहकर प्यास से मर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। पुलिसवालों को भी प्यास से तड़पकर किसी का मरना पसंद नहीं था।
अपने प्रांत की पुलिस की तरफ़ मुख़ातिब होते हुए, उसने उनसे एक आख़िरी सिगरेट पीने देने का आग्रह किया। वहीं ज़मीन पर इत्मीनान से बैठते हुए, उसने दोनों तरफ़ की पुलिस के चेहरों को ध्यान से देखा। वे उसे बहुत बेचारे नज़र आ रहे थे। सिगरेट होंठों के बीच दबाते हुए उसने अपनी जेबें टटोलीं। माचिस का सही पता मिलते ही उसका चेहरा सुकून से भर आया। उसने सिगरेट सुलगाई और पहले से भी ज़्यादा इत्मीनान से, कश खींचने लगा। दोनों तरफ़ की पुलिस के पास इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। यह बड़ी मुश्किल थी । उन्हें इंतज़ार करना आता नहीं था। नहीं चाहते हुए भी वे उसे उसी इत्मीनान से सिगरेट पीते देखते रहे।
जब वह आख़िरकार सिगरेट ख़त्म करके उठने लगा, एक पुलिसकर्मी ने गहरी आश्वस्ति भरे स्वर में कहा—‘‘बाप रे! एक सिगरेट जितनी ज़िंदगी भी कितनी लंबी होती है।’’ जल रही सिगरेट की पूँछ को अपने पैरों से मसलते हुए उसने सोचा कि सब कुछ कितनी जल्दी ख़त्म हो जाता है।
तारापद राय की कविताएँ
बांग्ला से अनुवाद : राही डूमरचीर
सब ठीक हो जाएगा
अभी उस दिन तक सोचा है,
सब ठीक हो जाएगा।
कब, कैसे, किस तरह से ठीक होगा,
और असल में क्या ठीक होगा
और ठीक नहीं हुआ तो क्या होगा,
इस संबंध में ज़रूर कुछ नहीं सोचा था
मुझे कोई अंदाज़ा भी नहीं था।
महज़ एक अनोखी उम्मीद थी कहीं,
जो मन के अंदर जड़ें जमाए बैठी थी
एक दिन सब ठीक हो जाएगा।
जिस तरह किसी-किसी रात में आँवले के पेड़ से
झिरझिरी बारिश और हवा की आवाज़ आती है,
जैसे नींबू के पत्तों को तोड़कर हाथों में रगड़ने से
एक खोए हुए जंगल की याद आती है,
जिस तरह झरोखे के बेतरतीब घोंसले में
अंडे से बाहर निकलकर गौरैए के बच्चे
अपनी माँ को चीं-चीं करके बुलाते हैं,
जिस तरह ग़लत पते वाली चिट्ठी भी
कहीं न कहीं, किसी न किसी के पास पहुँच जाती है।
अभी उस दिन तक हल्की-सी एक उम्मीद थी,
जिस तरह सब कुछ घटित होता है,
सब कुछ घटित हो रहा है
उसी तरह एक दिन सब ठीक हो जाएगा।
मेरे पास इंतज़ार के अलावा कुछ नहीं है।
भूल
गुलदाउदी का फूल कौन-सा है
और कौन-सा सूरजमुखी—
बार-बार देखने पर भी
भूल कर बैठता हूँ
मैं फ़र्क़ नहीं कर पाता।
ओलकोपी1जर्मन शलजम या शलजम गोभी और शलजम,
छोटी मृगेल मछली और बाटा मछली,
मनुष्य और मनुष्य के जैसा मनुष्य—
बार-बार देखने पर भी
भूल कर बैठता हूँ
मैं फ़र्क़ नहीं कर पाता।
किताब और पढ़ने लायक़ किताबें
सपना और देखने लायक़ सपने
कविता और कविता जैसी कविताएँ,
बार-बार देखने पर भी
भूल कर बैठता हूँ
मैं फ़र्क़ नहीं कर पाता।
भूत और मनुष्य
किसी एक भूत ने दूसरे भूत से पूछा,
‘अच्छा! तुम मनुष्य में यक़ीन करते हो,
तुम मानते हो कि मनुष्य होता है?’
दूसरा भूत कुछ डरपोक प्रकृति का था,
सवाल सुनने मात्र से ही वह काँप उठा,
सजग निगाहों से इधर-उधर देखकर बोला,
‘सरे-साँझ यह कौन-सी बात छेड़ दी तुमने’
‘इसका मतलब तुम मनुष्य को मानते हो,
मनुष्यों से डरते हो,
यक़ीन करते हो कि मनुष्य होता है?’
दूसरे भूत ने स्वीकारते हुए कहा,
यक़ीन नहीं करने के अलावा रास्ता ही क्या है?
आज ही तो झुंड के झुंड मनुष्य जुलूस करते हुए
मैदान2शहर के बीचोबीच स्थित कोलकाता का प्रसिद्ध मैदान में आए, सभा की,
रोज़ ही लाखों-लाख मनुष्य रास्तों पर,
हाट-बाज़ार में,
घूमते-फिरते हैं, काम करते हैं, काम खोजते हैं
रोते-हँसते हैं, प्यार करते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं…
बीच में ही दूसरे भूत को रोककर,
उसकी मुँह से बात छीनते हुए
पहले भूत ने सीधे-सीधे सवाल पूछा,
‘लेकिन यह कैसे जाना कि वे मनुष्य हैं?
उनके दिल में झाँककर देखा है,
उनके भीतर मनुष्य का हृदय है या नहीं,
मनुष्य की आत्मा,
मनुष्य होने का विवेक है या नहीं?’
दूसरे भूत ने सावधानी से कहा,
‘इतना क़रीब नहीं गया हूँ
उतना साहस ही नहीं हुआ।’
पहले भूत ने अंततः बात समाप्त करते हुए कहा,
‘ऐसा है तो बिना पूरी बात जाने,
आज के बाद फिर कभी मत कहना,
मनुष्य होता है, मनुष्य को देखा है।’
परिचय : तारापद राय | राही डूमरचीर