आलेख ::
रिया रागिनी — प्रत्यूष पुष्कर

सोहिल भाटिया | कोमागातु मारू (6), स्रोत : आर्टिस्ट वेब

जेंडर : कल्पनाशीलता और क्वियर अनुनय

‘लिंग समझो,
कल्पनाओं से…
हमेशा भूत से तो नहीं
देखो!
देखों सहमतियों ने
देह से देह के कितने भूत उतारे
और फिर क्या-क्या नहीं
पहनते देखा’

‘‘क्या होता है जब हम वह बनने लगते हैं, जिसके लिए सत्य की परिभाषित व्यवस्थाओं में कोई जगह नहीं है।’’

— जूडिथ बटलर

वे सभी जगहें जो दैनिक रूप से हमारे भीतर परिवर्तन और उन्नति के लिए अंतराल सुनिश्चित करती हैं और सच के लिए स्थान—चाहे वह जगह एक आरामदायक अकर्मण्यता की जगह हो, सचेत अवलोकन की हो या अन्वेषण की—एक भावनात्मक स्वतंत्रता की गुंजाइश रखती हैं।

हर किसी के सर्वेलेंस से दूर, हमारे अंतर, हमारे निकट, हमारे एकांत की ये जगहें! हम यहाँ जिन स्वतंत्रताओं का चुनाव करते हैं, वे हमारे अस्तित्व या सत्ता का एक अपरिहार्य हिस्सा बनती चली जाती हैं। हमारे संवाद, विवाद और व्यवहार इन्ही स्वतंत्रताओं को आधार मानकर या तो मुद्रा में, कभी रक्षात्मक मुद्रा में, कभी पसरते या कभी तरह-तरह के सामाजिक अभिनय करते दृश्य होते हैं।

ये स्वतंत्रताएँ जब दिनचर्या या प्रेम की स्वीकार्यता और सर्व-आवश्यकता को लौटती हैं तो बहुधा ऐसा महसूस होता है कि जैसे इंसान के लिंग और इंसान की सेक्सुअलिटी के प्रति अचेतन में दबे हिंसात्मक भूत और आधारों का कुछ बक़ाया लेकर लौटती है। अपने प्रेमी को अपने किसी पूर्वज की किसी संकीर्णतर दृष्टि से देख लेने की प्रथा जैसा कुछ।

ये स्वतंत्रताएँ संकीर्णतर होने का साहस रखती हैं, अगर इनका निर्धारण केवल भूत से हो।

शायद इसीलिए इन जगहों का केवल स्मृति में होना या इनका स्मृत ही होना, हमेशा एक रास्ता नहीं है।

भूत—जहाँ व्यक्ति की लैंगिक और यौनिक अभिव्यक्तियों पर अचेत बंधन है, एक त्रास की नज़र है और उपनिवेश का दंड साया है, और स्मृतियाँ—जहाँ लिंग के प्रति, लैंगिक विश्राम के प्रति और एक व्यवहारिक अलैंगिक अ-पहचान के प्रति नई दृष्टि बना लेने की जगह नहीं है।

एक लिंग के प्रति एक से भाव का एक वैचारिक, हस्तानांतरित शिथिल है जो हमारी दैनिकता को पूर्वाग्रहों से भर देता है और ज़्यादातर लोगों के भावात्मक/आध्यात्मिक पक्ष उनके लैंगिक और यौनिक पक्ष या अधिग्रहणों से विभक्त महसूस होते है। ‘एक समय में एक ही ग्राह्य है’ के ऐसे नैतिक नियम एक बाइनरी या द्विचर महसूस होते हैं जो देह को दिए गए किसी भी समय में कम से कम आधी स्वतंत्रताओं और संवेदनाओं से वंचित रख लेते हैं।

ज़ियादे | स्टैम्प, स्रोत : आर्टिस्ट वेब

यह ‘विभक्त’ हमारे सेंसर्ड नाटकीय सामाजिक संवादों का वह अवक्षेप है जिसका विलय; न दृष्टि, न साँस… और जिसके पार देह की एक सम्मिलित अँगड़ाई है, जिसके संग नम्य होते और खुलते हैं—अर्जित नई स्वतंत्रताएँ, कोमलताएँ, इतिहास और जेंडर संघर्षों के आनंद और उदासियाँ…

यह ‘विभक्त’ जटिलताओं से विश्राम नहीं बल्कि आने वाले लैंगिक पूर्वाग्रहों की तामील का एक थकाऊ चक्र है।

‘कर्तव्यों की एक भार-प्रतियोगिता’ है।

देह की कल्पना करने में ख़ुद को संभावनाओं से वंचित कर लेने का एक आलस्य है—

वहीं देह को उन क्षणों में छूना या निहारना जहाँ देह और देह की ऐंठन और वेदनाओं का कोई एक लिंग नहीं है—एक कोमलतर है, एक बादल है जिसमें बैठ सभी अपने हाथ-पाँव स्ट्रेच करते हैं और सबके स्ट्रेच करने के तरीक़ों में कोई न कोई मूलभूत फ़र्क़ होता है।

‘‘जेंडर या लिंग के उतने ही खरे और सच्चे अनुभव हैं जितने लोग हैं जो यह मानते हैं कि उनका कोई जेंडर है।’’

— केट बोर्नस्टाइन

हम कहाँ जा रहे हैं? ब्रह्मांड लगातार फ़ैल रहा है… किस स्थायी दिशा की तरफ़? हम कभी भी एक स्थान में दुबारा नहीं हैं—न कभी भी थे ही। ऐसे में हम जेंडर को कहाँ रखते हैं? हम ज़्यादातर जेंडर को व्यक्ति की सब्जेक्टिव स्मृतियों में रखते हैं और इसके निर्धारण के लिए हमेशा स्मृतियों में (भूत में) लौटते हैं। उस भूत से लेकर आते हैं, कभी एक ऐसी दृष्टि जो हमसे अलग किसी भी लिंग को सहसा ही आहत भी कर देती है, कभी हमारी स्वयं की लैंगिक अभिव्यक्तियों को कमतर देखती है, कभी संवादों के बीच स्मृतियों में धँसे लैंगिक प्रतिमानों से संवादक को तौलती रहती है।

एक ऐसा व्यवहार जो उम्र में हमारे बराबर नहीं, हमारा प्रत्यक्ष नहीं, हमसे जीर्णतर है, हम-सा नया नहीं।

ऐसे में अपनी लैंगिक अवधारणाओं से अलग और नए पात्रों के लिए एक नई दृष्टि लेकर उपस्थित रहना जीने का एक क्वियर तरीक़ा है।

इस क्वियर तरीक़े का कोई एक संगठित पास्ट नहीं है, बल्कि कई बिखरे पास्ट हैं, कई समुदाय और समूह जो छोटे-छोटे शहरों में कभी छह महीने, कभी साल भर संवाद को ठहरते, क्रियान्वित होते फिर नज़रों से ओझल हो जाते… चिट्ठियाँ हैं, और अदृश्य समारोह हैं जिनका हमारे आस-पास कोई दुहराव नहीं है। इस क्वियर बीते समय का कोई एक समेकित ऐतिहासिक अभिलेखागार नहीं है। यह व्यक्ति के व्यक्ति से तात्कालिक संवाद और संचार का एक लगातार पुनर्सृजन है। इस नई दृष्टि का कोई दृश्य गंतव्य या भविष्य भी नहीं है और न ही इसमें पौराणिक संशय या सेंसर ही है। यह व्यक्ति से व्यक्ति की एक फ्लेक्सिबल माँग है।

फूको कहते हैं कि समलैंगिकता से लोग इसीलिए नहीं डरते कि वह सेक्स करने का कोई तरीक़ा है, बल्कि इसलिए कि वह जीवन-ज्ञापन का एक यथार्थ, एक विकल्प है।

ऐसी जगहों पर आकर जब क्वियर को यौनिकता से विश्राम मिलता है तो साहचर्य से जुड़े कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं। जैसे सेवा कोई लैंगिक चीज़ नहीं है और न ही सेवा के अधिकार किसी एक लिंग को ही वितरित हैं। जैसे जो अज्ञात है उसका कोई लिंग नहीं, ठीक वैसी ही हमारी मित्रताएँ भी किसी एक लिंग के पूर्वाग्रह से तर नहीं बल्कि कोमल क्वियर जगहें हैं। हमारे लैंगिक स्थगनों और प्रणों को लगातार चुनौती देनी वाली जगहें।

“जीवन जीने का कोई भी तरीक़ा अंतत: एक संस्कृति और एक आचार को जन्म देता है। मेरी नज़र में, गे होना मनोवैज्ञानिक लक्षण और विशेषता या समलैंगिकता के पर्याय किसी चेहरे को पहन लेने से ज़्यादा एक जीवन जीने के तरीक़े को ढूँढ़ना और उसे परिभाषित करना है।”

— मिशेल फूको

शाहज़िया सिकंदर | रनिंग ऑन एम्प्टी, स्रोत : आर्टिस्ट वेब

“लोग हैं जो अपनी देह को किसी जमाखाते की तरह देखते-समझते हैं। और वे लोग भी हैं जो देह को किसी नदी की तरह देखते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी ही देह में नज़रबंद क़ैदी हैं। शेष वे भी हैं जो आज़ादी को केवल देह की आज़ादी या देह के निर्वहन के अधीन देखते हैं। कुछ लोग यह भी सोचते हैं कि वे अपनी देह के मालिक हैं, जैसे वे अपने मकान या फ़्लैट के मालिक हैं। और वे भी हैं जो अपने घर का ध्यान ऐसे रखते हैं, जैसे वह कोई प्राकृतिक रिजर्व हो। वे देह जो सारे काम चटपट कर लेते हैं, पर किसी एक चीज़ के लिए उनके पास कभी वक़्त नहीं होता। और वे भी जो हर काम बहुत धीमे करते हैं। और जो कुछ भी कर पाने में सक्षम नहीं हैं। कुछ देह नागरिक नहीं बन पाते, क्योंकि वे देख नहीं सकते। और कुछ देह ऐसे भी हैं जो विकास के क्रम में अपने भीतर कुछ समय, या लंबे समय तक किसी और देह का ही निर्वहन करते हैं… तो फिर हम कैसे ऐसे बात कर सकते हैं कि जैसे मानव की देह कोई एक चीज़ ही हो!”

— पॉल बी प्रेसियादो

क्या व्यक्ति के तौर पर हम केवल एक देह का निरूपण या प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या हमारी देह और उनकी सहजताएँ, आराम और पसंद लगातार परिवर्तनशील नहीं है?!—जब हम घर से सड़क पर जाते हैं, सड़क से किसी घनिष्ठ मित्र तक, घनिष्ठ मित्र से किसी बिल्कुल अजनबी तक—क्या इन सभी जगहों पर कोई एक निरूपित लिंग ही आवागमन करता है? जगहों के हिसाब से और उनमें सिमटी और सहमी आज़ादियों के हिसाब से हमारी देह के व्यवहार के तरीक़े बदलते जाते हैं। देह के व्यवहार का जो वैविध्य हमारे भीतर किसी प्रतीक्षा में रहता है, उसका कोई एक विघटित या विधिवत् लैंगिक आचरण नहीं है। देह अभिव्यक्ति और व्यवहार के असंख्य नए तरीक़ों से हमारे भीतर असंख्य देहों का निर्माण होने देती है।

हमारे भीतर इन्ही देहों का ध्यान रखने, उनकी इच्छाएँ, उनकी थकान, उनकी अकड़न को निर्धारित व्यायामों से इतर इच्छित आसन देते रहने से विश्राम संपूर्णतः वितरित हो सकता है। जगहें सुरक्षित जगहें बन सकती हैं, अगर व्यक्ति के पहुँचने से पहले उनके जेंडर कर्म और विश्राम की विधियाँ निर्धारित न कर दी गई हो।

‘‘सेक्सुअल ओरिएंटेशन केवल वह दिशा नहीं है जो हम किसी इच्छावस्तु की ओर लेते हैं, ऐसा नहीं है कि ये दिशा हमारे जीवन से जुड़ी बाक़ी चीज़ों पर कोई प्रभाव नहीं डालती। सेक्सुअल ओरिएंटेशन देह के एक दुनिया में रिसने का सार भी है, देह को उस दिग्विन्यास में ले जाना है जो दूसरों से इतर है, जो तरह-तरह की सामाजिक जगहों में हमारे प्रवेश को प्रभावित करता है (ये जगहें एक निर्धारित क़िस्म की देह, दिशाओं, प्रेम करने और जीने के तरीक़ों के लिए प्रशिक्षित होती हैं), इन जगहों पर जाते तो सभी हैं, लेकिन सभी किसी एक ही जगह पर पहुँचते नहीं हैं।”

— सारा अहमद

क्वियर संवादों के आस-पास हम जिस ‘सेफ़ स्पेस’ की बात करते हैं। उसका मूल हमारी अपनी देह में ही, हमारे सभी और देहों के प्रति किसी भी तरह के पक्षपात से मुक्त स्पेस की कल्पना है। देह जो अनुकरण से सीखती है और किसी एक लिंग के अनुकरण से नहीं और इसीलिए देह की कोई एक लैंगिक अनिवार्यता भी नहीं है।

देह जिसका उद्गम विश्राम है, प्रदर्शनशीलता नहीं है। जेंडर प्रदर्शनशीलता भी नहीं।

इसी प्रदर्शनशीलता और जेंडर नाटकीयता की परतों के नीचे दबी देह की थकान को संबोधित करना भी क्वियर अनुनय का एक अभिन्न हिस्सा है।

बचपन से जुड़ी स्मृतियाँ—जहाँ लैंगिक रोल इतने पक्के और प्रगाढ़ नहीं हों, जहाँ एक आदर्श स्त्री या आदर्श पुरुष की प्रतिच्छाया को अपने अनुदानों से और भी निर्धारणात्मक या स्थावर कम ही करना पड़ता हो—हमारे भीतर जिस कोमलता को संबोधित करती हैं, ठीक ऐसी ही कोमलताओं की व्यवहार्यता के संग जीवन जी सकने की स्वतंत्रता एक क्वियर अनुनय है और हम में से कईयों को हासिल भी है।

‘‘देह उन आदर्शों या मानकों का आकार और रूप लेने लगती है, जिन्हें बार-बार दुहराया जाता है। यह पुनरावृत्तियाँ तथाकथित प्रकृति के संकेतों और शकुन की दुहाई देकर पहचान की स्वरचना में लगते श्रम को संकोच में डालती हैं… कुछ अभिव्यक्तियों को दुहराना है, कुछ को बिल्कुल ही नहीं, किसी एक दिशा में ही चलना है, दूसरे पर भटकना भी नहीं, ऐसे में देह ऐंठ जाती है, वह उन रूप और आकारों में विकृत होने लगती है जो रूप या आकार कुछ क्रियाओं को उतनी ही स्वतंत्रता दे पाते हैं, जितना बाक़ी क्रियाओं की क्षमता पर एक सेंसर या एक रोक लगा सकते हैं।’’

— सारा अहमद

सलमान तूर | मैन विथ फ़ेस क्रीम एंड फ़ोन प्लग स्रोत : आर्टिस्ट वेब

मोनीक विटिग लिखती हैं कि दरअसल लिंग केवल समाज में स्त्री का होता है। पुरुष की संज्ञा एक सार्वभौम या पूर्वव्यापी है। स्त्री इसी व्यापक पुरुष का विलोम मात्र होकर रह जाती है। विटिग यहाँ तक कहती हैं कि लेस्बियन औरतों को औरतें कहा भी नहीं जाना चाहिए, क्योंकि वे एक औरत के अधिकार और स्टेटस दोनों जाने देती हैं और हेट्रोसेक्सुअलिटी के आदर्श और उसका मायाजाल तोड़ चुकी होती हैं। हम सबके लिए भी जो उन आदर्शों को रचने वालों से इतर हैं, ये सभी एक फ़िक्स्ड अग्राह्य ही है; क्योंकि लैंगिक आदर्शों से व्यक्ति संश्लेषित होकर उभरता नहीं है, वह उन आदर्शों का प्रतिस्पर्धी भी नहीं बनता और चूँकि ये आदर्श या लैंगिक मानक कास्ट, रेस, ओरिएंटेशन और आइडियोलॉजी के एलियनेशन के सिद्धांतों पर ही बने हैं, और सर्वदा अचल हैं तो उनका केवल एक अंतहीन अनुकरण ही संभव है।

कल्पनाशीलता इस पुरुष (और नज़र) की कठोरता का एक उत्तर है।

‘‘श्रेणियाँ हिमीभूत या बँधी हुई नहीं हैं। हम एक प्रजाति के तौर पर उससे कहीं ज़्यादा रचनात्मक हैं। दुनिया उससे कहीं ज़्यादा जीवंत है और हमारे बारे में भी जितना हम जानते हैं, उससे कहीं ज़्यादा अभी जानने को है।’’

— डोना हैरावे

कल्पना करते हुए यथार्थ जैसे हमारे माध्यम से प्रतिबिंबित होता है, एक दूरी का निर्माण कर देता है, ताकि यथार्थ से हमारे रिश्ते पुनर्सृजित, पुनर्दृष्ट हो सके; ताकि आने वाले कल में हम आज कुछ भी मान बैठे हैं, उससे अलग कुछ समावेश कर सकने में सक्षम हो। संभव यह भी है कि शांति और आनंद के नए धरातलों की ख़ोज की जाए—लिंग और सेक्सुअलिटी की कथित क्षणभंगुर निश्चिंतताओं से स्वयं को पृथक करते-करते।

विचार को उससे मुक्त करके वह चुपचाप सोचता रहता है, ताकि नए तरीक़े से सोचा जा सके।

क्वियर कल्पनाशीलता इन मानकों से मुक्त होकर अतीत है, क्योंकि ये मानक केवल हमें इच्छाओं से वंचित नहीं रखते; बल्कि जीने की दशा भी सीमित कर देते हैं। इन लैंगिक अनुकृतियों से हम एक लंबे समय तक एक ही जीवन जी रहे होते हैं और हमारी कल्पनाओं से उस संसार का लोप शुरू हो जाता है, जहाँ सारी ज़िंदगियाँ जीने लायक़ हैं, जहाँ भविष्य लगातार अधिकाधिक जीवक संभावनाओं को यथार्थ का रूप लेते हुए देख सकता है।

जेंडर प्ले जिससे शैशव भरा पड़ा है, वह जेंडर एक्सपेरिमेंट बनकर हमें वे हैक लाकर दे सकते हैं, जिनसे इस सीमित पटल पर दुहराव भरे संवादों के रास्ते पर हम कुछ नया लिख सकें, कर सकें और जो एक क्वियर आध्यात्मिक को चौंका देने वाली जगहों पर लिंग के ब्लफ़ और अ-पहचान का शहद भी भेंटा सके।

‘‘क्योंकि केवल इंटरसेक्शन ही है जो सही मायनों में है। कोई भी ऐसे विलोम किनारे नहीं हैं। हम रास्तों के पारगमन पर ही हैं। तो जब मर्द-औरत, होमोसेक्सुअलटी-हेट्रोसेक्सुअलटी, इंटरसेक्सुअलिटी-ट्रांससेक्सुअलटी नहीं हैं, तो हम कौन हैं? हम कैसे प्रेम करें? इसकी कल्पना कीजिए…’’

— पॉल बी प्रेसियादो


रिया रागिनी और प्रत्यूष पुष्कर नई पीढ़ी के कवि-लेखक-कलाकार हैं। वे विस्तृत प्रभावों और मूल्यों वाला व्यापक काम कर रहे हैं। क्वियर-संबंधित सक्रियता उनकी ज़िंदगी और अभिव्यक्ति का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। रिया और प्रत्यूष—‘सदानीरा’ के इन दोनों अनन्य सहयोगियों-प्रेमियों ने 2021 के वसंत में ‘सदानीरा’ के क्वियर अंक का संपादन किया। प्रिंट में अनुपलब्ध इस अंक की माँग हिंदी के प्रिंट-संसार में अब तक जारी है। फ़िलहाल इसे डिजिटल स्वरूप में यहाँ पढ़ सकते हैं : सदानीरा-24

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