ग़ज़लें ::
नईम सरमद

नईम सरमद

एक

इक तेरे वस्ल के लिए मौला
हिज्र काटे हैं अनगिने मौला

जो तुझे जानते नहीं उनसे
कर लिए तर्क राब्ते मौला

तुझको रो रो मनाया करते थे
तुझसे कैसे ना रूठते मौला

अपने दिल पर जो खाए फिरता हूँ
तेरे हिस्से के रंज थे मौला

दीन ओ दुनिया के फेर में पड़ कर
हम कहीं के नहीं रहे मौला

तेरे बंदे बहुत हरामी हैं
हौसले पस्त हो गए मौला

तू ने दोज़ख़ बनाई फिर हम भी
अपने वअदे से फिर गए मौला

वो जो तुझसे उठे थे वो पर्दे
मेरी हस्ती पे पड़ गए मौला

इक सना ख़्वाँ था मह्व ए हम्द ए यार
और हम नाचते रहे मौला

तेरा होना निखर के आता है
मेरे होने के रंग से मौला

सूरत ए ‘ला’ में तेरी सूरत को
हमने देखा तो हम ही थे मौला

दो

तुझको मेरे साथ थे बरबादी के डर
देख रहा हूँ अब कितनी आबाद है तू

नींदों में होने वाला इक दर्द हूँ मैं
नश्शे में आने वाली इक याद है तू

तेरी और फिर तेरी हर इक याद की याद
लड़की क्या है सारा मुरादाबाद है तू

कोई ख़ुदा तुझ हुस्न प दअवा क्या करता
लफ़्ज़ ए कुन से पहले की ईजाद है तू

पत्थर काट के‌ दरिया मुझ तक ले कर आ
शीरीं नइ है जानेमन फ़रहाद है तू

मुझ ज़ंजीर की कड़ियाँ वुसअत वुसअत हैं
यअनी मेरी क़ैद में भी आज़ाद है तू

अपने जाल में फाँस के मुझको रोता है
चिड़िया जैसे दिल वाला सय्याद है तू

पहला इश्क़ भी पहले सबक़ सा होता है
यस्सरनल क़ुरआन के जैसी याद है तू

तीन

हमने ख़राब हाली में ऐसे चलन चले
अब सब उधर चलेंगे जिधर को हमन चले

देखो के इसके बाद कहाँ को करेंगे कूच
गाँव से आए शहर में और याँ से बन चले

जल्दी के फ़ैसलों में ये अक्सर की बात है
जो यक ब यक थे बैठे वही दफ़अतन चले

दिल्ली बुरी नहीं थी मगर हाये हाये दोस्त
एहले वतन की वजह से एहले सुख़न चले

नंगे तो जाना ठीक नहीं था जहान में
मिट्टी का इक लिबास था वो ही पहन चले

उस शहर ए बद दिमाग़ को यूँ छोड़ आए हैं
मक्का को छोड़ गोया के शाहे ज़मन चले

हम भेड़ियों की आँख से बचना मुहाल है
बुरक़े में चल रही हो के नंगे बदन चले

मैंने उड़ाई हैं यूँ रिवायत की धज्जियाँ
कुछ काफ़िये तो मेरे यहाँ बेवज़न चले

चार

और उजागर नइ होना है, खुलना है कम कम दरवेश
लोग बहुत चालाक हैं सो तू बातें कर मुबहम दरवेश

हमको सूरज के साये में चलना है सो ज़िक्र ना कर
क्या भूरी क्या काली ज़ुल्फ़ें, क्या ज़ुल्फ़ों के ख़म दरवेश

इस बस्ती के लोग हवस के बुत की पूजा करते हैं
आओ नमाज़ ए इश्क़ करें इस बस्ती में क़ायम दरवेश

इक दूजे से मतलब नइ पर अपना अपना काम करें
जोबन की ख़ैरात लुटाने वाला तू और हम दरवेश

रात इक चोर मेरे कमरे से चंद किताबें ले भागा
हुलिये वुलिये से तो साईं लगता था इक दम दरवेश

गाँव में जोगी बरगद के नीचे बैठा है ध्यान मगन
शहर में जोगन छम छम करती फिरती है धम धम दरवेश

उनको अपनी मनवानी है औेर ये सबकी सुनते हैं
यअनी ख़ुदा हैं मौलवी साहब और मियाँ आदम दरवेश

लहजा वहजा कुछ नइ होता, तुमने शायद देखे नइ
अँग्रेज़ी में गिट पिट करने वाले कुछ मुबहम दरवेश

इन दोनों का झगड़ा है और इन दोनों का मेल मिलाप
यअनी बस ये दोनों हैं अव्वल मौला दोयम दरवेश

दरवेशी ने दिल दरिया में मारी छलाँग और डूब गई
सारे पागल चीख़ रहे हैं, हम दरवेश और हम दरवेश

पाँच

काबा काशी, गंगा जमना, कूचा और बाज़ार सखी
उसके दो नैनों के आगे सब कुछ है बेकार सखी

उसका माथा हिम पर्बत सा ऊँचा और चमकीला है
और उसके कोमल अधरों से बहती है रसधार सखी

उसकी ज़ुल्फ़ें काली शब हैं, शाने उगते सूरज से
और ये रातें चूम रही हैं दिन को बारम्बार सखी

श्वेत हिरन के जैसे मेरे पोरे और उसका सीना
शब के जंगल छान रहे हैं पाँचों पक्के यार सखी

इक यूसुफ़ है जिसकी ख़ातिर उँगलियाँ काटे बैठी हूँ
एक मसीहा के चक्कर में हो गई हूँ बीमार सखी

हम दोनों के यार सखी री सब के सब अलबेले हैं
मैं लैला की पक्की सहेली वो मजनू के यार सखी

छह

ये पैरहन प पैरहन वबाल है
सो ख़ुद को बेवबाल कर विसाल कर

वजूद ए जिस्म ओ जाँ से इस्तेफ़ादा कर
ज़रा समय निकाल कर विसाल कर

लहू को चुल्लुओं में ले के यूँ उड़ा
बदन प रंग डाल कर विसाल कर

अमीर ए वहशियान ए इश्क़ हूँ सो तू
ज़रा सा देख भाल कर, विसाल कर

ये इस्म ए कारसाज़ है जुनून पढ़
ये होश पायमाल कर विसाल कर

तेरी ये ज़र्द आँखें देख शर्म कर
तू इन का रंग लाल कर विसाल कर

ख़ुदा जवाब दे न दे बिगड़ पड़े
ख़ुदा से भी सवाल कर विसाल कर

विसाल ए यार गर हराम है तो सुन
हराम को हलाल कर विसाल कर

ख़ुदा का हिज्र अस्ल में विसाल है
सो इसमें इंतेक़ाल कर विसाल कर

फ़िराक़ से गुरेज़ कर गुरेज़ कर
विसाल कर विसाल कर विसाल कर

सात

सरमद होली खेल रहा है सरमद ही के संग
सरमद ही के गाल गुलाबी सरमद ही का रंग

अपनी आमद पर अपने को ख़ूब सजाया री
आप ही अपना रूप निहारा आप ही हो गई दंग

अपने इश्क़ में मारे मारे फिर रहे थे, यअनी
अपने जैसा रूप बनाया अपने जैसा ढंग

अक़्ल है दिल्ली की लड़की और मस्ती गाँव की नार
होश है सूटेड बूटेड बंदा, इश्क़ है मस्त मलंग

बीस बरस की इक अल्हड़ सी लड़की देखी आज
काँधे पर स्कूल का बस्ता मन में प्रेम उमंग

देख अज़ान ए फ़ज्र से लड़ती शंख की ये आवाज़
जैसे दो सखियाँ करती हों इक दूजे को तंग

सुब्ह का मंज़र लैल ओ नहार के वस्ल का मंज़र है
राधा जैसे श्याम से बैठे अंग लगाए अंग

मौला जियूंदे वस्दे रहन ऐह सुच्चे पीर फ़क़ीर
मौला ओहदी ख़ैर होवे जिन्हूं इश्क़ दा चढ़या रंग

आठ

रंग ए जुनूँ में होश ओ ख़िरद की ख़ाक उड़ा और इश्क़ बता
अपने अंदर नाचने वाले बाहर आ और इश्क़ बता

जिस बस्ती में इश्क़ प बोलने वाले क़त्ल किए जाएँ
उस बस्ती में जा, लोगों को इश्क़ सुना और इश्क़ बता

बेहोशी में गुरुबानी का विर्द मुसलसल कर साईं
मजज़ूबी में आयात ए क़ुरआन सुना और इश्क़ बता

लम्स उसकी ख़ुश्बू का तेरे दस्त ए हवस से पाक है दोस्त
तू उसकी गोरी जाँघों को नोच के खा और इश्क़ बता

एक ख़ुदा है, एक नबी है, इक बंदा और इक शैतान
इन सब में तफ़रीक न कर, सब भेद मिटा और इश्क़ बता

मैं सरमद हूँ, मैं दरिया में डूब के जाऊँ क्यों आख़िर
तू दरिया है, तू सरमद में डूब के जा और इश्क़ बता

नौ

सुर्ख़ मिट्टी को हवाओं में उड़ाते हुए हम
अपनी आमद के लिए दश्त सजाते हुए हम

तुझ तबस्सुम की मुहब्बत में हुए हैं बरबाद
मुस्कुराएँगे तेरा सोग मनाते हुए हम

ऐ ख़ुदा तू ही बता कैसे करेंगे इंकार
आलम ए हू में तुझे हाथ लगाते हुए हम

रक़्स करते हैं तो मिट्टी तो उड़ेगी साईं
उनको लगते हैं करामात दिखाते हुए हम

अपने होने से भी इंकार किए जाते हैं
तेरे होने का यक़ीं ख़ुद को दिलाते हुए हम

आब ए वहशत में गुंदी ख़ाक रखी चाक पे, और
अपने होने के लिए चाक घुमाते हुए हम

हालत ए वज्द के हालात बताता हुआ तू
हालत ए हाल में तफ़रीह उठाते हुए हम

ख़ामशी शोर है और शोर बला का सरमद
तुमने देखे हैं कहीं शोर मचाते हुए हम?

दस

अकेली रात में तन्हा चराग़ जलने दिया
वही था ग़म का मदावा, चराग़ जलने दिया

थी उसकी ज़ुल्फ़ सरीखी सियाह शब उस रोज़
सो उसकी नाफ़ सरीखा चराग़ जलने दिया

मुझे ख़ुदाओं को जलते हुए ही देखना था
चराग़ मेरा ख़ुदा था, चराग़ जलने दिया

किसी ने शहर जलाए किसी ने मुल्क़, मगर!
हमारे हाथ में क्या था? चराग़! जलने दिया

मैं एक लौ की हवस में था मुब्तला सरमद
सो मैंने जिस्म बुझाया चराग़ जलने दिया

ग्यारह

हमारी आँखों में देखने की सज़ा मिलेगी
तू जब तलक भी जिएगी हैरत ज़दा रहेगी

ये रंग उतरा तो रंग बिखरेंगें कहकशाँ में
ये ज़ुल्फ़ बिखरी तो सारी वहशत समेट लेगी

तू जिसको नाज़ुक सी लौ समझता है बेवकूफ़ाँ
अगर ये भड़की तो आफ़ताबों को देख लेगी

मैं अपने अंदर की एक औरत को खा रहा हूँ
तू अपने अंदर के मर्द से कैसे बच सकेगी?

मैं बोल जल्दी चलो हमें देर हो रही है
वो बोली ख़ुद को पहनने में देर तो लगेगी

अभी ये घुँघरू से चिड़ रही है, डरी हुई है
ये रक़्स करने प आ गई तो ग़ज़ब करेगी

बारह

आओ बिसात ए इश्क़ सजाएँ, जीतें हारें रज रज कर
मैं अपना लेखन ले आऊँ और तू अपना जोबन धर

शहरों शहरों बस्ती बस्ती खेल दिखाएँगे अपना
तू यौवन मंतर की ज्ञाता, मैं शब्दों का जादूगर

भक्क की इक आवाज़ से मेरा चेतन बुझ जाने को है
अवचेतन मे बाद ए ख़्याल ए यार चली है सर सर सर

लैला का मजज़ूब ज़माना, कै़स जुनूँ के रक़्स में है
राधा युग में लीला रचता श्याम सलोना बंसीधर

एक मुसलसल रक़्स के जिसका हासिल और ला हासिल नइं
चाक प मेरी मिट्टी रखकर भूल गया है कूज़ागर

तेरह

बरहम थे और इस दर्जा बरहम, हमने
दैर गए पर बुत का चेहरा नइं देखा

हमने अपने मंज़र अपने आप बनाए
देखा देखी कोई नज़ारा नइं देखा

आख़िर बीनाई के सहर से बाहिर आए
आँखें त्याग के हमने क्या क्या नइं देखा

दश्त की वीरानी पर माथा फोड़ते हो
तुमने किसी बेवा का चेहरा नइं देखा

मुझ पर पत्थर फेंकने वाले होश में आ
तू ने अभी मेरे यार का ग़ुस्सा नइं देखा

मैं सरमद हूँ नइं देखूँ तो देखता हूँ
और तुमने जो कुछ भी देखा नइं देखा

चौदह

बैठेंगे चा बार में चलकर
चाय पिएँगे दोनों क़लंदर

इस दरवेश की हालत देखो
घर से दफ़्तर, दफ़्तर से घर

दिल को चाहिए दुनिया वीराँ
और वीराना बस जंगल भर

हाई हील की जोगन के संग
सूटेड बूटेड मस्त क़लंदर

ये सारे जोगी झूटे हैं
बेघर थोड़ी छोड़ते हैं घर

इक मैं, इक मैं और इक मैं ख़ुद
गांधी जी के तीनों बंदर

दिल की बातें पूछ रहा है
पागल है क्या इंटरव्यूअर?

फ़ाक़ाकश को दूध का पैकेट
आब ए ज़म ज़म, जाम ए कौसर

भूक से रोते नंगे बच्चे
मंज़र पर हावी है मंज़र

भारी छातियों वाली भिखारन
शहर का शहर है तेरा गदागर

घर से लड़ कर आए होंगे
आग बबूला सोशल वर्कर

तक़रीरें सुन लेंगे लेकिन
रोटी चाहिए बंदा परवर

अलहम्दो लिल्लाह‌ से सच्ची
इन्ना आत़इना कल कौसर

भाड़ में जाएँ सारे‌ मुसव्विर
भाड़ में जाएँ सारे सुख़नवर

पंद्रह

ख़ुद को मुर्शिद मान ले प्यारे, ‘क्यूँ’ और ‘क्या’ का भेद समझ
अपनी सूरत तकता रह और फिर ‘कैसा’ का भेद समझ

तुझसे बड़ कर दश्त नहीं है, तुझसे बड़ कर गोर नहीं
इस जंगल में आ, इस गोर में रह, मौला का भेद समझ

पानी सर से ऊपर चढ़ने दे साँसों की माला फेर
दो ज़ानू हो तह में बैठ और दिल दरिया का भेद समझ

जानने वाले मानने वालों से अफ़ज़ल हैं, ध्यान रहे!
मजनू मत बन, होश में आ और फिर लैला का भेद समझ

हर इक़रार से पहले इक इंकार की हाजत होती है
अल्लाह के बंदे, अल्लाह से पहले ‘ला’ का भेद समझ

सोलह

बदन समंदर में इश्क़ वाले जहाज़ लेकर उतर रहे हो
बदन समंदर में इश्क़ वाले‌ जहाज़ डूबेंगे देख लेना

वुजूद ओ मौजूद के ख़राबे में पड़ने वाले ये लोग सारे
अमल मुकम्मल नहीं हुआ तो वुजूद ढूँढ़ेंगे देख लेना

ये सारे वहशी नए नए हैं, जुनूँ के आदाब नइं समझते
अभी ज़रा और शोर कर लें तो होश आएँगे देख लेना

तेरे यक़ी पर मेरे गुमाँ को पहन के मत चल के लोग सारे
तुझी को सोचेंगे सोच लेना, तुझी को देखेंगे देख लेना

फ़िराक़ इक ख़ौफ़ ए जावेदानी है इश्क़ में और लाज़मी है
के उसकी बाँहों में उसकी फ़ुरक़त के ख़्वाब आएँगे देख लेना

ये रक़्स वक़्स इनके बसका नइं है, ये ठंडे कमरों में रहने वाले
ये इश्क़ की लू के इक थपेड़े में नाच जाएँगे देख लेना

मैं चाहता हूँ के मुझको आदम समझ के मुझसे मिलें, मगर लोग
अभी तो वहशी समझते हैं फिर ख़ुदा बनाएँगे देख लेना

घिसे पिटे ज़ावियों के मुंकिर, नए लफ़ंडर, जदीद शाइर
ज़रा सी दिल पर लगी तो हिज्र ओ विसाल बाँधेंगे देख लेना

ये नौजवानाने शहर ए इश्क़, इनकी नूर जैसी हँसी सलामत
हम ऐसे लोगों की मौत पर ये चराग़ रोएँगे देख लेना

सत्रह

अजब हाल ए दिल है, सुनेगी सखी?
ख़ुदा की सहेली बनेगी सखी?

तख़य्युल की दुनिया तो छोटी सी है
बता मेरे दिल में रहेगी सखी?

नज़र तेरी जानिब हो या चार सू
तुझे देखती ही रहेगी सखी

ये सारे सिपाही भी थक जाएँगे
ये बंदूक़ कितनी चलेगी सखी

उजाले की क्या! आज है कल नहीं
मगर तीरगी तो रहेगी सखी

मुहब्बत के मुंकिर बहुत हो गए
क़यामत तो आ कर रहेगी सखी

तुझे लाख बोहतान का डर ना हो
मगर तू भी आख़िर डरेगी सखी

मुहब्बत के मारों की बस्ती में तू
मुहब्बत से कैसे बचेगी सखी?

अठारह

उसके ध्यान में एक अजब बे ध्यानी है
इस हालत का हाल बड़ा वजदानी है

मक़तब ए इश्क़ के सारे तलबा मूरख हैं
जो जितना मूरख है उतना ज्ञानी है

तुझमें और मुझमें तफ़रीक़ नहीं है दोस्त
दरया का मतलब ही बहता पानी है

हम दोनों ने रूहों को पैकर बख़्शा
हम दोनों का इश्क़ बड़ा जिस्मानी है

जिस दरवेश के आगे सब दीवाने हैं
उस दरवेश के पीछे इक दीवानी है

मेरे जैसा कोई नहीं लेकिन वो है
और मेरा वो सानी भी लासानी है

कार ए जुनूँ में सहल पसंदी कुफ़्र है दोस्त
जितनी मुश्किल हो उतनी आसानी है

उन्नीस

ज़मीन सारे दुखों की जड़ है, मैं इसको ऐसे नहीं बनाता
ज़मीन को आसमाँ बनाता और आसमाँ को ज़मीं बनाता

मैं ‘कुन’ का क़ायल नहीं हूँ, मज़दूर हूँ, ज़रा देर तो लगाता
मगर मैं तेरे किए धरे से बहुत ज़ियादा हसीं बनाता

अजब नहीं है के आदमी को यहाँ भी दोज़ख़ वहाँ भी दोज़ख़
अगर मैं रब ए करीम होता तो मैं जहन्नम नहीं बनाता

ये लोग जो ‘हाँ’ की ज़द में आ कर मरे हैं और मारे जा रहे हैं
अगर कुछ इनके लिए बनाता तो इनके मुँह पर ‘नहीं’ बनाता

ओ मेरे इंकार पर भड़कने से बाज़ आ! ग़ौर कर, के बदबख़्त!
तेरा ख़ुदा वाक़ई जो होता तो मेरे दिल में यक़ीं बनाता

ये ख़ाक मुझ पर बिगड़ रही थी, मुझे तो तुम सब ही जानते हो
मैं और ज़ियादा बिगड़ के बोला, ‘‘नहीं बनाता नहीं बनाता’’

वो एक सज्दा जो मैंने तेरे लिए उठा कर रखा हुआ है
यक़ीन कर तुझको बख़्श देता अगर तू मेरी जबीं बनाता

अगर तू है तो ये ज़ह्नी बीमार क्यों बनाए? बनाए भी तो
मेरे ही सर पर तो ना बनाता, मेरी बला से कहीं बनाता

हमारे हर फ़ेल की मज़म्मत! के इस प दोज़ख़ है उस प जन्नत
तुझे जब इस दर्जा दिक़्क़तें हैं तो क्यूँ बनाया?? नहीं बनाता

मैं इक अकेला जो वहशतों से ख़ुदा बना देता है, समझ गए?
अगर जो तुम आदमी ना होते, अभी बनाता, यहीं बनाता

बीस

इक इंटरव्यू में एच आर ने पूछा सरमद कैसे हैं
हम बोले गर सच पूछो तो सच्चे और निकम्मे हैं

दाने डालने वाला शाइर भूक से मर कर दफ़्न हुआ
और इस से अंजान परिंदे अब भी छत पर बैठे हैं

तुझको लगता है के समय का मरहम घाव भर देगा
मुझको लगता है के समय के नाख़ुन तेज़ नुकीले हैं

रात है इक आवारा लड़की और मुँहज़ोर बला की है
जाने कहाँ से आई है ये बाल अभी तक गीले हैं

मंज़र वंज़र कुछ नइ होता बस आँखों का धोखा है
डूबता सूरज देखने वाले वक़्त डुबो कर आते हैं

काजल सुरमा लाली दुख की रंगत ढाँप नहीं सकते
फ़ाउंडेशन की ओट से दिखते चेहरे कितने पीले हैं

जिस बस्ती में मैं रहता हूँ उसकी बात निराली है
लड़कियाँ सचमुच की बेबाक और लड़के छैल छबीले हैं

इक दो पर ही खुलता है ये भेद वगरना ज़्यादातर
सन्नाटों के शोर की बातें करने वाले झूटे हैं


नईम सरमद (जन्म : 1992) उर्दू की नई पीढ़ी से संबद्ध बेहद अनूठे शाइर हैं। उनकी धज इस समय बहुत अलग है। उनके काम की गूँज समकालीन हल्ले में समझदार कानों को सहसा पकड़ लेने वाली है, और इसका असर दिल-दिमाग़ पर देर तक ठहरने वाला है। उनसे naeemsarmad4@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. बाणभट्ट जुलाई 3, 2021 at 6:40 अपराह्न

    अपने होने के म’आमूली दुख को ज़ियाद: घिसते रहने से सब लज़्ज़त जाती रहती है

    जियो सरमद. जियो.

    Reply

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