ग़ज़लें ::
हरजीत सिंह

हरजीत सिंह

1959 में देहरादून में जन्मे हरजीत सिंह हिंदी के लोकप्रिय शाइर थे जिन्होंने अपनी असमय मृत्यु से पहले कई मुशायरे और काव्य-गोष्ठियों में शिरकत की थी, और जो लोगों की स्मृति में आज भी दर्ज हैं। पेशे से वह बढ़ई थे जिन्हें कभी ठीक से किसी भी चीज़ का मेहनताना नहीं मिला। एक विख्यात स्वीडी उपन्यासकार उनके बहु-आयामी जीवन से इस हद तक मुतासिर हुए थे कि उनके उपन्यास BERGET (परबत) का अहम् किरदार हरजीत से हुई उनकी मुलाक़ातों की बुनियाद पर टिका है। ऐसा किरदार जो मुफ़लिसी का जश्न मनाते हुए भी अपनी टूटी हुई छत से उड़कर कमरे में आई चिड़िया के बारे में इस तरह के आशू शे’र कह लेता है :

आई चिड़िया तो मैंने यह जाना
मेरे कमरे में आसमान भी था

जिस गोष्ठी-मुशायरे में भी हरजीत सिंह जाते, नौजवान लोग बेसब्री से उनकी ग़ज़लों और ऐसे फुटकर अशआर को अपनी डायरी में नोट करने लगते। लेकिन मुशायरे लूट ले जाने वाले हरजीत एक आला दर्जे के छायाकार भी थे और उनके बनाए रेखांकन और तस्वीरें कई पत्र-पत्रिकाओं, किताबों में छपते भी थे। मित्रों की किताबों के आवरणों की परिकल्पना करना उनकी बेशुमार लतों में शामिल था और अपने इस फ़न की बदौलत भी हरजीत शिद्दत से हमारे बीच मौजूद हैं। 1999 की देहरादूनी गर्मी के दौरान SPIC MACAY के एक कार्यक्रम में दरियाँ बिछाते हुए वह लू का शिकार हुए और हिंदी शाइरी का यह अनूठा हस्ताक्षर क़िस्सों-किंवदंतियों का विषय बन गया। उनके मित्रों-प्रशंसकों के पास आज भी उनके लिखे निहायत मर्मस्पर्शी और सुंदर ख़त सहेज कर रखे हुए हैं, जिन्हें उनकी ग़ज़लों के साथ ही छपवाने की संभावनाएँ बन रही हैं। उन्होंने दिल्ली की किसी प्रेस से अपने दो संग्रह छपवाए थे : ‘ये हरे पेड़ हैं’ और ‘एक पुल’ और 1999 में अपने नई हस्तलिखित पांडुलिपि ‘खेल’ वह दोस्तों के हवाले कर गए।

अपने एक दोस्त की नज़्र किया यह शे’र दरअस्ल ख़ुद हरजीत की शख़्सियत को बख़ूबी बयान करता है :

तमाम शहर में कोई नहीं है उस जैसा
उसे यह बात पता है यही तो मुश्किल है

— तेजी ग्रोवर

हरजीत सिंह और रुस्तम

एक

पत्थरों में रूह का रहना भी क्या
यूँ सभी से बात का कहना भी क्या

जिस तरफ़ प्यासी है रेतीली ज़मीं
उससे बचकर आब का बहना भी क्या

जिसमें सारे रंग आकर खो गए
हमने ऐसे रंग को पहना भी क्या

धूप से अच्छा कोई आँचल कहाँ
सादगी से कीमती गहना भी क्या

मुद्दतों सूखी रहे कोई नदी
इतना ज़्यादा दर्द का सहना भी क्या

चंद ख़ामोशी के तिनके गूँथकर
दूर शाखों पर कहीं रहना भी क्या

दो

तन्हाई से निकली धुन
मेरी सबसे प्यारी धुन

सूखे काग़ज़ पर उतरी
कलकल करती गीली धुन

काँप गई आवाज़ जहाँ
कितनी देर न सँभली धुन

इतने सारे साज़ों में
नाची एक अकेली धुन

खोज रही है अब मुझको
एक सफ़र में बिछुड़ी धुन

सबको ज़बानी याद हुई
उसने सुनाई ऐसी धुन

साथ खिलौने वाले के
गलियों-गलियों घूमी धुन

होंठों से उतरी ही नहीं
ज़िद्दी बच्चों जैसी धुन

काम बनाती है सारे
मन के भीतर बैठी धुन

तीन

पूछता है मेरा मुसाफ़िर दिल ये सफ़र कुछ अजीब-सा तो नहीं
पाँव जिस पुल पे लाए हैं उसका क्या कहीं एक ही सिरा तो नहीं

जिस हवा के लिए मुझे ऐ दोस्त लाये थे तुम नगर से दूर यहाँ
घूम फिर कर मैं इतना समझा हूँ इन दरख़्तों में वो हवा तो नहीं

कैसी ये जंग चल रही है यहाँ वक़्त और आदमी के बीच में अब
और हर शख़्स को है एक गुमाँ आदमी वक़्त से बड़ा तो नहीं

काँच का गोल-सा पत्थर बनकर काग़ज़ों पर वो शख़्स बैठा है
और ये सोचता है मन ही मन उससे आगे कोई बढ़ा तो नहीं

कितने ही लोग नींद से उठकर देखने आए हादसा जो हुआ
और आते ही सबने ये पूछा हादसे में कोई मरा तो नहीं

हरजीत सिंह की हस्तलिपि

चार

कितने चुप हैं कैसे चुप
घर के सारे कमरे चुप

सोच रहे हैं धूप मिले
घर में गीले कपड़े चुप

मेरे ख़त को पढ़कर तू
हर काग़ज़ पे लिख दे चुप

कितनी उलझन होती है
दिन में हों जब पत्ते चुप

घर की बात गई घर-घर
कब रहते हैं बच्चे चुप

सुनकर बातें बच्चों की
हो जाते हैं बूढ़े चुप

बच्चे चुप तो हैं लेकिन
कोई शरारत करके चुप

बंद सलाख़ों के पीछे
बैठे हैं कुछ लड़के धुप

फिर वचपन का दोस्त मिला
झट से बोला चुप बे चुप

पाँच

काग़ज़ पे बन चुके हैं इतने पुलों के नक़्शे
नदियों पे बिछ न जाएँ अब काग़ज़ों के नक़्शे

कल एक हादसे में दीवार ढह गई वो
जिस पर टँगे हुए थे आबादियों के नक़्शे

नक़्शे नहीं बताते कैसे बने इमारत
होते हैं और ही कुछ कारीगरों के नक़्शे

सदियों के बाद अपनी तहज़ीब हमने पाई
धरती की तह से निकले कुछ बस्तियों के नक़्शे

वो जंग की ख़राबी सबको बता रहे थे
यूँ ज़ेहन में थे उनके कुछ सरहदों के नक़्शे

फिर भी बहुत से शहरी क्यों रोज़ भटकते है
हर मोड़ पर लगे हैं सब रास्तों के नक़्शे

छह

इस ज़मीं पर भी उड़ानों में रहे
हम हवादार ढलानों में रहे

मन की आवारगी भी चलती रही
और रहने को ठिकानों में रहे

धूप भी हमको मिली पानी-सी
हम समंदर की चटानों में रहे

एक ही बात के कई मतलब
फ़र्क़ सब उनके बयानों में रहे

बोल क्या थे ये सब तो भूल गया
जैसे इक गूँज-सी कानों में रहे

हमने चाहा कि जंगलों में फिरें
और लकड़ी की दुकानों में रहे

रेखांकन : हरजीत सिंह

सात

जो तबीअत हरी नहीं करते
उनसे हम दोस्ती नहीं करते

इतनी बातें न हम कभी सुनते
हम जो आवारगी नहीं करते

रतजगों से भी हम निभाते हैं
नींद का क़त्ल भी नहीं करते

एक चिड़िया से दोस्ती जो हुई
हम तो अब शोर ही नहीं करते

हम तुझे कितना प्यार करते हैं
हम तेरी फ़िक्र ही नहीं करते

बेख़ुदी में भी कोरे काग़ज़ पर
दस्तख़त हम कभी नहीं करते

अपना ही कारोबार करते हैं
हम कोई नौकरी नहीं करते

इतने लोगों से कैसे मिल पाते
हम अगर शाइरी नहीं करते

आठ

हमें इस दिल की कहने को कोई सूरत नहीं मिलती
कभी ज़रिया नहीं मिलता कभी फ़ुर्सत नहीं मिलती

ये सब कुछ यूँ नहीं बेवजह फैलाया हुआ हमने
ये सब कुछ क्यों भला करते अगर राहत नहीं मिलती

किया है इस तरह हमने हर इक दुख-सुख का बँटवारा
अगर तल्ख़ी नहीं मिलती तो कुछ लज़्ज़त नहीं मिलती

उसी इक पल की दूरी ही हमारा साँस लेना है
मेरी फ़ितरत से जिस पल तक तेरी फ़ितरत नहीं मिलती

वो अपनी तर्ज़ का मैकश हम अपनी तर्ज़ के मैकश
हमारे जाम मिलते हैं मगर आदत नहीं मिलती

ये महफ़िल तश्नगी से तश्नगी तक का सफ़र है इक
कभी शिरकत नहीं मिलती कभी रुख़्सत नहीं मिलती

नौ

पूरे जंगल से चुन लिए तिनके
एक डाली से आ जुड़े तिनके

वो भी सावन गुज़ार लेते थे
जिन घरों की छतों में थे तिनके

कोई ईंधन नहीं मिला उसको
उसने चूल्हे में रख दिए तिनके

देखना घोंसला बया का तुम
गूँथ सकते हो घास के तिनके

चहचहाती कहाँ से वो चिड़िया
चोंच में थे दबे हुए तिनके

तेज़ आँधी से घोंसले टूटे
पहले जैसे ही हो गए तिनके

देखना तुम पहाड़ का त्योहार
सबके कानों पे धान के तिनके

उसकी आँखें बहुत ही ख़ुश्क मिलीं
जैसे कोई समेट ले तिनके

उस जगह डूब गये लोग कई
जिस जगह तैरते मिले तिनके

हरजीत सिंह की हस्तलिपि

दस

जो दिल में थे वो सभी डर बदले गए कितने
तमाम शहर के मंज़र बदल गए कितने

मैं पहले जैसा ही मिलता हूँ आज भी लेकिन
बहुत से लोगों के तेवर बदल गए कितने

वो पेड़ राख हुए रह गई हवा बासी
ये साये आग में जलकर बदल गए कितने

बहुत ग़ुरूर था अपनी बग़ावतों पे जिन्हें
सितम के दौर में आकर बदल गए कितने

टँगी मिली है वहाँ मौत नाम की तख़्ती
हवा बदलते ही कुछ घर बदल गए कितने

अब उनपे नदियों के अहसाँ गिनाए जाने लगे
दिलों में थे जो समंदर बदल गए कितने

हरजीत सिंह (1959–1999) की पुण्यतिथि के अवसर ‘सदानीरा’ की यह प्रस्तुति तेजी ग्रोवर के सौजन्य से संभव हुई है। वह सुपरिचित हिंदी कवयित्री और अनुवादक हैं। उनसे tejigrover@yahoo.co.in पर बात की जा सकती है। हरजीत सिंह की तस्वीरें, रेखांकन और हस्तलिपि दीपक बौराई के सौजन्य से।

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