लंबी कविता ::
ज़ुबैर सैफ़ी

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के बारे में मशहूर है कि वह जमा की गई ख़बरों से अदबी दस्तावेज़ तैयार करता था। हम जिस ज़माने में रह रहे हैं, वह एक ख़ामोश ख़ाना-जंगी का दौर है। ग़ायब होना या हो जाना बक़ौल उदय प्रकाश महानगरों में कोई बड़ी घटना नहीं कही जा सकती। हमारे आस-पास न जाने क्या-क्या रोज़ ग़ायब होता है और इन्हीं में इंसान भी शामिल हैं। मगर ग़ायब होने के इस अमल में हम रफ़्ता-रफ़्ता अपनी इंसानियत भी खो रहे हैं। ज़ाहिर है कि हर नया दौर; तहज़ीब की आड़ लेकर जिस तरह पुरानी चीज़ों को निगल जाता है, उसे दुनिया के बड़े अदीबों ने अपना मौज़ू बनाया है। योको ओगावा का उपन्यास ‘मेमोरी पुलिस’ इसे दूसरी तरह देखता है, वह एक तानाशाही के दौर में ग़ायब होने वाली चीज़ों और यादों के घटनाक्रम को महफ़ूज़ करता चलता है। देखा जाए तो आँख खुली रखने वाले समाजों में किसी इंसान का मरना भी छोटी-मोटी घटना नहीं मानी जा सकती। हर आदमी के साथ कुछ ऐसी चीज़ें भी मर जाती हैं, कुछ ऐसी ग़ायब हो जाती हैं, जिनकी बाज़याफ़्त हज़ार कोशिशों के बावजूद मुमकिन नहीं है।

ज़ुबैर सैफ़ी ने यहाँ ‘अब्बास’ के इस्तिआरे को तराश कर जो कविता तैयार की है। वह कोई मामूली कविता नहीं है। इस लंबी कविता में कुछ सवाल बड़े फ़नकाराना और ख़ास ज़ुबैराना ढंग में पूछे गए हैं। ज़ुबैराना से आप हैरान न हों; क्यूँकि मैं कुछ हद तक ज़ुबैर को ज़ाती तौर पर भी जानता हूँ और बाज़ मामलात में उनसे सख़्त इख़्तिलाफ़ रखता हूँ, इस वजह से मैं उनके उस्लूब पर एक गहरी निगाह भी रखता हूँ। वह हमारे दौर के उन शाइरों में हैं; जो ज़बान की नफ़ासत को शाइरी करते वक़्त एक ऐसी चीज़ पर रखते हैं, जिसे यहाँ लिख दूँ तो मुहज़्ज़ब दोस्त बुरा मान जाएँगे। बहरहाल, इसी हवाले से उनके यहाँ जुरअत भी पैदा हुई है। वह अपनी बात कहने के मामले में इतने चाबुकदस्त और तेज़-तर्रार हैं कि आप जब तक उनके लिखे मसले की संगीनी का अंदाज़ा लगाएँगे, तब तक वह आपको आपकी बुज़दिली पर मुँह चिढ़ा चुके होंगे।

‘अब्बास ग़ायब है’ भी एक ऐसी ही कविता है; जो मुझ जैसे शख़्स को भी इसलिए झिंझोड़ती है, क्यूँकि हिंदी समाज, आप मेरे लफ़्ज़ों पर ग़ौर कीजिएगा, में कई दफ़ा बेहतरीन अदब तख़लीक़ करने वालों के ज़ेहन में मौजूद श्रेष्ठता का कीचड़ मुझ जैसे उर्दू वाले नाम-निहाद ‘मुसलमान’ लेखक के मुँह पर भी आन गिरा है। मैं ज़ुबैर की इस नज़्म को अपनी आज़ादी के सुल्ब हो जाने के एक नौहे के तौर पर भी पढ़ रहा हूँ। यों पढ़कर सोचता हूँ कि रियासत और समाज मिलकर उनका क्या हाल कर रहे होंगे जो अपनी मज़हबी पहचान पर रातों-रात ग़ायब कर दिए जाते हैं, जेलों में ठूँसे जाते हैं, बरसों तक जिनके मुक़दमे नहीं सुने जाते, जो होकर भी कहीं नहीं दिखाई पड़ते, जो ज़िंदा होते हुए मार दिए गए हैं।

ज़ुबैर सैफ़ी की इस कविता को इसलिए उनसे लाख इख़्तिलाफ़ होने पर बड़ी कविता कहे बिना चारा नहीं, क्यूँकि इसमें हमारी बात कही गई है। हम जो ‘अब्बास’ की वापसी की उम्मीद भी खो चुके हैं।

तसनीफ़ हैदर

ज़ुबैर सैफ़ी

अब्बास ग़ायब है

एक लोकतांत्रिक देश में एक व्यक्ति का ग़ायब हो जाना कोई बड़ी घटना नहीं है जिस देश में पलक झपकते ही बुलडोज़र घर ग़ायब कर देते हों और मुख्य न्यायाधीश फ़ैसले ग़ायब कर देते हों उस देश में किसी अल्पसंख्यक का ग़ायब हो जाना कोई बड़ी घटना कैसे मानी जा सकती है मगर हमारी निष्ठा और मानवता के संवैधानिक ग्रंथ के अनुसार जिस समय में लोगों के भीतर से ग़ायब होता जाता हो प्रेम-भाव और लोक-सेवकों से में से शर्म देश में से सहिष्णुता और थालियों से रोटियाँ उस समय में एक व्यक्ति का भी ग़ायब हो जाना बड़ी घटना है।

मैं इन बड़ी घटनाओं में अब्बास के ग़ायब होने को कैसे गिन सकता हूँ?

आप गिन सकते हैं?
न…
न…
न…

आप नोट गिनिए कि आप हमारी संख्या गिनिए—हम लगभग 17.2 करोड़ हो चुके हैं! आप गिनिए कि एक फरसे के वार से आप कितने मुल्लों की गर्दन काट सकते हैं या गिनिए कि कितने देसी बम लगेंगे हमारा नाम-ओ-निशान मिटाने में…

आपसे नहीं होगा—
ग़ायब हुओं को गिनना!

इन्हीं ग़ायबों में से एक था—अब्बास…

मेरे इलाक़े में एक दिन अब्बास घर नहीं लौटा। उसका पड़ोसी अनवर घर लौट आया शाम से पहले, लौट आया जसवंत भी और पादरी भी, बस अब्बास नहीं आया।

न ये वो अब्बास था जो फ़िल्म-निर्माता है और जिसकी फ़िल्में लौटती हैं और लौटाती हैं पिछले में। ये प्रधानमंत्री का दोस्त अब्बास भी नहीं था।

ये अब्बास था, बेलदार अब्बास!

उसकी हथेलियों पर मिट्टी खोदने की वजह से विश्व का नक़्शा उभर आया था और उसके पैर उसैन बोल्ट से भी ज़्यादा सुडौल दिखते थे। उसके पास एक साइकिल थी—टूटे कैरियर वाली जिसका टूटा कैरियर उसके बच्चों का पूरा करियर खा चुका था और तपेदिक उसकी बीवी को लगभग खाने ही वाला था।

अब्बास की बीवी ने जिस दिन बनाई थी काले चने की सब्ज़ी उस दिन नहीं लौटा एक कोठरे के घर में अब्बास की बीड़ियों का धुआँ जिस दिन विश्व कप जीतकर लौटी थी भारतीय क्रिकेट टीम उसी दिन नहीं लौटा था अब्बास…

उसकी बीवी खाँसते हुए कोतवाली पहुँची तो पता चला कि कोतवाली रातों-रात अपनी जगह से ग़ायब हो चुकी है। वह कोतवाली जहाँ मुटकल्ले पुलिस वाले ऊँघते हुए हराम की चाय रह-रहकर पीते थे वहाँ अब एक भाँडख़ाना खुल चुका था जिसके संचालक तत्कालीन डीजीपी थे। कोतवाल ने अब्बास को ढूँढ़ने के बदले उस ज़रूरतमंद स्त्री से शरीर की माँग की। कोतवाल की ज़रूरत पूरी कर अब्बास की बीवी लौट आई तब भी अब्बास नहीं लौटा! जबकि इसी देश में लौट रहीं थी इच्छामृत्यु की याचिकाएँ और फाँसी माफ़ कर देने की गुज़ा…

~

मैं इस कहानी को अधूरा छोड़ता हूँ जबकि मैं बता सकता था कि अब्बास की बीवी के साथ आगे क्या-क्या हुआ और किस-किसने किया। मैं बता सकता हूँ कि मुल्ला, इमाम, अमीर, विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री, ज़िला अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारी, जिलाधिकारी, अल्पसंख्यक आयोग, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, एसीपी, डीसीपी, डीजीपी, अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय, अहल-ए-सुन्नत वल जमाअत, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, इस्लामिक सहयोग संगठन, ऑल इंडिया मजलिस-ए—इत्तिहाद-उल-मुस्लिमीन, ऑल इंडिया मुस्लिम कॉन्फ़्रेंस, ऑल इंडिया सूफ़ी सज्जादानशीं काउंसिल, अखिल भारतीय मुस्लिम विकास परिषद्, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत, ऑल इंडिया उलेमा व मशायख़ बोर्ड, जमीअत उलेमा-ए-हिंद, ऑल इंडिया शिया बोर्ड, राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमाअत-ए-इस्लामी, अशराफ़ एकता समिति, पसमांदा मुस्लिम महाज, तब्लीग़ी जमाअत के कारकुनान; इन सबने क्या-क्या किया और क्या-क्या कर सकते थे।

मैं यह भी लिख सकता हूँ कि अब्बास की बीवी ने इस सबके बीच अपना मानसिक संतुलन खो दिया मगर इस दारुण कथा का इतना अंत ही आपके द्वारा सुना जाना ज़रूरी है कि आज पाँच बरस हो चुके हैं और अब्बास नहीं लौटा है।

यहाँ आपके लिए केवल
इतना जानना ज़रूरी है कि
अब्बास—
मेरा बाप था!
मेरा बाप था!
दो बार सुनिए यह वाक्य
और पहचानिए कि मैं कौन हूँ
कौन था अब्बास?

मैं कह भी दूँ कि अब्बास
इस दुनिया के
तमाम सताए गयों का बाप था
अब्बास केवल मेरा बाप नहीं था
और अब अब्बास
एक गुमशुदा व्यक्ति है
एक मुसलमान है
एक सूचना है
एक आरोप है
एक अल्पसंख्यक है
जो बहुसंख्यकों का दुश्मन है
अब्बास देश नहीं है
और कथित रूप से
इस देश का भी नहीं है
अब्बास म्लेच्छ है
न शिया
न सुन्नी
बस एक पहचान—
कटी नुन्नी
अब्बास वह सब कुछ है
जो घृणा की अंतिम सीमा पर
कहा जा सकता है
मगर अब्बास इंसान भी है
हाड़-मांस का एक इंसान
एक इंसान—अब्बास
वही ग़ायब है

केस न. 624/2405 अ/धारा 346 (भारतीय दंड संहिता)

अब्बास के बारे में पुलिस की फ़ाइनल रिपोर्ट कहती है कि उसने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था… “साला, चूतिया!” (ये दो शब्द उस रिपोर्ट में पिछले वाक्य के आगे नहीं थे, मगर थे) इसलिए उसे सरकार ने अपने अधिकार का सदुपयोग करते हुए पाकिस्तान भेज दिया।

अब्बास के परिजनों के संबंध में रिपोर्ट कहती है कि चूँकि एक पाकिस्तानी नागरिक को हिंदुस्तान में बीवी-बच्चे रखने का क़ानूनी हक़ नहीं है इसलिए उन्हें ग़ायब करना हमारी क़ानूनी मजबूरी थी।

अब्बास की पागल पत्नी को रेल-पटरी पर बाँधने में हमे बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। इस घटनाक्रम में एक पुरुष कॉन्स्टेबल और एक महिला कॉन्स्टेबल के पैर में मोच आई जिन्हें उपचार के लिए जिला चिकित्सालय भेज दिया गया क्योंकि हम मानवता में विश्वास रखते हैं। अत: उसके नाबालिग़ बच्चों को हमने दूध में ज़हर मिलाकर पिला दिया और उनके शवों को मुस्लिम अंतिम संस्कार की विधि से सम्मानपूर्वक निपटा दिया। हम इसी प्रकार कर्त्तव्य-पालन के पथ पर अग्रसर रहेंगे। हम भारतीय क़ानून व संविधान के प्रति अपनी सच्ची निष्ठा व्यक्त करते हैं।

संविधान की जय हो!
जय हिंद!
जय भारत!

यह बात यहीं ख़त्म नहीं होती। अब्बास अब एक नाम भर नहीं है। वह केवल एक फ़ाइनल रिपोर्ट में नहीं आ सकता इसलिए वह सड़कों पर निकल आया है। संक्षेप में अब अब्बास एक देशव्यापी आवाज़ बनकर उभर चुका है और उसका ग़ायब होना इसी देश में एक आंदोलन बन चुका है। उसी ग़ायब अब्बास की याद में हर बरस मातम होता है और लोग काले कपड़े पहने हुए ख़ुद को दुत्कारते हैं सामूहिक स्वर में—

‘हाय! अब्बास अलमदार!’
‘मिस्कीनों के अलम बरदार!’
‘हाय! अब्बास!’

लेकिन अब्बास नहीं लौटते…
न अब्बास इब्न अली
और न वो अब्बास जो मेरा बाप है
दोनों सैकड़ों कर्बलाओं के बाद भी घर नहीं लौटे!


ज़ुबैर सैफ़ी नई पीढ़ी के परम आवेगशील कवि-लेखक-अनुवादक हैं। उनकी कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : आप यहाँ स्खलित हो सकते हैं | शब्द और आशाएँ ख़ारिज हो चुकी हैं

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *