कविताएँ ::
अजंता देव

अजंता देव

दावा

चाक़ू ठीक से गड़ गया हो सीने में आततायी के
देखना कहीं इसी क्षण दया न आ जाए दिल में
देखना कि सिर्फ़ तड़पता न छोड़ आओ
सुनना कि वह जो आवाज़ थी वह अंतिम हिचकी थी
विद्रोह कहीं विद्रूप न बन जाए
यह देखना भी काम है तुम्हारा मेरे लड़ाकों
एक भी पत्ता बाक़ी रहे तो पेड़ को जीवित समझो
एक पैसा भी नहीं चुकाया तो क़र्ज़ बाक़ी है मेरे दोस्त
एक साँस भी जीवन है
एक पल भी समय है
एक अंगारा भी अग्नि है
अन्न है एक बीज भी
एक मित्र
एक शत्रु
एक प्रेम
क्या पूरा नहीं लगता
एक आख़िरी पल में ही
अक्सर पराजित होता है दुर्धर्ष योद्धा
देखना कि वह पल तुम्हारा न हो
कील पर एक अंतिम प्रहार ही
हथौड़ी की जीत है मेरे कारीगर
आओ और अंत पर दावा करो जीवन का।

शर्म

मुझ पर शोक करने का दबाव था
दुख और संताप से सनी छवियों का
विह्वल कर देने वाले वाक्यों
और क्रोधित स्वरों का दबाव था मुझ पर
मुझे शर्म आनी चाहिए थी अपनी क्रीम पर
रंग चुनते हुए अपनी त्वचा का ख़याल कैसे आया
इसका जवाब हाथ में रखना था मुझे
मैं हकला नहीं सकती थी
आख़िर विद्वानों की संगत भी कोई चीज़ होती है
कितनी सूक्तियाँ लिखी गईं शताब्दियों तक
और धिक्कार कि एक भी याद नहीं आईं
जब आया संकट
वह एक मटमैला सवेरा था
जिसे आना ही था
मेरे सुप्रभात कहे बिना भी
दिन ढला नहीं बस उजाला कम होता गया
ख़बरों में विस्फोट की चौंध से
आँखों से पानी बह निकला
नहीं ये आँसू कहलाने जितना पानी नहीं था
ठुड्डी तक आते-आते सूख गया था कमबख़्त
उदासी एक लक़दक़ भाव था
और मैं यहाँ भी दरिद्र रही
यह दुनिया मुझे माफ़ करे
मुझे होना था शोकमग्न
और मैं महज़ थक कर रह गई
मैं बिस्तर पर लुढ़क गई
कल की सुबह के इंतिज़ार में।

अपराध का मज़दूर

कितना बोझ था उस पर
अफ़सोस से सिर हिलाया ग़ुंडे की माँ ने
सिर्फ़ देखने में ही तगड़ा था जनाब
दाँतों तक में थे कीड़े
मैं आलू का सबसे पतला झोल
बनाती थी उनके लिए
ग़ुंडे की शोकमग्न बीवी की आँखों में
आँसू चमकने लगे
बच्चों ने कहा हकलाते हुए
पापा को नहीं आता था
फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पिक बदलना
गब्बू ने ही लगाई थी उनकी
वो मूँछों वाली जब्बर फ़ोटो
मोहल्ले के नाई को पता था
ग़ुंडे के झड़ते बालों का
दवा की दुकान में अब भी बाक़ी है
पिछली दवाओं की उधारी
कोरोना में गुज़रे पिता की तस्वीर पर
माला बदलते हुए चुपके से रोता था ग़ुंडा
जिसे देखा था उसकी छोटी बेटी ने कई बार
ग़ुंडे का एक नाम भी था निरीह-सा
जो नगरनिगम के रिकार्ड के अलावा कहीं नहीं दिखता
पुलिसवाले भी उसे जानते थे
दुनाली के लोकप्रिय नाम से
वह अपराध का मज़दूर था
जो निकला था काम पर
और आ गया चपेट में उस बड़ी मशीन के
जो मालिक ने करोड़ों में लगवाई थी
अपनी फ़ैक्ट्री में।

मानवी

क्या पृथ्वी की चोटों के निशान
छुप सकते हैं
जैसे छुप जाते हैं स्त्री के चेहरे पर
नीले बैंगनी रंग कंसीलर से
क्या छुपा कर हँस सकती है पृथ्वी
जैसे हँसती है स्त्री दो घंटे बाद पार्टी में
पृथ्वी नहीं सहती आघात
पृथ्वी नहीं करती ढोंग
पृथ्वी को नहीं है आदत त्याग की
पृथ्वी रोती नहीं रुलाती है
अब हमें बंद करना चाहिए
स्त्री को पृथ्वी कहना
हमें देखना होगा स्त्री को—
डरी हुई
स्वार्थी
और उलझी हुई
जैसे मनुष्य!

सीढ़ियाँ

सारी सीढ़ियाँ अधूरी हैं
कि कभी कोई रुकता नहीं उन पर

सीढ़ियाँ सिर्फ़ चढ़ाती नहीं उतारती भी हैं
बाज़ दफ़े गिरा भी देती हैं

सीढ़ियों के साथ रेलिंग न हो तो
नज़रें झुका कर चलो

सीढ़ी कुछ नहीं कर सकती
पाँव चाहिए चढ़ने-उतरने को

सीढ़ी से क्या होगा
अगर दरवाज़ा बंद हो

सीढ़ी मत तोड़ो
हर दरवाज़े पर स्वागतम नहीं लिखा

और सीढ़ी से ही सीढ़ी का काम लो
मनुष्य इससे बेहतर काम के लिए है।


अजंता देव सुपरिचित कवि-गद्यकार-अनुवादक हैं। ‘राख का क़िला’, ‘एक नगरवधू की आत्मकथा’, ‘घोड़े की आँखों में आँसू’ और ‘बेतरतीब’ उनके कविता-संग्रहों के नाम हैं। ‘ख़ारिज लोग’ शीर्षक से उनका एक उपन्यास भी गत वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : संगीत-सभा | जहाँ खंडित प्रतिमाएँ भी पूजी जाती हैं | ‘कविता का यह दौर मुझे मायूस करता रहा है’ | शोर और इश्तहार से बचकर

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *