कविताएँ ::
अमित भूषण द्विवेदी
एक
सबकी अपनी राग-रागिनी
सबके अपने-अपने मौक़े
सबकी अपनी नेह-छोहाई
सबके अपने-अपने धोखे
सबका अपना जाति-धरम
सबका अपना कुनबा
सबके अपने संगी-साथी
बाक़ी सब कुछ भुनगा
सबके अपने रूप-रंग
सबके अपने ढंग
सबकी अपनी रूप-मोहिनी
शेष सब तिरभंग
सबके अपने हित-अनहित
सबकी अपनी माया
सब स्वयंभू धरती पर
बाक़ी झूठी काया
सबके अपने नियम-क़ायदे
सबके अपने मापक
सब तो सबसे अच्छे
और बुराई व्यापक
सबकी अपनी बोली-भाषा
सबकी अपनी बानी
सबके अपने-अपने ज्ञानी
बाक़ी सब अज्ञानी।
दो
एक प्रेम ही है जिसे दे सकता था
एक प्रेम ही है जिसे पा सकता था
किंतु समय के थपेड़ों ने
ज़िंदगी के ज़ख़्मों ने
अपनों की उदासीनता ने
रिश्तों के झूठे दावों ने
यह दिखलाया-सिखलाया
कि ज़िंदगी केवल प्रेम नहीं है
कई बार,
ज़िंदगी टूटकर बिखर जाने का नाम है
तो कई बार बिखरकर पुनः
जुड़ जाने का नाम
उन अपनों को भी देखा
इस ज़िंदगी में
जिन्हें कभी इंतज़ार रहता था
बैठकर साथ भोजन करने का
अब फिकर भी नहीं होती उन्हें
मेरे मर जाने की
संभव है
प्रेम के सहारे कुछ लोग जीते होंगे
अपना-अपना जीवन
और उसकी वैभव-गाथा को
पर अधिक लोग ऐसे भी होंगे जो
जीते होंगे एक से अधिक ज़िंदगियाँ
एक ही ज़िंदगी में
एक ही मुखौटे में
प्रेम ज़िंदगी हो अथवा ज़िंदगी प्रेम हो
या फिर ज़िंदगी दोनों ही न हो।
तीन
बाइनरी में आसान दिखने वाले संसार को
हम जितना अधिक सरल समझते हैं
वह उतना ही जटिल है
जितना अधिक वह भ्रमपूर्ण है
वह उतना ही अधिक विभाजन-युक्त है
मैं इस पक्ष का सदस्य हूँ
इस पक्ष का सदस्य नहीं हूँ
अथवा उस पक्ष का सदस्य हूँ या
उस पक्ष का भी सदस्य नहीं हूँ अथवा
कभी-कभी ऐसा भी सोचता हूँ कि
कहीं मैं दोनों ही पक्षों का सदस्य तो नहीं?
या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं
न तो इस पक्ष का सदस्य अथवा
न ही उस पक्ष का सदस्य होऊँ
होने को तो कुछ भी हो सकता है
लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं
ख़ुद को कष्ट से बचाने के लिए
इस सहमति-असहमति
युक्ति-मुक्ति तथा पक्ष-विपक्ष की
बाइनरी के चक्कर में
इस पक्ष से सहमत होते हुए भी
उस पक्ष का सदस्य हो गया हूँ
या उस पक्ष से सहमत होकर भी
इस पक्ष का सदस्य हो गया हूँ।
चार
एक दिन जब बीत जाएँगे सभी
अच्छे-बुरे और साधारण दिन
कुछ लोग मिलकर शोक-सभा मनाएँगे
कुछ लोग अच्छी बातें कहेंगे
मेरे और आपके बारे में भी
बखान संबंधों और आपसी रिश्तों का भी होगा
बातें कर्त्तव्यों की भी होंगी
पर इन सभी पलों में जो नहीं दिखेगा
वह मेरा प्रतिपल का संघर्ष होगा
जीवन के अंतिम पलों की
या फिर जीवन के सभी पलों की
या फिर ज़िंदगी के सभी असंभावित पलों की
उस एकाकीपन की चुभन की
या उससे उत्पन्न व्यथा और विवशता की
अथवा उस भयानक कष्ट की
जिसके बारे में आप सबके अपने दावे होंगे
गाथाएँ होंगी बलिदान की
कथाएँ होंगी योगदान और सहयोग की
लेकिन एक भी ऐसे साक्ष्य नहीं होंगे
जिनसे पुष्टि होती हो कि मैं जीते जी
कभी राहत में था या प्रसन्न था
मुझे नहीं याद आता जब
आपने भूलकर भी पूछ लिया हो
ज़िंदगी के बारे में या मौत के बारे में ही
ठीक ही किसी ने कहा होगा शायद
कि मत हो उदास कि यह शहर अपना है
यह रोग अपना है
ये लोग अपने हैं
जो कुछ भी जीवन मिला
वह संजोग अपना है
वह रहस्य अपना है।
पाँच
आज का दिन फिर से
उन पुराने दिनों की तरह हुआ जाता है
जहाँ पल-पल छूटती उम्मीदों के बीच
रह जाती है माँ के अंतिम दिनों की यादें
उन शीत-स्पर्श हाथों की यादें
जिन्होंने पाला था कभी
जिन्होंने सृजन किया था कभी
उन सभी सृजनाओं का
उन सभी रचनाओं का
जो नदियों के कलरव में बहती हैं
उसी धार से
जिस धार से
रक्त बहता है
मेरे शरीर में।
छह
उसने तब गंभीर आक्रमण किया
जब मैं भीषण रूप से कमज़ोर था
माँ के सदमे से अभी उबरा भी न था
सोचा बार-बार हर बार
वह मुझे ही क्यों फँसाता है
फिर सोचता हूँ
बार-बार हर बार
वह मुझे ही क्यों बचाता है।
सात
मैं सभी सफल छात्रों में हूँ
सभी असफल छात्रों में हूँ मैं
मैं गुरु हूँ उनका
उनकी सफलता-असफलता में हूँ मैं।
अमित भूषण द्विवेदी ने अर्थशास्त्र विषय में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। वह प्रधानमंत्री उत्कृष्ट महाविद्यालय, शासकीय तुलसी महाविद्यालय, अनूपपुर (मध्य प्रदेश) में अर्थशास्त्र विषय के सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। उनसे amit007bhushan@gmail.com पर संवाद संभव है।
आस्वादग्राह्यता और अनुभव, कला-व्यक्तित्व के लिए दो महत्वपूर्ण बातें हैं। अमित जी का साहित्यिक आस्वाद अच्छा है और जीवन अनुभव सघन व भीषण। यहाँ प्रस्तुत उनकी कविताओं में उनकी वही कोरी-सहज-सरल छवि उभर रही है जोकि सोशल मीडिया पर उनकी दैनिक टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं से उभरती है। कविता, दूर तक उन्हें ले जाये, इसकी शुभकामना।
बहुत धन्यवाद अखिलेश जी। आपकी टिप्पणी बहुमूल्य है।
कविताएं बहुत भाव पूर्ण है। दिल को छूती हैं। ढेरों बधाइयां अमित जी को
धन्यवाद सर