कविताएँ ::
संस्कार उषा

संस्कार उषा

दर्द का दंश

तमाम जन्म के बिसरे दर्द को
बदन पर चस्पाँ देख सोचता हूँ
क्या कभी सुबह होगी
जहाँ सकुचाता-सोचता कुत्ता
पल भर आ बैठे मेरी बेंच पर

बदन पर चस्पाँ दर्द को सहलाते सोचता हूँ
कब आएगी वह चाँदनी रात
जब बगुले
तारे
ताल और तुम
जंगल
आग और भुनता मांस
सारे के सारे मेरे
जीवंत कैनवास पर फूले फलेंगे

सहलाते दर्द की पृष्ठभूमि में
अंकुरित सुखों की चुभन चखते सोचता हूँ
कि समंदर किनारे ढलते सूरज का
इठलाता-लहराता बिंब
क्या कभी पाएगा क्षितिज का पार
क्या कभी आ गिरेगा मेरी जेब में?

और अंततः दर्द के बियाबान से
सात कोस दूर
इमली तले खाट पर बैठे
खट्टी दाढ़ें सहलाता-अघाता
वह मेरा स्वप्न सरीखा जीवन
सुख के गेसू पिरोता
ढूँढ़ता एक रास्ता मायनों का
जहाँ दुख से मकानों में
लालसाओं से झरोखे हैं।

त्रिज्या

गीत और गेहूँ का सामंजस्य
जेब और डायरी के पन्ने
सुनहली धूप और देवी की चाय
सारे के सारे कैनवास पर
उतार चुकने की थकान
थकान का पसीना
पसीने से तर शर्ट और
शर्ट पर तुम्हारे हल्दी के हत्थे

जिजीविषा का विष
और गीतों की हाला
समस्त रचनाओं
और धंधे के हिसाब का समूचापन

इन सबको लेंस से देखने पर
साफ़ हो जाता है कि
रोटी की त्रिज्या
पृथ्वी की त्रिज्या से हमेशा बड़ी रही है।

और कौतूहल

माँ मछली है। सदियों पहले वह किसी समंदर की सीपी में घर बना रहती थी। एक दिन बवंडर आया और नदी नाले होते तालाब तक उन्हें ले आया। उसका सीपी-महल टूट गया। वह कंकड़ से मछली हो गई और तालाब में ग़ोते लगाने लगी। फिर एक दिन न जाने कहाँ से मुआ मछुआरा आया और उसे पकड़ एक्वेरियम में डाल बेच आया। ग्राहक के घर में पर्दों और दीवारों के बीच शीशे के उस तालाब में वह ग़ोते लगाती। घर आए बच्चों का कौतूहल बनती। साज-सज्जा की उपमा बन बरसों गँवाती।

फिर एक दिन उस घर में घना भयानक बवंडर आया और मेरी माँ जो मछली रानी है—उसे ग्राहक समेत बहा ले गया… नाले नदी होते समंदर की ओर। वापस। मैं इस गंदे से बीच पर समंदर किनारे कचरे से भरे तट पर बैठा हूँ दाना लिए कि मेरी मछली माँ आए तो उनको वापस एक्वेरियम में भर रख सकूँ…

किसान

हे भोले! हे विजयदान देथा के शंकर! हे कृपानिधान! तुम पर मेरा लेशमात्र भी विश्वास नहीं, ऐसा मैं छन भर को भूल जाता हूँ। भूल जाता हूँ कि तुम बस कुछ टुच्ची कहानियाँ हो—कुछ भयभीत लोगों की कल्पित आशा।

हे प्रभु, मैने सुना कि आपने पार्वती को साक्षी मान इस झूठी कमीन दुनिया को सबक़ सिखाने का फ़ैसला लिया।

हे अपरंपार, हे मेरे कैलाशधीर, तुम तो कितनों के पितृसरीखे हो, कितनी पार्वतियों के कलेजे में सर्द रातों का उबलता लहू हो।

फिर क्यूँ न बजाया शंख?
क्यूँ बुराई से इतनी घृणा?
क्यूँ चोरी-चकारी से इतना क्लेश?

हे सर्वविनाशक, तुमको इल्म है कि तुम्हारे शंखनाद की गूँज बिन ये धरती, ये मेरा घर बस एक बंजर रेगिस्तान और खारा जर्जर मरुस्थल रह जाएगा?

तुमको मालूम है न कि ये मानव-जाति के साथ-साथ बाक़ी सारे जीवन का भी अंत होगा?

प्रभु और उनका रोष दोनों ही कैलाश की चोटी-से निष्ठुर और अनंत!

परंतु मैं भी एक पागल बाँका हूँ।

यद्यपि मुझे रंचमात्र भी विश्वास नहीं कि तुम आओगे या तुम जैसा कोई इस ब्रह्मांड में है भी।

फिर भी मैं खेत पर जाऊँगा—बरस दर बरस। जेठ दर जेठ।

मुझे लेशमात्र भी आस नहीं कि तुम शंख बजाओ और फुहारें मेरे चेहरे को चूम लें।

लेकिन मैं अदना-सा कृषक आता रहूँगा और चलाता रहूँगा हल इस अतृप्त बजरी पर। लाऊँगा अपने बेटों और नातुरों को भी।

तोड़ूँगा कमर दुपहरियों में। बहाएँगे पसीना और लहू मेरे पुत्र भी साल-दर-साल और उनके भी पुत्र आते रहेंगे।

मैं नहीं चाहता कि मैं भूल जाऊँ हल जोतना या गिरना-टूटना या फ़सल न आने का भय।

मैं नहीं भूलना चाहता किसान होना।
हे दयानिधान, बस आप याद रखें!
कहीं आप न भूल जाएँ शंखनाद करना।


संस्कार उषा [जन्म : 1995] की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह पेशे से इंजीनियर हैं। बाँदा [उत्तर प्रदेश] से हैं, लेकिन इन दिनों में दिल्ली में रह रहे हैं। उनसे ashwini73969@gmail.com पर संवाद संभव है।

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *