कविताएँ और गद्य ::
अनुभव
कविताएँ
बिम्ब-प्रतिबिम्ब
जीवन के इस छोर से
उस छोर पर
एक बिम्ब दिखाई देता है
व्यस्त बिम्ब
अस्त-व्यस्त बिम्ब
बाल नोचता
आँसू पोछता बिम्ब
बिम्ब का एक प्रतिबिम्ब है
हँसता- खिलखिलाता
ठहरा हुआ प्रतिबिम्ब
बिम्ब प्रतिबिम्ब होना चाहता है
बिम्ब हाथ बढ़ाता है
प्रतिबिम्ब खींच लेता है
बिम्ब को साथी चाहिए
प्रतिबिम्ब को समय
जीवन के इस छोर को
वह छोर चाहिए
और उस छोर को प्रतिबिम्ब
जंगल
जंगल घना है
प्रतिनिधि उस पार नहीं देख सकता
उस पार नहीं पहुँच सकता
प्रत्याशी उस पार देख सकता है
उस पार पहुँच सकता है
जंगल चीर सकता है
जहाँ प्रकाश नहीं पहुँच सकता
चुनाव पहुँच सकता है
जैसे
सड़क जंगल नहीं चीर सकती
सरकार चीर सकती है
देश और कमरा
कमरे में बैठा मैं
कमरा नहीं
देश सोचता हूँ
देश कमरा नहीं है
न ही कमरा देश है
काश कमरे में देश होता
और देश में कमरे
पृथ्वी से बड़ा
सदियों के थके हम
चले जा रहे हैं
मीलों दूरी नापते हुए
कई-कई पहाड़
कई-कई नदियाँ
कितने-कितने तूफ़ानों
कितने-कितने जंगलों
से गुज़रते हुए हम
रुकना नहीं चाहते
प्रेम करना चाहते हैं
हमें हतोत्साहित करने को
पृथ्वी विरह गीत गा रही है
उसने अपना आकार कई गुना बड़ा कर लिया है
लेकिन सदियों के थके हम
बढ़े चले जा रहे हैं
सिर्फ़ प्रेम को पृथ्वी से बड़ा साबित करने के लिए
तब भी
सब ख़त्म हो जाएगा
एक दिन
समय हमें हड़प्पा कर देगा
लेकिन
जब हजारों वर्षों बाद ख़ुदाई में
एक खिलौना निकलेगा
तब भी
कोई उसे अपने सीने से लगाएगा
और पुत्र कहकर
फफक कर रो पड़ेगा
संभावनाएँ
मैं जानता था
मुझे रोका नहीं जा सकेगा
लेकिन
चले जाने से ठीक पहले
मैं चाहता था
मुझे रोका जाए
जाने से पहले ही
मैं लौटने के बारे में सोच रहा था
लौटने का इच्छुक नहीं था
लेकिन मन
दुबारा लौटने की
संभावनाएँ तलाश रहा था
सँभालना
मैं चाहता हूँ
तुम्हारे जीवन में कोई आए
जो तुम्हें सँभाल सके
बिल्कुल वैसे जैसे
आँख से ढुल रहे आँसुओं को
गाल सँभालते हैं
स्त्रियों ने
पुरुषों ने
मंदिर पाथे
स्त्रियों पर अत्याचार किए
स्त्रियों ने
उपले पाथे
और पुरुषों को रोटी दी
गद्य
एक
आदमी सुख में हँसने से पहले नहीं सोचता। दुःख में रोने से पहले नहीं सोचता। बस हँस देता है। रो देता है। जीना चाहता है। जब वही आदमी सुख में हँसने और दुःख में रोने से पहले सोचने लगता है, तब उसकी जीने की इच्छा धीरे-धीरे जाती रहती है। लेकिन मरने की इच्छा कभी बलवती नहीं होती।
कोई मरना नहीं चाहता। जो मरना चाहते हैं, वे भी मरना नहीं चाहते। अगर उनके पास कहीं पहाड़ पर अकेले रहने का विकल्प हो, सब कुछ छोड़कर दूर निकल जाने का विकल्प हो, तो मरने का ख़याल दूर की कौड़ी है। विकल्पहीनता मरने की इच्छा को जन्म देती है। ख़ासकर बात न कर पाने की विकल्पहीनता।
मरने वाला वाला व्यक्ति जब किसी रेल की पटरी पर लेटता होगा और रेल उसे रौंदने से बस एक पल दूर होती होगी। उस पल वह ज़रूर उस पटरी से हट जाना चाहता होगा। सोचता होगा कि हाय! यह मैंने क्या कर दिया? या फिर दस मंज़िला इमारत से कूदता हुआ शख़्स दसवीं मंजिल से ज़मीन तक के रास्ते में क्या सोचता होगा? वह ज़रूर दसवीं मंजिल की छत पर लौट जाना चाहता होगा। वहाँ से शहर निहारना चाहता होगा। वह भी सोचता होगा कि काश कोई रस्सी होती जिसे मैं पकड़ सकता।
मरने की इच्छा जीने की इच्छा से हमेशा छोटी रही है और हमेशा छोटी रहेगी। जब हम जीने की बात करते हैं, तो सिर्फ़ नौकरी करना और परिवार का पेट पालने के लिए जीना नहीं—संगीत के लिए जीना, घूमना, खेलना, सिनेमा देखना, पढ़ना-लिखना, बेमतलब चिल्लाना, शीशे में ख़ुद को देखकर मुस्कुरा देना… ये सब कुछ मरने से बहुत बड़ा है, क्योंकि ये सब बार-बार दुहराया जा सकता है। इनके बाद जीने की इच्छा और बलवती होती है। और मरने के बाद, कोई इच्छा ही नहीं रह जाती।
दो
मैंने बहुत कुछ टूटते देखा है—इमारतें, पहाड़, भ्रम और सपने। सभी कुछ तोड़ने में मानव ने महान भूमिका निभाई। यहाँ तक कि मानव को भी मानव ने ही तोड़ा। यह एक पक्ष है।
मैंने बहुत कुछ जुड़ते हुए भी देखा—इमारतें, किनारे, संबंध और हाथ। सभी कुछ जोड़ने में मानव ने महान भूमिका निभाई। यहाँ तक कि टूटे हुए मानव को भी मानव ने ही जोड़ा।
इस टूटने-जुड़ने के क्रम में मैंने कहीं आँख चुराती आशा की महीन लकीर देख ली। प्रेम देख लिए। पुल देख लिए। पहाड़ देख लिए। हाथों से जुड़े हाथ देख लिए। लेकिन लाख चाहने पर भी निराशा नहीं देख सका।
मैं सोचता हूँ मेरी इस दृष्टि में भी, किसी मानव की ही महान भूमिका रही होगी।
तीन
बुद्ध, प्रेम और धैर्य के पर्याय हैं। धैर्य, प्रतीक्षा का द्योतक और प्रेम, प्रतीक्षा का फल। प्रतीक्षा, प्रेम आने तक प्रेमी के पाँव बाँध लेती है। धैर्य इस अवस्था में मन का पेट भरता है।
जब लंबी प्रतीक्षा के बाद प्रेम चरितार्थ होता है। तब प्रेमी, प्रतीक्षा से पाँव छुड़ाकर भागता है और साथी के साथ उत्सुकता की ऐसी गहरी खाई में कूद पड़ता है, जहाँ से जीवित लौटना अशक्य है।
तब बुद्ध याद आते हैं। प्रेम आता है। बुद्ध, तब धैर्य के नहीं सिर्फ़ प्रेम के पर्याय रह जाते हैं। धैर्य कहीं पीछे छूट जाता है। धैर्य की अनुपस्थिति में धीरे-धीरे प्रेम, वासना में परिणत हो जाता है। जो एक बिंदु पर आकर अलगाव का विस्फोट करता है।
यहीं हम बुद्ध को हरा देते हैं। और बुद्ध मुस्कुरा देते हैं।
चार
दुनिया में कितने सुख हैं; जिनकी हम कल्पना नहीं करते। वह सहसा किसी फूल की तरह हमारी गोद में आकर गिरते हैं। ऐसे सुख महत्त्वपूर्ण होते हैं। हमारे लिए नहीं—दूसरे सुखों के लिए, जो कमाए हुए हैं; और ये स्वतः ही गोद में आ गिरे हैं।
हम उनको नकारते हैं। पर जब वे सुख सूख जाते हैं, तब उनकी महत्ता हमें चोट करती है। हम उस चोट से मिले घावों को भरने के लिए; फिर वैसे ही किसी सुख की प्रतीक्षा करते हैं। प्रतीक्षा हमें किसी वृक्ष के नीचे पटक देती है। वहाँ रोज़ एक सुख टपकता है, किंतु किसी दूसरे की गोद में। हम उसे कहना चाहते हैं; इसे नकारना नहीं, यही सत्य के सबसे नज़दीक ठहरने वाला सुख है। पर उससे पहले वह नकारा जा चुका होता है।
हमारी प्रतीक्षा; उस सुख की तलाश में जीवनपर्यंत भटकती है। हम थक जाते हैं। लेकिन हारते नहीं।
यहीं कहीं इन सबके बीच; उस चोट के घाव को भरने के लिए हम किसी मरहम की तलाश में बहुत दूर निकल जाते हैं। जैसे यात्री शांति की तलाश में और खोजी सत्य की खोज में।
हम चाहकर भी ऐसी मनःस्थितियों से लौट नहीं पाते क्योंकि ये हमने नहीं, इन्होंने हमको बनाया है। हम उनमें जड़ हो चुके होते हैं। प्रतीक्षा हमें पुकारती है। हम उसे भी नकारते हैं। हम सब कुछ नकारते हैं।
एक दिन कोई अदृश्य शक्ति हमारा हाथ खींचकर, उस वृक्ष के नीचे खड़ा कर देती है, जहाँ हज़ारों सुख जमीन पर बिछे पड़े हैं। हम उन्हें रौंदते चले जाते हैं। सिर्फ़ उस सुख की तलाश में जिसे सबसे पहले हमने नकारा था।
पाँच
कभी-कभी किसी से ख़ूब बात करने का मन करता है। आपको जो भी मिलता है, आप उसे पकड़-पकड़कर बतियाने लगते हैं। एक दिन आप बोलते-बोलते थक जाते हैं और बोलना बंद कर देते हैं। आपका किसी से बात करने का मन नहीं करता। यहाँ तक कि आप दूसरों को जवाब देना भी बंद कर देते हैं। आप उन्हें इग्नोर करने लगते हैं और लोग आपको अहंवादी समझने लगते हैं। यहीं से शुरुआत होती है उदासी की। आपको पता भी नहीं होता, आप भीतर ही भीतर उदास रहने लगते हैं।
तब हम ख़ुद को दुःख और सुख के बीच खड़ा पाते हैं। दुनिया के इस पार दुःख ही दुःख और दुनिया के उस पर सुख ही सुख। हम सुख और दुःख के बीच पेंडुलम की तरह झूल रहे हैं। जब इस क्षण हम दुःख की गोद में रो रहे हैं। तब इसी के बराबर कहीं और इसी क्षण, हम सुख की गोद में सो रहे होते हैं।
छह
दो लोग एक-दूसरे के समानांतर चलना शुरू करते हैं। कुछ दूर जाकर वे एक-दूसरे से छूटने लगते हैं। उन दोनों के समानांतर कोई दूसरा चलने लगता है। कुछ दूर जाकर वह भी एक-दूसरे से छूटने लगते हैं। यही क्रम अनंत तक चलता चला जाता है।
इस प्रक्रिया में समानांतर चलने वाला हर दूसरा शख़्स पहले के लिए भीड़ बनता जाता है। इसी तरह सब एक-दूसरे के लिए भीड़ बनते जाते हैं।
सात
मैं पानी का बहना देख रहा हूँ। पानी अपने साथ कितने सपने, यादें और न जाने कितनी गतियाँ बहाए लिए जा रहा है। इसके साथ मुझे भी बहना है, लेकिन डर है कहीं बह न जाऊँ।
आप सोचते हैं कि डूबने का डर है। नहीं, हो ही नहीं सकता क्योंकि मैं जानता हूँ, डूबकर नहीं मरूँगा। मैंने सैकड़ों लोगों को डूबते देखा है, वे डूबकर नहीं मरते। इस डर से मरते हैं कि ज़िंदा बचने पर क्या होगा?
ज़िंदा बच जाने का भी मुझे डर नहीं क्योंकि मैं यह भी जानता हूँ कि मेरे मरने पर कोई स्थानीय मेरी लाश देखकर पुलिस को सूचित नहीं करेगा और न ही पुलिस किसी ग़ोताख़ोर से मेरी लाश निकलवाकर उसकी शिनाख़्त करवाएगी।
एक बार को मन में आता है कि आँखे बंद करके छलाँग लगा दूँ और नदी के अंतिम छोर तक बहता चला जाऊँ। लेकिन फिर वही बह जाने का डर, न कि बहते जाने का डर।
आठ
जब आप अंदर तक भर जाते हैं। तब ख़ुद को ख़ाली करने के लिए किसी ऐसे शख़्स की तलाश करते हैं जो बिना सवाल-जवाब के आपको सुन सके। आप अपना सब कुछ उस शख़्स में उड़ेलकर ख़ुद को ख़ाली कर देते हैं और उसे भूल जाते हैं। कुछ दिनों बाद आप फिर भर जाते हैं और वही शख़्स आपके लिए बड़े डस्टबिन का काम करता है। दुबारा वही क्रम, ख़ुद के भरने तक आप फिर से उसे भूल जाते हैं।
अनुभव की रचनाओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। लखनऊ में जन्मे तेईस वर्षीय अनुभव स्वतंत्र फ़िल्मकार हैं। वह इस समय माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से मीडिया मैनेजमेंट में एमबीए कर रहे हैं। उनसे work.anubhav.bajpai@gmail.com पर बात की जा सकती है।