कविताएँ ::
हर्षवर्धन सिंह

हर्षवर्धन सिंह

दूर के पास

सबसे पास थी
घिघियाती हुई दूरी

सबसे विक्षिप्त दृश्य के लिए
सबसे पास थीं आँखें

कान चीत्कार भरते
होंठों पर रखे हुए थे

गीतों में जाना पड़ता था
संबल था रात के पीठ पीछे दिन में

सड़ते हुए समय की गंध
फेफड़ों में सबसे अधिक थी

साँसें सबसे दूर
तिलिस्मी तितलियों जैसी

आकाश घर की छत से चूम सकता
पर घर था दूरी की परिभाषा में

मृत्यु हथेली पर थी
जीवन क्षितिज पर उल्टा टँगा

गोद में कोई विष घोल गया था
कंधे पर थी रिक्तता जमी हुई

पर हृदय अब भी दूर था पेट से

आदमी के सबसे पास
आदमी था

और सबसे दूर…

सुनो—

एक व्यक्ति की याद में रहना

एक व्यक्ति की याद में रहना

सुनो,
पगार की मुँडेर पर बैठना
कभी पहले वाक्य में कूदना
और घुल जाना
कभी दूसरी दृष्टि से निहारना दुनिया
सुनो,

एक व्यक्ति की याद में रहना

एक व्यक्ति की याद में रहना

वे आँखें

आँखें दिन भर का भार ढोती हुईं
अंदर ही अंदर थकान सोख कर कुम्हलातीं
और पलकें मींच कर
सब रास्ते दबाए
सुबह का इंतिज़ार करतीं

वे आँखें नदी थीं
उनके किनारे आते
हर बेसहारा तृषित को
जीवन दान देती हुईं
मृत्यु के देस बही जा रही थीं

वे जर्जर खंडित आँखें!
अँधेरे की उँगलियों द्वारा
मसले जाने पर भी
हँसते हुए धोए जाती थीं धूप
सूरज उनके उपकारों के मारे
बादलों के पीछे छुप जाता
और शाम होने तक
सूरज से पहले
डूब जातीं वे आँखें

वे आँखें किसी के जीवन का सार्थ हुईं
वे आँखें किसी और के स्वप्नों का रथ हुईं
वे आँखें बस आँखें न हुईं गर्त हुईं!
फिर व्यर्थ हुई!

मैंने जन्म के वक़्त पहली बार देखी वे आँखें
अब मैं समझने लगा हूँ उनकी लिपि
पर यह क्या हुआ है कि वे आँखें
बढ़ती ही जा रही हैं पृथ्वी पर
यह कैसी काल दामिनी गिर पड़ी
सृष्टि के आँचल में

कौन छोड़ जाता है
इतने दुःख इतनी आँखों में

कहीं न कहीं
किसी न किसी
रिक्शे में
स्टेशन पर
अस्पताल में
आए दिन पलकों के पीछे छिपतीं-डरतीं
अचानक दिख जाती हैं वे आँखें
वे आँखें जो आँखें नहीं आवाज़ हैं दबी हुईं

गलियाँ आ चुकी हैं

इस शहर की सब गलियाँ
वेश्या की बिखरी अलकों ज्यों
उलझी हुई हैं आपस में
इनकी देहरी पर दया की जीर्ण देह पड़ी है
करुणा मूक साँकल में मूर्तिवत मृत्यु गाती है
एक बार घुसने पर इन गलियों में
ये गलियाँ घुसने लगती है भीतर
भागती हुई आती हैं
घुस जाती हैं नसों में
फिर रेंगते हुए पेट काटती हैं
भूख के निर्जन मकान
और उनमें आवाज़ देता सन्नाटा छोड़
चीख़ती हुई हृदय तक आती हैं
अपनी बाँह फैला कर सय्यादों की तरह
ढूँढ़ती हैं एक आदमी
फिर एक और
फिर एक और…

ये गलियाँ
अवसाद के कुत्तों को पुचकारती हैं
यहाँ नालियों में अस्थियों ज्यों तैरती रहती है
संवेदनाओं की गली रोटी

आदमी इन गलियों में
निवाले की तरह जाता है
कभी चूल्हे में ठूँठ की तरह
कभी गले में घूँट की तरह
इनमें चलता रहता है आदमी
साँसों की चाबी घूमती चली जाती है
तिराहे-चौराहे सब पार करता हुआ
वह लाँघ जाता है अपनी अस्मिता
जब शिथिलता बिंधने लगती है पैरों में
तब वह आत्मा की तरह चलता है
रेंगते हुए पेट के बल
घिसटता हुआ समय पर
चलता है जैसे
देश चलता है
देश में केस चलता है
केस में कैश चलता है

हाँफती हुई रोशनियाँ
ऊब के प्लास्टर की भुरभुरी दीवारें
पदचाप की बुदबुदाहटों से घिरा दिन
टूटते तारे निहारती हुई आबादी
छिपकली की कटी पूँछ ज्यों
काँपती हवा!
भीत पर लिखा गया वह प्रश्न—
ये गलियाँ कहाँ तक जाती हैं?

मैं विस्मित जिजीविषा से आंदोलित
‘तक’ से घृणा करते हुए पढ़ता हूँ—
ये गलियाँ कहाँ…तक…जाती हैं!

तुम्हे किसी गंतव्य तक जाने से पहले
ख़ुद में विचरते हुए
पार करनी होगी ये गलियाँ
आत्मीय जीवों को यहीं से आना होगा
अगर आना है
और अगर तुम आ चुके हो
इन गलियों में
तो ये गलियाँ तुममें आ चुकी हैं
किसी कोने में बैठ
सुनो इनके चीत्कारते नूपुर
रक्तरंजित महावर में लिथड़े पैर
महसूस करो अपने ठंडे गले पर
करुणा की देह पर चढ़ कर देखो
आँखों को माथे पर खींच कर
पंजे उठा कर देखो
इन प्यासी आकाशगंगाओं में
दिशाभ्रमित ही असल दिशा-चिह्न हैं

उपस्थिति-अनुपस्थिति

कुआर में जन्मे पिल्ले
एक एक कर जिजीविषा ज्यों मरे
उनका समय ज्यों फूली हुई देह
जिसे विष समझ चाटती हैं उनकी माँएँ
उस मृत देह-गंध में
डूबे हुए दृश्य
गले में उँगली घुसा कर
करते हैं उल्टी
वे माँएँ अपने जबड़े में
सत्य ज्यों दबा कर उनकी देह
पूरे शहर में भागती हैं
भागती हैं जैसे घड़ी के काँटे भागते हैं
और घड़ी के काटे मानव भागते हैं
जबड़े में दबी देह
उसकी झूलती हुई आँख
अनवरत देखती रहती है सृष्टि
सूखे हुए कान सुनते रहते हैं
दुत्कार में भीगी ध्वनि
गले में बलग़म
आँत में पीप
फैलते जाते है विस्तृत शहर ज्यों
देह खाने वाले कीड़े
बढ़ती आबादी जैसे
बाँटते हैं अपना हिस्सा
ख़ून का घनत्व क्रूरता ज्यों बढ़ता है
और अंत में
वह छोटा-सा हिम-पिंड
शहर के बीचोंबीच छूट जाता है
जबड़े से!
धक्! की आवाज़ सारे शहर में गूँजती रहती है
उसकी ओट में कुछ न कुछ
घटता ही रहता है
प्रस्फुटित होती ही रहती हैं गलियाँ
महानगर के ठूँठ में रेंगती रहती है दीमक
अनदेखी का अभिनय नोचता रहता है चेहरा
पृथ्वी ज्यों पड़ा रहता है
उसका कंकाल
वह माँ चाँद बनकर घूमती है
उसके इर्द-गिर्द
और गला उठा कर रोती है
उस यथार्थ परिस्थिति को
उस विकृति को
उस उपस्थिति-अनुपस्थिति को


हर्षवर्धन सिंह [जन्म : 2005] की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह राजस्थान के सिरोही ज़िले के आबू रोड से हैं। वह स्नातक [द्वितीय वर्ष] के छात्र हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ विस्मित और विचलित कर देने की शक्ति और प्रकृति से एक साथ भरी हुई हैं। इनसे गुज़रकर यह फ़िक्र भी सिर उठाती है कि कहीं ये कविताएँ स्वयं कवि के लिए ही चुनौती न बन जाएँ। हर्षवर्धन से hrao13787@gmail.com पर संवाद संभव है।

2 Comments

  1. ऋत्विक् अप्रैल 18, 2025 at 6:58 पूर्वाह्न

    सुंदर कविताएँ।

    Reply
  2. नीरज अप्रैल 21, 2025 at 4:48 अपराह्न

    कुशल कविताई।

    Reply

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