कविताएँ ::
गोविंद निषाद

गोविंद निषाद

स्मृति

कुछ याद है तुम्हें गंगा
अभी कुछ ही दिन बीते हैं जब तुम्हारे दोनों छोर
कैमरे के एक फ़्रेम में नहीं आ पाते थे

कुछ याद है तुम्हें
जब क़तारें लगी रहती थीं
दोनों छोर पर
तुम्हें नज़रों में उतारने को बेताब थे लोग

अब जब तुम सिमट गई हो तो कोई नहीं आता

अब फिर आएँगे
लाखों लोग तुम्हारे तट पर
नहाएँगे, गाएँगे… फिर लौट जाएँगे

कोई नहीं पूछेगा
तुम्हारें दोनों छोर मिलन की जल्दी में क्यूँ हैं

एक दिन कैमरे के फ़्रेम में
पानी कम बालू ज़्यादा हो जाएगी

मुझे चिंता है बस इस बात की
कि तुम्हारे दोनों छोर कही मिल न जाएँ
और लोग आएँ तो उन्हें फ़्रेम में पानी नहीं रेत मिले।

नदियों के किनारे

नदियों के किनारे
स्मृतियों में उभर आते हैं
मेरे पुरखे
जो न जाने कब से
नदियों के किनारे
मारते आए हैं मछलियाँ
चलाते आए हैं नाव
कमाते आए हैं
दो जून की रोटी
आज जब नदियाँ मर रही हैं
तब लगता है कि
नदियों के साथ
मेरे पुरखे भी मर जाएँगे
पुरखों का मरना
मेरे हक़ में होगा या मेरे ख़िलाफ़?

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निषादों की गली

निषादों की गली में
मछलियों की गंध नहीं आती
जल में जाना छोड़ दिया है उसने

नदी पर अब किसी और का क़ब्ज़ा होता जा रहा है
जैसे जंगलों को हथियाया
इस देश के सबसे बड़े धनकुबेर ने

निषादों की नदी में
अब बंद होती जा रही है नाव की छपछप
सेतु अब लोगों के बने खेवनहार
घाटों पर खड़े अब स्टीमर तैयार
काग़ज़ पर बालू है उनके हक़ में
तल पर लेकिन किसी और का क़ब्ज़ा है
जैसे पठारों पर है
हक़दारी का सवाल
हाथ में पड़ा बालू है
हाथ में आता ही नहीं।

आना अस्थि बनकर

कुछ लोग नदी की तरफ़ जाते हैं
हाथ में झोला लिए
अपने पुरखों माता-पिता को भरकर
अस्थियों के झोले को देखकर चहकता है मल्लाह
दिखाने लगता है उन्हें राह घाट की
घाट जिसको मल्लाह ने चुना है
झोला नदी की ओर
मल्लाह की नज़र झोला पर
अस्थियों से भरा झोला उड़ेल दिया है नदी में
गिद्ध की नज़र से देख रहा मल्लाह
समाता है नदी में
छानता है जस्ते के परात में अस्थियों को
अस्थियाँ कभी निराश करती हैं
कभी ख़ुश :
कभी चाँदी का बिछुआ
कभी नाक की नथ
तो कभी किसी का सोने का दाँत
यहाँ तक कि दूर देश के ग़रीब भी
अस्थि बनकर आते हैं नदी में
ख़ाली हाथ बिना कोई गहना पहने
निराश नहीं होता मल्लाह
छानता रहता है अस्थियाँ
छानने की क्रिया चलती रहती है आठों पहर
दिन और रात
बारह मास
ठंड, धूप और बरसात
उसके घर का चलना
कुछ लोगों के नदी पर आने से है।

गोविंद निषाद की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह फ़िलहाल गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एमफ़िल के छात्र हैं और ‘नदी और निषाद (मल्लाह) समुदाय’ के विशेष संदर्भ में शोधरत हैं। उनसे govindau62@gmail.com पर बात की जा सकती है।

6 Comments

  1. रमाशंकर सिंह दिसम्बर 18, 2020 at 2:51 पूर्वाह्न

    गोविंद की कविताएँ इसलिए ताजा नहीं हैं कि उसे एक युवा ने लिखी हैं बल्कि अनुभव, भाषा और संवेदना के नितांत भिन्न धरातल पर गोविंद अपने पाठकों को ले जाते हैं। वे उन ‘पँचबजवा पर्यटक कवियों’ से भिन्न हैं जो शाम को किसी नदी की सैर पर जाते हैं और वहाँ से लौटकर कविता करते हैं।

    गोविंद का जीवन नदी का पाला-पोसा जीवन है। उसने नदी को कविता में कहा भी है, उसके किनारे रहने वाले उन लोगों के बारे में लिखा है जिनका अस्तित्व नदी पर निर्भर है। उनका वंशक्रम और भविष्य नदी से बाबस्ता है।

    इसे पढ़ते हुए मुझे बहुत अच्छा लगा।

    Reply
    1. गोविंद निषाद दिसम्बर 19, 2020 at 5:33 पूर्वाह्न

      कविता के मर्म को समझने और हौसला अफजाई के लिए धन्यवाद सर!🌹

      Reply
  2. देवेश पथ सारिया दिसम्बर 18, 2020 at 10:19 पूर्वाह्न

    मुझे गोविंद की ये कविताएं पसंद आईं। इनमें बहुत गहरा अनुभव है। इस तरह के युवा कवियों को सामने लाने के लिए साधुवाद।

    Reply
  3. गोविंद निषाद दिसम्बर 19, 2020 at 5:34 पूर्वाह्न

    धन्यवाद 🌹

    Reply
  4. virendra yadav फ़रवरी 21, 2021 at 8:33 अपराह्न

    गोविंद भैया आपकी कविता मुझे बहुत पसंद आयी.आपने क्या गहरा अनुभव दिया है… धन्यवाद…

    Reply
  5. श्वेता मार्च 2, 2021 at 2:51 अपराह्न

    जीवन को नदी के आश्रित होकर जीनें की कहानी है ,शब्द सीधे मन को छूते हुए निकल जाते है जैसे पानी की छाप।बेहद गहराई है कविताओं में,बहुत अच्छा लिखा है।

    Reply

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