कविताएँ ::
अदनान कफ़ील दरवेश

अदनान कफ़ील दरवेश

तारीख़ी फ़ैसला

एक

नौ नवंबर की सुब्ह
मुल्क की आलातरीन अदालत ने
जैसे ही अपना तारीख़ी फ़ैसला आम किया
मस्जिद का चौथा गुम्बद
आप ही बे-आवाज़ ज़मीन पर गिरा
जिसमें क़ैद थी मस्जिद की आख़िरी
लहूलुहान अज़ान
जो मुल्क के हर मज़लूम-ओ-इंसाफ़पसंद फ़र्द के भीतर
सत्तर बरस बाद गूँज उट्ठी

ये कैसा राज़ है मियाँ?
लोग बतलाते हैं
मस्जिद में तो केवल तीन गुम्बद थे।

दो

कोई गोली नहीं चली
कोई दंगा नहीं हुआ
कोई जुलूस नहीं निकला

सबने मिलकर कहा
जो हुआ अच्छा हुआ
आख़िर सब कुछ पवित्र-शांति में निपट गया
सबने मिलकर राहत की साँस खेंची

वे लोग भी घरों में ही रहे
जिन्हें यक़ीन था
कि एक कलंक आख़िरश धुल गया
एक ज़मीन थी जो पाक हो गई
लेकिन आज जश्न में उनकी दिलचस्पी कम थी
इतने लंबे संघर्ष ने उन्हें भी अब थका दिया था
थके हुए लोग हमेशा ही करुणा के पात्र होते हैं

आज तारीख़ का एक सफ़्हा अपने आप ही जल गया
सब कुछ धुल गया
सब कुछ पवित्र हो गया
लेकिन सरयू का किनारा क्योंकर उदास है आज
क्या किसी ने फिर से चुपचाप
सरयू के जल में ले ली
जल-समाधि?

अख़बार इसके बारे में कुछ नहीं कहता।

प्रतिक्रियाएँ आजकल

आजकल अजीब प्रतिक्रियाएँ देने लगा हूँ
जबकि चाहता नहीं अपने लिए
किसी भी चीज़ में कोई विशिष्टता

फिर भी
जहाँ सब हँसते हैं ठठा कर; वहाँ उदास हो जाता हूँ
जहाँ रोते हैं सब; वहाँ चुप लगा जाता हूँ
जहाँ सब होते हैं प्रसन्न; वहाँ अक्सर मर जाता हूँ

मेरा सामान्य व्यवहार इस लोकतंत्र में गड़बड़ा गया है।

चींटियाँ

पुरानी यादों से चींटियाँ निकलती हैं
कुछ ढोती हुईं
उन्हें ख़ाली और ख़ाली करती हुईं
कुछ नहीं के अँधेरे में गुम होती हुईं
हमारे भीतर एक नया खोखल बनाती हुईं…

तुम्हारा नाम

जब तुम्हें नहीं जानता था ठीक तरह से तो सोचता था
तुम्हारा नाम किसी अप्सरा का-सा होना चाहिए
जब तुमसे मिला तो ख़याल आया तुम्हारा नाम
तारीख़ में खो गई किसी वीरांगना का होना चाहिए
जब तुम्हें जाना तो लगा तुम्हारा नाम
सबसे कर्णप्रिय होना चाहिए

अब लगता है तुम्हें पुकारने के लिए
किसी भी भाषा में
कोई माक़ूल शब्द ही नहीं
इसलिए तुम्हें इस गहराती रात में
एक पंछी की आवाज़ में बुला रहा हूँ
जो शायद तुम्हारा सबसे माक़ूल नाम है…

छाता

अब्बा स्वभाव से बड़े ही भुलक्कड़ थे
कभी क़लम गुमा दिया तो कभी गमछा
अम्मा भी बतलाती थीं कि वह अक्सर भूल कर
छोड़ आते थे अपना छाता यहाँ-वहाँ
और बरसात में बाज़ दफ़े
पानी में तरबतर लौटते थे घर
अम्मा चिढ़कर कहतीं—
‘‘अजी! फलाँ बस स्टॉप पर छाता न छोड़ा होता, तो यूँ भीगना तो न पड़ता आपको?’’
जिस पर वह बस मुस्कुरा भर देते

बाद में फिर पैसे जोड़ कर ले आते थे नया छाता
लकड़ी की मूठ वाला वही काला छाता
जिसे वह दरवाज़े के झुटपुटे में
दरबान की तरह दीवार से टिकाकर
खड़ा कर देते थे
शायद घर की निगरानी में

बड़े काम की चीज़ था उनका छाता
जब चलते हुए लचकता था उनका पैर
तो छाता ही देता था सहारा
मुझे याद है जब वह काफ़ी ज़ईफ़ हो गए थे
तो मेरे कंधों के सहारे ही चलते-फिरते
कभी कहते—‘‘मेरा छाता कहाँ है बाबू!’’
और मैं झट से समझ जाता उनकी बात
कि उन्हें ग़ुसलख़ाने तक जाना है
सो झुककर अपना कंधा बढ़ा देता था उनकी जानिब

अब्बा बहुत भुलक्कड़ थे
सामान भूलने की आदत जो थी उन्हें
ख़ुद भी तो एक सामान बन गए थे
अपने अंतिम दिनों में
मकान के सबसे छोटे कमरे में
पलँगरी पर लेटे रहते
और एक थकी चिड़िया की तरह
एकटक छत ताकते रहते
सामान खोने की आदत जो थी उन्हें
सो एक दिन ख़ुद को ही गुम कर लिया उन्होंने
हमेशा के लिए

लेकिन हैरत है कि कभी-कभी मेरे ख़्वाब में दिख जाते हैं
अपनी सफ़ेद दाढ़ी में वैसे ही मुस्कुराते हुए

लोग कहते हैं कि अब वह मिट्टी हो चुके हैं—
गाँव के बूढ़े क़ब्रिस्तान में
लेकिन ये शायद केवल मैं ही जानता हूँ
कि मृत्यु ने उन्हें मेरे स्वप्न में हमेशा के लिए गुम कर दिया है।

टॉर्च

मेज़ वहीं हैं जहाँ ख़ुद को पढ़ते-पढ़ते
मुँह के बल लुढ़क गई हैं किताबें
लालटेन के शीशे में कालिख उतनी ही है जितनी थी
दीवालघड़ी भी चल ही रही है अपनी रफ़्तार से
पंखा अपनी पूर्व गति से ही घूम रहा है

फिर ऐसा क्या है जो बदला हुआ-सा लगता है
हर बार
जितनी दफ़े जलाता हूँ टॉर्च।

अदनान कफ़ील दरवेश सुपरिचित हिंदी कवि हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें :

अँधेरो—और गहराओ, कफ़न बनो, मुझ पर छा जाओ

2 Comments

  1. Akhilesh नवम्बर 29, 2019 at 6:48 पूर्वाह्न

    ‘प्रतिक्रियाएं आजकल’ और ‘चीटियाँ’ कवितायें बहुत बढ़िया हैं।
    कवि की रचनात्मकता के प्रति शुभाकांक्षा।

    Reply
  2. Shaifali Gupta नवम्बर 30, 2019 at 7:46 पूर्वाह्न

    बहुत हीअच्छी रचनाए

    Reply

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *