कविताएँ ::
निखिल आनंद गिरि
पति-पत्नी
पति-पत्नी अलग रहने की अर्ज़ी लिए एक साथ कोर्ट जाते हैं।
पति लंबी लाइन में आधार कार्ड लिए खड़ा हो जाता है।
पत्नी फुर्र से बच्ची को दिखाकर घुस जाती है भीतर।
श्वेत-श्याम झगड़ों का अदभुत रेला है कोर्ट
चालाकियों की दुर्गंध हर तरफ़
सब अपने युद्ध के मैदान में जैसे।
अब वे पति-पत्नी नहीं हैं
अपने वकीलों के पास ज़ुबान गिरवी रख गूँगे दुश्मन सिर्फ़
सामने हैं जज
बीच में है बच्ची।
कभी माँ को देखती है
कि लौटेगी यहाँ से तो फ़ेवरेट मैगी बनाएगी
फिर देखती है पिता को
और चुपके माँ के बैग से निकालकर देती है—
पानी की बोतल
धीरे से कहती है कान में :
‘पी लीजिए, सीधा ऑफ़िस जाना है आपको’
माँ लगाती है तीन चाँटे बड़बड़ाते हुए :
‘बड़ा प्यार दिखा रही है यहाँ पर’
और खींचकर हाथ चल देती है।
बेटी का स्कूल
कल स्कूल खुलेंगे कई दिन बाद
क़ैद से निकलेंगी बच्चियाँ
नए-पुराने दोस्तों से मिलेंगी
मेरी बच्ची भी जाएगी स्कूल
फ़रहाना के साथ लंच शेयर करेगी
जेनिस के साथ खूब बातें करेगी
रवनीत बनेगी बेंच पार्टनर
फ़रहाना बताएगी वॉटर पार्क के क़िस्से
छपछप करती है वह अक्सर जाकर
जेनिस बताएगी कैसे मुर्ग़े की आवाज़ निकालकर
खिड़की के बाहर आता है रोज़
ग़ुब्बारे वाला
रवनीत बताएगी
गुरुद्वारे जाकर दुखभंजनी साहब गाती है वह
हर बुधवार
मेरी बच्ची भी बताएगी
नई जगहों के बारे में
जहाँ मम्मी ले जाती है उसे
बताएगी कोर्ट गयी थी घूमने
पिछले मंगलवार
कोर्ट एक मस्त जगह है
जहाँ मम्मी-पापा बिल्कुल नहीं लड़ते
सिर्फ़ प्यार करते हैं मुझसे।
बताएगी फ़रहाना को
वॉटर पार्क से बुरा नहीं है थाने जाना
पुलिस वाले अंकल देते हैं ख़ूब सारी टॉफ़ियाँ
और पापा से काफ़ी देर बातें करते हैं।
जेनिस को बताएगी
घर पर आती रहती है पुलिस
जैसे उसके यहाँ आता है ग़ुब्बारे वाला।
अगली बार आई पुलिस तो
वह रवनीत से सीखकर
गाएगी दुखभंजनी साहेब
और रोएगी बिल्कुल नहीं।
दीवारें
हरा बतियाता है केसरिया रंग से
काला सबसे सुंदर लगता है सफ़ेदी पर
लाल सबकी जगह बनाता हुआ थोड़े में ही ख़ुश है
नीला रंग कमरे में आसमान उतार लाया है
दीवार रँगी हैं बच्ची के सतरंगी प्रयोगों से।
उसे डराता हूँ तो नहीं करती दीवारों को गंदा
कुछ क्षण के लिए,
मगर चूँकि उसका मन साफ़ है
फिर-फिर उभर आती है
कोई पवित्र तस्वीर उसके भीतर
और फिर दीवारें भी तो इंतज़ार करती होंगी
एक कोमल स्पर्श का।
वह चोरी-चुपके रँगती जाती है कोना-कोना
जैसे कोई महान चित्रकार अपना कैनवस रँगता है।
जैसे किसी ने रंग दिए हैं तमाम धरती के कोने
पेड़, समुद्र और पहाड़ों से
कोई ईश्वर बैठा है बच्ची के भीतर
जो सिर्फ़ रचना जानता है
डरना नहीं।
सहम जाती है कभी-कभी
पिता का मान रखने के लिए
मगर जानती है पिघल जाएँगे पिता
जब देखेंगे दीवारों पर
उसकी रची एक नई भाषा को।
ठीक है कि मेहमान घर को विस्मय से देखते हैं
क्लास टीचर भी ताना मारती हैं दीवारें देखकर
ऑनलाइन पीटीएम में
ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलता कोई साफ़ कोना
गिटिर-पिटिर करते ही होंगे पड़ोसी।
बहरहाल,
वह जानती है
क्यूँ भरा मिलता है
कलर पेंसिल का डिब्बा अक्सर!
रात जब सो जाती है लोई
कौन भरता है चुपके से दीवारों में छूट चुके रंग
और डाँट से उपजा उसके भीतर का ख़ालीपन भी।
मेट्रो से दुनिया
एक बाँह सटे-सटे
हिचकोले खाते चली बॉटेनिकल गार्डन से
बिछड़ी मंडी हाउस के आस-पास शायद।
एक कंधा सटे-सटे
बिन देखे बातें करता
चलता रहा नोएडा से
मुस्कुरा कर बिछड़ा शादीपुर में।
कई कपड़े सूखते रहे मेट्रो के उस पार
बालकनियों और छज्जों पर
मन हुआ चिल्लाकर कह दूँ
उड़ रहा है एक कपड़ा
क्लिप लगा दो।
गिरने-गिरने को है
कोई ढका हुआ बनियान
निचले तल्ले पर
झट आकर लड़ पड़ेगी नीचे वाली मैडम
एक ग़ुस्से को फूटता हुआ देख नहीं सकूँगा
रफ़्तार भरी मेट्रो से।
एक भली-सी दिखती लड़की
बुरे नेटवर्क में मोबाइल लेकर बैठी है छज्जे पर
एक चश्मे वाले सज्जन अख़बार में घुसे हुए हैं
पूरा शहर धुएँ में हैं
शोर में है
पानी की टंकी भर गई है
कोई देखने वाला नहीं है।
मेट्रो के उस पार
जैसे कोई फिल्म चल रही है
बिना टिकट।
एक गंदे बालों वाला युवक
थूकने की जगह ढूँढ़ता रहा प्लेटफ़ॉर्म पर
फिर चोरी से ढूँढ़ ली एक साफ़ जगह।
मैं अपना ग़ुस्सा दबाए बढ़ता जा रहा हूँ
ऐसे कई क़िस्सों को आधा-अधूरा छोड़कर।
एक बूढ़ा होता आदमी
झाँकता ही जाता है
एक लड़की के मोबाइल में
दो लड़के और झाँकते हैं इधर-उधर
मेट्रो में सब झाँकते बढ़े जाते हैं
अपनी मंज़िल की ओर।
एक बच्ची उलट रही है इधर-उधर
एक बच्चा प्यास से बिलट रहा है
उसकी चीख़ से टूट रहा है
पूरे डिब्बे का सब्र
अच्छे-भले-सजे-सँवरे दिखते लोग
अचानक बंजर होकर घूरने लगे हैं
बच्ची निडर तेज़-तेज़ रोती चलती जा रही है
मेट्रो इन सबको ढोती चलती जा रही है।
इस कमरे में
इस कमरे की तस्वीरों का
उस कमरे की तस्वीरों से
अबोला है।
इस कमरे से उस कमरे तक
मैं पूरी दुनिया का
फ़ासला तय कर लेता हूँ।
तुम्हारा प्रेम
तुम्हारा प्रेम किसी पुलिसवाले की तरह
मँडराता है मेरे वजूद पर
मैं लाख बचूँ फिर भी
ढूँढ़ लेता है मुझे
पसीने से तर-ब-तर कर देता है।
किसी ने नहीं
मुझे किसी ने नहीं मारा
एक सपने में मुझे प्यास लगी
मैं कुएँ के पास पहुँचा
और वहीं डूब गया
मेरी शिनाख़्त भी हो सकती थी
मगर नींद बिखर चुकी है अब तक।
मर्दों में
मैं उन मर्दों की जमात में नहीं होना चाहता था
जो अपनी औरतों के क़िस्से उड़ाते
शराब में डूबकर दुनिया को
चुटकी में तबाह कर देते
मगर हुआ।
उन मर्दों से भी बचता रहा मैं
जो जादूगर होने का भ्रम रखते थे
वे अपने रूमाल में कुंठाओं को समेटकर
कबूतर निकालने का भ्रम रचते
और सिवाय टूटे पंखों के कुछ हासिल नहीं होता
मुझे भी नहीं।
मैं अपनी बारी की प्रतीक्षा में खड़े
उस आदमी-सा होना चाहता था
जो लंबी भीड़ और पसीने में भी
दुनिया के बारे में बेहतर सोचता रहा।
साइकिल पर बिठाकर अपनी प्रेमिका को
दुनिया की सैर करवाने का ख़याल जैसे।
निखिल आनंद गिरि नई पीढ़ी के सुपरिचित कवि हैं। ‘इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी’ शीर्षक से उनका एक कविता-संग्रह इस वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनसे nikhilanandgiri@gmail.com पर बात की जा सकती है।