कविता ::
अंचित
मर्सिया
मैं वहाँ खड़ा हूँ
जहाँ कुएँ की सूखी जगत पर
मंदिर का टूटा हुआ सबसे बड़ा घंटा पड़ा है।
मैं वहाँ भी हूँ
जहाँ दरगाह की अकेली क़ब्र से सटे तालाब की सीढ़ियों पर
अज़ान में इस्तेमाल होने वाला बड़ा बाजा पड़ा है
मैं बुदबुदा रहा हूँ, बाक़ी सब ख़ामोश है।
जिसको जाना था, चला गया।
जिसको जाना था, चला गया,
उसने किसी का इंतज़ार नहीं किया,
उसने किसी से नहीं पूछा वक़्त और पहर
मेज़ पर उसका बटुआ धरा है, उसकी ऐनक, उसकी घड़ी,
ताखे में उसके कपड़े जिसमें से अभी भी उसकी गंध फूट-फूट जाती है।
मैं देख रहा हूँ, बहुत भारी आँखों से, बाक़ी कोई नहीं देखता।
कूची से कोई रंग नहीं उतरता,
रंग पोंछने वाला कपड़ा तस्वीर की फ़्रेम के पैताने पड़ा है,
बोझिल है हवा।
जिसको जाना था, चला गया।
जिसको जाना था, चला गया,
जब तक वह था, उसका कष्ट दुनिया के दुखों से बड़ा था
अब सिर्फ़ दुःख बचा है—रह गए लोगों के लिए
और जो चला गया, वह आँसुओं के ऋण से मुक्त हो गया।
सांत्वना बिस्तर पर सिलवटों की तरह पड़ी है और
तुम्हारे पास अब कोई काम नहीं बचा।
दवाओं की अलमारी की तरह तुम्हारी दिनचर्या ख़ाली पड़ी है।
मैं सुन रहा हूँ तुम्हारे हृदय की कराह, मातमी काले कपड़ों
के तले ढँक गया है तुम्हारी आत्मा का दीप।
जिसको जाना था, चला गया।
जिसको जाना था, चला गया,
और अब कभी वापस नहीं आएगा। उसकी
अनुपस्थिति से सामंजस्य बैठाते हुए हम अपने दिन काटेंगे।
उसने जो जगह ख़ाली की है; वह जगह सिर्फ़ तुम्हारे घर, शहर, गाँव, देश में नहीं की है। तुम्हारे भीतर भी एक इतना बड़ा ख़ालीपन आ गया है कि उसकी सीमाएँ जानते तुमको बरस लगेंगे। किसी-किसी रात को इनका विस्तार तुम्हारे जीवन को पूरा ढँक लेगा।
तुम्हें एक ऐसी सभ्यता के मुहाने बैठे
वसंत का इंतज़ार करना है
जिसकी परिभाषा सत्ता की उदासीनता है।
लेकिन तुम और क्या करोगे सिवाय इसके कि इस परिभाषा को बदलने जो हाथ उठे, तुम उसके पीछे अपना हाथ उठाए, जा चुके का सम्मान कर सको।
असंगति पीछा करती हुई आती है।
जिसको जाना था, चला गया और हम बच गए लोगों को यहाँ
इस नि:सार उपस्थिति का अर्थ खोजना है।
जिसको जाना था, चला गया,
वह अब कभी नहीं लौटेगा। उसके चले जाने में उसकी कितनी
इच्छा थी, इस प्रश्न का कोई मतलब नहीं। वह थोड़ा और जीना चाहता था—एक पहर भर और सही, इससे अब क्या फ़र्क़ पड़ता है।
वह अब कल का अख़बार नहीं देखेगा, वह अपने बेटे की शादी में शामिल नहीं रहेगा, उसकी जगह कोई और डॉक्टर के यहाँ जाएगा, कोई और वह सिगरेट जलाएगा जिसकी तलब जाने वाले के साथ चली गई।
जिसको जाना था, चला गया,
वह कविता पढ़े बिना जिसके पोर-पोर में आशा भरी हुई थी।
दुनिया में अब जितनी भी कविताएँ हैं, सिर्फ़ मृत्यु सूचनाएँ हैं।
अंचित हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय तथा इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित उनके काम-काज के लिए यहाँ देखें : वस्ल के बाद फिर हिज्र के भी बाद
बहुत अच्छी कविता