कविताएँ ::
देवी प्रसाद मिश्र
मेनिफ़ेस्टो
मैं चाहता हूँ कि समकालीन मेरी मुश्किल हो
मैं चाहता हूँ कि मनहूस दिखूँ जो मैं हूँ
मैं चाहता हूँ कि मुझे छोड़ दो अकेला ही
मैं चाहता हूँ कि मेरा फ़ोन बलाएँ ले लें
मैं चाहता हूँ कि मेरा सच तुम्हें चिढ़ा दे बे
मैं चाहता हूँ कि मुझे घेरने का प्लान बने
मैं चाहता हूँ कि तुमसे कहूँ कि औसत हो
मैं चाहता हूँ कि तुमसे कहूँ वजह यह है
मैं चाहता हूँ कि हर लिस्ट से जो नाम कटे
मैं चाहता हूँ कि वो मेरी लिस्ट का बियाबाँ हो
मैं चाहता हूँ कि मेरा न अब ठिकाना हो
मैं चाहता हूँ कि रहने की वजह यह भी हो
मैं चाहता हूँ कि मैं ताक़त के बिना रह पाऊँ
मैं चाहता हूँ कि औसत जो हो गिरोह भी हो
मैं चाहता हूँ कि हर वक़्त मैं अफ़सोसज़दा
मैं चाहता हूँ मेरे मिटने की वजह यह न हो
मैं चाहता हूँ कि आप मुझ पर ख़ूब बहस कर लें
मैं चाहता हूँ कि मुझे विशेषांक से रक्खें बाहर
मैं चाहता हूँ कि मैं ख़ुद को करूँ इतना ख़ारिज
मैं चाहता हूँ कि कविताएँ मेरा जोखिम हों
मैं चाहता हूँ कि मैं अनुवाद करूँ अवधी में
मैं चाहता हूँ कि लेखन से घर चला पाऊँ
मैं चाहता हूँ कि पुरस्कार मेरा हर बार कटे
मैं चाहता हूँ कि उसे जो भी ले वो शरमाए
मैं चाहता हूँ कि यह शिल्प तुम्हें बेज़ार करे
मैं चाहता हूँ रहूँ ईश्वर के बिना आध्यात्मिक
मैं चाहता हूँ मुझे पाठ्यक्रम में शामिल कर
मैं चाहता हूँ मुझे ख़त्म इस तरह न करो
मैं चाहता हूँ कि अपने को न मैं सह पाऊँ
मैं चाहता हूँ मात्र सोचने का काम करूँ
मैं चाहता हूँ हर चीज़ का विकल्प होना
मैं चाहता हूँ जल्दी ही निर्विकल्प होना
मैं चाहता हूँ अभी डार्क कहीं जैज़-सा कुछ
मैं चाहता हूँ कि अब सो रहूँ यहीं या कहीं
मैं चाहता हूँ कि जो काव्य हो वह गद्य भी हो
मैं चाहता हूँ कि अभिधा में व्यंजना भी तो हो
मैं चाहता हूँ कि मुलाक़ात हमारी फिर हो
मैं चाहता हूँ कि मुझे याद करके सो न सको
मैं चाहता हूँ कि मैं और दाग़दार कर दूँ
वो चादरें जिन्हें मैंने बिछाया ओढ़ा हो
मैं चाहता हूँ कि कह दूँ दुकान खोले हो
मुखौटा भंगिमा बेशक हो क्रांतिकारी का
मैं चाहता हूँ कि कह दूँ कि बुर्जुआ तुम हो
हम्माम में जितने थे उससे भी ज़्यादा अब नंगे
मैं चाहता हूँ अगर ख़ुद को जान पाऊँ तो
तुमको कुछ जानने का काम भी बढ़े आगे
मैं चाहता हूँ कि अगर आप भी यही चाहें
तो हम अब बात करें एक नई दुनिया की
मैं चाहता हूँ कि हम सच के लिए लड़ें इतना
हमारी बरसों की यह दोस्ती महफ़ूज़ न हो
दोस्तो, इस पहली कविता के बारे में यह कहना है कि कंप्यूटर को खँगालते हुए यह मिल गई। याद नहीं कि यह छपी भी है या नहीं। बिल्कुल याद नहीं—बिल्कुल। यदि पढ़ी भी हो तो पढ़ डालिए—मुझे तो यह ख़ासी प्रासंगिक लगी।
— देप्रमि
पूछना मत
क्यों बताऊँ कब फटा था हायमन
किक लगाई तेज़ जब फ़ुटबॉल पर या
खेलने के बाद हमने की मोहब्बत घास पर
ख़ुश्क थी या जो हरी थी याद कम है
कहाँ किसके साथ लेटी रेत पर मैं या दरी पर
क्यों बताऊँ हाथ किसका छोड़कर रोई थी मैं
पूछने आए हो या फिर प्रेम करने घेरने या
फिर कभी आना नहीं, ऐ, जानेमन,
जानने कि कब फटा था हायमन
सेंसरशिप
जो दो बदन प्यार की आग में जले थे
उन्हें माचिस वाली आग से जला दिया गया तो
हमने इसे सीख की तरह लिया
कि हमको भी जला दिया जाएगा
किसी होटल से निकलते हुए
हमें पकड़ लिया जाएगा
कहा जाएगा कि तुम दोनों के ग़ायब होने की रिपोर्ट है
एक टिप्पणी होगी कि
सोचा तो यह होगा पकड़े नहीं जाएँगे
चलाते रहेंगे यह अवैध प्रेम
बदहवासी में हम कह नहीं कर पाएँगे कि
कोई भी प्रेम अवैध नहीं होता
डरने के बावजूद बताना हम चाहेंगे कि हम कौन हैं
मतलब कि हम काफ़ी यातना में हैं
मतलब कि कितना दुर्लभ है एक मनुष्य का
दूसरे मनुष्य के प्रति आवेग,
भरोसा और विश्वास जो हमने
किसी तरह तो उपलब्ध किया
संशय और स्टिंग ऑपरेशन और रिकॉर्डिंग
और पुलिस और आधारकार्ड और पेगासस
और सीसीटीवी और बजरंग दल
और रोमियो स्क्वाड के
इस जासूस सर्वेलेंस सैन्ययुग में
हम बताना चाहेंगे कि क्या बताएँ पांडे जी,
हम दोनों कमरे में घुसते ही
इस बहस में उलझ गए कि
दंड के लिए है या सुख के लिए देह
मैं पुरुष कहता रहा सुख के लिए
जबकि मैडम यानी स्त्री कहती रही कि
दंड के लिए
बहुत देर तक उसके बाद अबोला रहेगा
दारोगा पांडे गरज कर कहेगा कि
हमको
फूको
मत
समझाओ
बीएचयू से दर्शन-शास्त्र में एमए किए हैं
हजारीप्रसाद द्विवेदी के घर से हमारा घऱ
मुश्किल से होगा तीन किलोमीटर
आईपीएस दिए नहीं हुए
दरोगाई में मरा रहे हैं तो
ये न समझो कि हम अनपढ़ हैं
पेट की बेल्ट ढीली करते हुए पांडे कहेगा कि
पढ़े लिखे हो दोनों तो
ये नीच काम क्यों कर रहे थे
कौन-सा नीच काम, हम यह पूछ नहीं सकेंगे
उबासी लेते हुए पांडे कहेगा कि
आख़िर में क्या हुआ यह तो बताओ—
द्वैत का अद्वैत कब और कैसे हुआ
या कि द्वैताद्वैत
पता नहीं हम क्यों यह नहीं बताएँगे
कि उस होटल में हम सबसे ज़्यादा एक दूसरे को
जी भर के देखने के लिए रुके थे
हमें यह पहले से ही क्यों मालूम होगा
कि यह बताना अविश्वसनीय होना होगा।
आख़िर में क्या हुआ था रात भर के जवाब में अंतत: हम
एक दूसरे का हाथ पकड़ लेंगे
कि सबसे महत्त्वपूर्ण क्रिया उस रात की यही थी
यही था द्वैत का अद्वैत
वे नहीं मानेंगे कि
जैसे वे चुप्पियों और तनाव और विलाप और संशय में
एक दूसरे का हाथ पकड़ने को कोई
बड़ी मानवीय क्रिया न मानते हों
हिंदू रिपब्लिक
करती हूँ प्रेम तो कहूँगी
स्वतंत्रता की करूँगी माँग
घर के परबाबा ने जैसे
लड़ाई लड़ी थी औपनिवेशिक शासन से मुक्त होने की
बराबरी के हक़ की
कहते हैं जैसे प्रेमी
वो लड़की कितनी जानदार है
मैं भी कहूँगी कि
कितना सजीला है लड़का
लगता तो है
रेपिस्ट नहीं है वो
वीडियो नहीं बनाएगा
देहोत्सव का
अरहर और सनई के खेत में
लट्ठ लेकर आएँगे गाँववाले तो
भाग नहीं जाएगा छोड़कर फिर चाहे
आम की डाल से लटकना ही पड़े
बम्हनी को कमजात के साथ
देखते हुए
एक दूसरे की
निकलती हुई जीभ
बाहर आती आँखें
और ख़ून टपकता हुआ
हिंदू रिपब्लिक पर
जनवरी कौटुंबिक पश्चाताप का महीना है
बरसों पहले जनवरी में कनटोप पहने हमने
कुटुंब की एक 21 साल की ल़ड़की को घेरा
न्यूज़ रिपोर्टर की शैली में पूछते हुए कि
जब तुम पार्क में एक झाड़ी के पीछे पकड़ी गईं
तो लड़के के साथ वहाँ क्या कर रही थीं
हम उसका यह उत्तर सुनने के लिए तैयार नहीं थे कि
प्रेम में गुँथा हुआ सेक्स
तो जनवरी कौटुंबिक पश्चाताप का महीना है
लेकिन आने वाली किसी जनवरी में अगर
इसी तरह कुटुंब की एक लड़की किसी लड़के के साथ
पकड़ी जाती है तो 25 साल बाद का यह कुटुंब
25 साल पुरानी शैली में दुबारा यह पूछेगा कि
उस लौंडे के साथ क्या कर रही थीं
अच्छी बात यह है कि लड़की कह सकती है कि
वही कर रहे थे जो आप लोग दरवजवा बंद करके
हर चउथे पंचए दिन करते रहते हैं
हम एक दिन कर लिए तो कनटोप पहिन के
इंटरोगेशन कर रहे हैं
न्यूज नेशन कर रहे हैं
यह हो सकता है कि परिवार के लोग यह कहते हुए कि दलित के साथ कुकरम कर रही थी बम्हनवे लड़किया को मार के गाड़ दें कहीं ले जाना ख़तरनाक हो सकता है तो आँगन में ही और उसके ऊपर रातों रात सीमेंट का एक चौरा बनवा दें और तुलसी का पौधा रोप दें जो कुलदेवी के तौर पर बरसों पूजा जाता रहे
हाथरस
वे लोग खून में लथपथ एक लड़की को एक रिक्शे में डालकर घऱ भेज देने की ज़िम्मेदारी निभाते हैं—उनके पास नीची जाति के बरअक्स ऊँची जाति की सुरक्षा है अख़बार वाले ग़नीमत है इसे रेप कहते हैं पुलिस वाले असमंजस में रहते हैं और जो कुछ उनसे कहा जाता है कहते रहते हैं—इस तरह नृशंसता को नौ बटे दस कम कर देते हैं जबकि बचे एक बटे दस को प्रदेश के पुलिस प्रमुख और सरकार प्रमुख रातों रात लकड़ी का इंतज़ाम करके लड़की और लोकतंत्र की बची हुई हरकत को जय श्रीराम कहकर फूँक देते हैं : जल्दी ही लड़किया की चिता की राख से जो अँधेरा फैलता है उसके समानांतर एक वृत्तचित्र बनता है नया सवेरा निरुपाय देखते हैं जिसे बलुआ पत्थर के हाथी कमल का फूल सूँड़ में उठाकर और कई टन राजनीतिक लीद कर
सबसे प्रामाणिक
तेज़ लगा है
सड़क से उतरकर कर लूँ पेशाब
रुककर मुड़कर क्या देख रहे हो मुझे जिसे
दो मिनट बैठने की फ़ुर्सत नहीं
मत आओ मेरे पीछे
काम पर जाने दो
मोबाइल मत तलाशो कि
मैं उससे किससे बात कर रही हूँ
मेरा सेक्स वीडियो तुम्हें मिल गया, ख़ूब देखो
ब्लैकमेल करने के लिए मेरे पास मत भेजो
एक महान् ब्लॉकबस्टर फ़िल्म की तरह
रिलीज़ कर दो ऑन लाइन या मल्टीप्लेक्स थिएटर में
एक स्त्री की स्वतंत्रता की वह
सबसे प्रामाणिक फ़िल्म है
कुछ भी करने के लिए तैयार स्त्री
एक कविता में एक आदमी
पृथ्वी के
आख़िरी किनारे पर रह रहा है
जहाँ हरे रंग का दरवाजा है
जो पीले रंग के मकान की किसी दीवार में लगा है
जिसके सामने एक सड़क है जो कहीं जाएगी
और कहीं से आएगी भी और जिस पर एक आदमी किसी उम्मीद की ओर जाता हुआ दिखेगा
और एक आदमी साइकिल से लौटता हुआ
देशव्यापी असमान वितरण का
पाँच किलो अनाज कैरियर में बाँधे हुए
इस सड़क पर
सड़क के किनारे
पूँजीवाद
एक आदमी को फेंक जाएगा
कि वह किसी काम का नहीं रहा
तब एक लड़की कहेगी
कि वह कुछ भी करने के लिए तैयार है
जिसका यह अर्थ नहीं लिया जायेगा
कि
वह
दुनिया को बदल देने के लिए
कुछ
भी
कर
सकती
है
देवी प्रसाद मिश्र नाम ही काफ़ी है।
देवी सर की कविताएं, जैसा कि स्वाभाविक ही है, इस बार भी बहुत अच्छी हैं।
और इस बार अलहदा है बहुत जोरदार प्रस्तुति कविताओं की। कवि की तरह प्रस्तुति कर्ता का भी नाम ही काफी है : अ.मि.
इसमें कोई शक नहीं कि देवी जी का लेखन किसी शराब की लत की तरह तलबनुमा है और न ही इसमें कोई संदेह है कि यह तलब स्वास्थ्यप्रद है। उनकी कविताएं जिस तरह से सत्ता, समाज और सबसे ज्यादा साहित्य की कुरीतियों पर प्रहार करती हैं उसके लिए एक अलग किस्म का साहस चाहिए। फिर चाहे कविताओं में स्वयं के आत्मालोचन की बात हो या साहित्यिक गिरोहवादी गतिविधियों का खुलकर सामना करना हों, उनके खिलाफ लिखना हो। ऐसे में उनको हिंदी समकालीन साहित्य का योद्धा अगर मैं कहता हूं तो यह बात न तो अतिशयोक्ति होगी और न ही कोई चरणवंदना बल्कि ध्यान से देखने पर मेरे इस कथन के पीछे आपको उनका लेखन खड़ा दिखाई देगा।
और सबसे जरूरी हिंदी की स्त्री दशा और उसकी मुक्ति का साधन भी कोई ईजाद करता हुआ दिखाई पड़ता है तो वही योद्धा जिसका नाम ही काफी है– देवी प्रसाद मिश्र
भैय्या की कवितायें यथार्थ को जीवंत करती हैं…सबके देखे-सुने-पढ़े सच हैं…मानो अख़बार के चरित्रों को जी रहे हैं…ख़बर का सच ख़बरचियों के बस की बात नहीं है… अद्भुत कवितायें… साझा करने के लिये धन्यवाद… 🙏🙏🙏
सीधे कवि से
————
भंगिमा मत बाँधों
कविता खुखरी है
मुँह तोड़ लो या तोड़ दो
देह किस काम आती है सही है पर
फूको चेपने की आयरनी कहीं ले नहीं जाएगी
बहते हुए ख़ून पर लौट आओ
चीरते हुए सत्ता-समग्र
सत्य को पाने में तुम्हें अब अपनी दुर्गति नहीं चाहिए क्या?
हँसना न रोना मुँह बिचकाना, नहीं देवी
घुम आओ पृथ्वी
रोओ, देवी