कविताएँ ::
धर्मेश

धर्मेश

एक

लड़कियाँ अक्सर लड़कियों के साथ
भाग जाया करती हैं
उन्हें प्रेम हो जाता है एक दूसरे से ही
उन्हें नहीं ज़रूरत होती मर्दों की
वे नकार देती हैं मर्दों की दुनिया में
उनसे मिला औरत होने का सर्टिफ़िकेट

पिता क्रोधित हो जाता है
भाई घसीट लाता है उन्हें घर
चाचा बताता है कि
मर्द क्या होता है

कई लड़के भी नहीं देखते
लड़कियों के उभरे शरीर
उन्हें लड़कों की हँसी
और खुरदुरे हाथों में
पसंद होता है अपना हाथ देना
वे दुनिया के दूसरे छोर चले जाना चाहते हैं

पिता क्रोधित हो जाता है
भाई घसीट लाता है उन्हें घर
चाचा बताता है कि
मर्द क्या होता है

दो

नसों में भर जाता है क्रोध
सत्ता के विरुद्ध

सत्ता मर्दों की, ठाकुरों की
बाभनों की, बनियों की
भरे-पूरे, खाए-पीए, अघाए
हुक्का गुड़गुड़ाते
देह और पेट की भूख
बिना मेहनत के शांत किए
लोगों के आदर्शों को देख
आँखों में उतर आता है क्रोध

वे हमारी हत्या कर हम पर हँस पड़ते हैं
हमारे क्रोध को कह देते हैं बेबुनियाद
उनके बताए आदर्श, उनकी बताई क्रांति
उनके बताए मार्क्स और लेनिन
यही हैं शाश्वत और सत्य
जैसे उनके बताए ब्रह्मा और शिव थे

न अपनी ही देह में जकड़े लोगों ने जाना
न गंगा नदी को पार कर
सूने द्वीप पर प्रेम करने गए मछुआरों ने
न जबरन ब्याह दी गई
सोलह बरस की लड़की
न उसकी प्रेमिका ने जाना
क्रांति का गहन विमर्श

धर्म के ठेकेदार मर्दों ने
धर्म को छिटकते देख
ले लिया क्रांति का ठेका
और जो मर्द नहीं थे
उन्हें नहीं मिला
क्रांति में स्थान

तीन

प्रेम के दस्तावेज़ों में बाक़ी है
अभी लिखी जानी दास्ताँ उन लोगों की
जिनके जन्म ने निर्धारित किया
उनके मनुष्य होने से पहले
उनका मर्द या औरत होना
और उन्हें लड़ना पड़ा
अपने ही शरीरों से
अपनी अस्मिताओं के लिए

लिखे जाएँगे क़िस्से उन लड़कियों के
जिन्होंने अकूत प्रेम किया लड़कियों से,
लड़कों से, और उनसे भी
जिन्होंने नकारा ये दोनों होना

अभी तो बाक़ी हैं क़िस्से उन लड़कों के
जिनके प्रेम में थी उतनी ही आग
जो धधके तो कलेजों से अश्क गिरें
पर जिन्हें ज़रूरत न हुई
महबूब-ए-बदन की
अंजाम-ए-इश्क़ की ख़ातिर

चार

सत्रह बरस के दो लड़कों ने
खेल-खेल में तोड़े कई पके फल
उन्होंने प्रेम किया और फल खाया
फल खाया और प्रेम किया
जहाँ-जहाँ किया उन्होंने प्रेम
वहीं बो दिए फलों के बीज
उन पेड़ों पर उग आए कई फल
कुएँ पर जाती औरतों ने
हँसते-गाते मन भर खाए फल
उनसे जने लड़कों ने उन्हीं पगडंडियों पर
जिन्हें उनकी माँओं ने
कुएँ पर जाते हुए बनाया था
पेड़ों से फल खाने के लिए
खेले जाने कैसे-कैसे कितने खेल
बड़े होते लड़कों ने पढ़ा धर्म और विज्ञान
उन्होंने काट दिया पेड़ों को
ताकि मंदिर और बड़े संस्थान बनें
उन्होंने औरतों को कह दिया गँवार
क्योंकि वे पढ़कर शहर बसा चुके थे
उन्होंने उन सत्रह बरस के लड़कों को
जो अब बूढ़े हो चले थे
और अब भी प्रेम करते और फल खाते
धर्म और विज्ञान से बेदख़ल कर दिया
बूढ़े हो चुके लड़कों के पास
न बचे फल, न पेड़
न कुआँ, न पगडंडियाँ
केवल बचा प्रेम
धर्म और विज्ञान के विरुद्ध

पाँच

जैसे कविता होती है शब्दों के अंतराल में
होता है प्रेम अंतराल में देहों के
इस अंतराल में होती हैं सरहदें
मज़हब की, मुल्क की, रेख़्ता की
और जाने कितनी अनजानी लकीरें
जो ठेकेदारों ने दंभ में खींची हैं
प्रेम ललक है इस अंतराल को भरने की
अंतराल के बिना रह जाती है कविता
कोरे शब्दों का ढेर—
शब्द—निर्जीव, खोखले, अर्थहीन, बोझिल

छह

तुमने लिखे शास्त्र औ’ इतिहास
है तुमसे ही परिभाषित सब रस
वात्सल्य हो या हो वीभत्स
वे लड़के जिन्होंने प्रेम किया
अपनी दुगनी उम्र के ब्याहता पुरुषों से
वे ब्राह्मण वधुएँ जो भंगिन के साथ
भाग गईं सब लोक-लाज को आग लगा
वे हिजड़े जिन्होंने छोड़े दुधमुँहे बच्चे
और ताली पीटते दिया तुम्हें बेटा होने का आसीरबाद
तुम्हारे लिखे किसी ग्रंथ में नहीं आते
उनका प्रेम परे है तुम्हारी स्मृतियों से
उनका रुदन सुनकर तुम्हारी फूटती रही हँसी
उनके लहू का रंग तुमने देखा ही नहीं लाल
तुम्हारे क़िस्सों से नदारद रही उनकी आत्माएँ
कभी तो उनके हाथ भी आएगी क़लम
और लिखेंगे वे तुम्हारी सभ्यता की असभ्य कविता…


धर्मेश हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक और अनुवादक हैं। वह बतौर इंडिया फ़ेलो, कच्छ महिला विकास संगठन में कार्यरत हैं। वह सेफ़ एक्सेस फ़ेलो रह चुके हैं। उनसे chaubeydharmesh0@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के क्वियर अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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