कविताएँ ::
कविता कादम्बरी
मुहावरे
एक
चलते-चलते चप्पलों का घिस जाना एक मुहावरा है
जो लागू नहीं होता उन पाँवों पर
जिनमें चप्पलें नहीं हैं
हैं बस बिवाइयाँ
जो घिसती नहीं हैं
बस रिसती हैं।
दो
खिचड़ी का पकना भी एक मुहावरा है
जो लागू नहीं होता उन घरों पर
जहाँ दाल-चावल कभी एक साथ नहीं जुटता है
पकती-गलती है देह
किसी और की थाली के लिए।
तीन
गज़ भर की छाती होना भी एक मुहावरा है
जो लागू नहीं होता उन छातियों पर
जिनमें बिन बारादरी वाले बेहद तंग और अँधेरे दिल बसते हैं
जिनमें नहीं रह सकते दो भाई भी एक साथ
पड़ोसी की फिर बात ही क्या।
चार
सीने पर मूँग दलना भी एक मुहावरा है
जो लागू नहीं होता उन सीनों पर
जो सालों की दलन के बाद भी नहीं हुए हैं चाक
जिनके पेट पर अभी भी बैठा है लोढ़ा लिए एक भूत
और पीठ पर गहरे घावों के बावजूद
जिन्हें करवट बदलने का ख़याल तक नहीं है।
पाँच
जल में रहकर मगर से बैर करना भी एक मुहावरा है
जो लागू नहीं होता है उन मछलियों पर
जिन्होंने खोल दिया है मोर्चा
अपने घर पर हुए मगरमच्छ के क़ब्ज़े के ख़िलाफ़।
देवताओं के बरअक्स मनुष्य से प्रेम
बाज़ार में बहुत चेहरे हैं देवताओं के—ढोते हुए नकली शाश्वत मुस्कान
जबकि मनुष्यों के चेहरे कुम्हला जाते हैं
अनगिनत पाँवों की रिसती बिवाइयाँ देखकर
मैंने छुई हैं देवताओं की मरमर-सी तराशी हुई कठोर भुजाएँ—
हथियारों से सुसज्जित मगर जड़
जबकि मनुष्य अपने हथियारविहीन हाथ हवा में लहराता है
अत्याचारी तोपों के ख़िलाफ़
मैंने देवताओं के चिरयुवा चेहरों को बेहद क़रीब से देखा है
गलतियाँ न करने के मद से भरे—
पूरे ब्रह्मांड की रौशनी
अपने आभामंडल में लेकर घूमते हुए
जबकि मनुष्यों के चेहरे
ग़लतियों की रेखाओं से भरे हुए
हो जाते हैं बूढ़े
और अपराधबोध और प्रायश्चित में कांतिहीन
मैंने देवताओं को देखा है चढ़ावों पर गदगद होते हुए
जबकि मनुष्य भूख से बिलबिलाते हुए भी
मुफ़्तख़ोरी से भरी कोठार ठोकर से लुढ़का देता है
मैंने देवताओं को देखा है अमर
मगर अन्याय के लिए आँखें मूँद
आराम-शैय्या पर लेटे हुए निस्पृह
जबकि मनुष्य मौत की संभावनाओं के बाद भी संघर्ष में कूद पड़ता है
मैंने देवताओं को देखा है अभंग मगर प्रेम से दूर
स्तुति से प्रसन्न हो करते हुए कृपा
जबकि मनुष्य टूट जाने की नियति
और दुत्कारे जाने की आशंका देखकर भी
बिखरने तक करता है प्रेम
आज के समय में जबकि मनुष्य होना एक मिथक है
देवताओं से घिरी हुई मैं
उन्हें मनुष्य हो जाने को घुड़कती हूँ
उनकी उपेक्षा करते हुए
एक मनुष्य से करती हूँ प्रेम
और उसके देवता हो जाने की कल्पना मात्र से
डरती हूँ,
बेहद डरती हूँ।
तुम्हारी सोहबत के फूल
तुम्हारी सोहबत
मेरी हथेलियों पर रोप देती है
बग़ावत के लाल दहकते फूल
जिनके परागों को बड़े हुनर से बिखेरती हैं बाग़ी तितलियाँ
आँधियों की ढिठाई के ख़िलाफ़
और जिनके शहद के छत्तों को टाँग आती हैं मधुमक्खियाँ
भूखे और उदास बच्चों की बस्ती में।
ऊपरवाला
उनकी हवस बढ़ी तो उन्होंने पत्थर गढ़
ऊपर वाले की जयकार की
ख़ुद लिखा और कहा
कि ऊपरवाले ने लिखा है
ख़ुद बोला और कहा
कि महान ऊपरवाला बोलता है
हमारी स्त्रियों को हथिया लिया और कहा
कि ऊपर वाले की सेवा में
हमारी ज़मीनें क़ब्ज़ा लीं और कहा
कि ऊपर वाले का न्याय है
भूखे की आख़िरी रोटी भी माँग ली और कहा
कि ऊपर वाले के लिए दो
जन्मने पर दुनिया में आने का कर वसूला और कहा
कि ऊपर वाला रास्ता देता है
मर जाने पर कफ़न पर उगाही की और कहा
कि ऊपर वाला मोक्ष देगा
वे जादूगरों की तरह
प्रारब्ध की कहानी सुनाकर
हाथ की सफ़ाई करते हुए
हमारे हक़ की रोटी अपनी थाली में सरकाते रहे
और हमने इस चमत्कार पर भी तालियाँ बजाईं
उन्होंने अनाज अपने गोदाम में भरे और भूख को दुधारू गाय
और उसकी लात को स्वर्ग की चाभी बता
हमारी चौखट पर बाँध दिया
ठग शक्ल से पहचान ही लिए जाएँ तो ठग कैसे
हम ज़हरख़ुरानी के शिकार की तरह
धुँधले चेहरों में ऊपर वाले को खोजते रहे
जो उनके अफ़ीम के खेतों में खड़ा बिजूका भर है
जो उनका ज़िरहबख़्तर है
जिस पर न्याय की हर तलवार टूट जाती है
और आख़िरकार
जो उनकी जूती है
उखड़ जाए तो कीलें ठुकवा दी जाती हैं
काटने लगे तो तेल पिला दिया जाता है
और काम न आए तो बदल दिया जाता है
हमारी गर्दन, उस पर उनकी जूती और उस जूती में उनके पाँव की पहेली में
ऊपर वाला कौन है यह बूझना इतना कठिन तो नहीं था।
मछली के पंख
मैं बाज़ नहीं
मछली पैदा हुई
तैरने का बेमिसाल हुनर लेकर
हिक़ारती नज़रों ने कहा
मुझे नहीं आता उड़ना
मैं नहीं देखती आकाश
मेरी बेहतरी के लिए
मेरे फ़िनों पर बाँध दिए
पत्थर के बड़े
और नक़्क़ाशीदार पंख
मैं आकाश देखते हुए
पानी में ही दबोची गई
और भी आसानी से।
मेरे बेटे
मेरे बेटे
कभी इतने ऊँचे मत होना
कि कंधे पर सिर रखकर कोई रोना चाहे तो
उसे लगानी पड़े सीढ़ियाँ
न कभी इतने बुद्धिजीवी
कि मेहनतकशों के रंग से अलग हो जाए तुम्हारा रंग
इतने इज़्ज़तदार भी न होना
कि मुँह के बल गिरो तो आँखें चुराकर उठो
न इतने तमीज़दार ही
कि बड़े लोगों की नाफ़रमानी न कर सको कभी
इतने सभ्य भी मत होना
कि छत पर प्रेम करते कबूतरों का जोड़ा तुम्हें अश्लील लगने लगे
और कंकड़ मारकर उड़ा दो उन्हें बच्चों के सामने से
न इतने सुथरे ही होना
कि मेहनत से कमाए गए कॉलर का मैल छुपाते फिरो महफ़िल में
इतने धार्मिक मत होना
कि ईश्वर को बचाने के लिए इंसान पर उठ जाए तुम्हारा हाथ
न कभी इतने देशभक्त
कि किसी घायल को उठाने को झंडा ज़मीन पर न रख सको
कभी इतने स्थायी मत होना
कि कोई लड़खड़ाए तो अनजाने ही फूट पड़े हँसी
और न कभी इतने भरे-पूरे
कि किसी का प्रेम में बिलखना
और भूख से मर जाना लगने लगे गल्प।
काई और ताप
मेरी हड्डियों में जमे संस्कारों से अकड़ी है मेरी गर्दन
जो एक सीमा के बाद नहीं घूम पाती
कि देख सके मेरी अपनी ही पीठ
मेरे हाथ भी मेरी पीठ के हर हिस्से तक नहीं पहुँच पाते
मैं महसूस तो करती हूँ मगर
खुरचकर फेंक नहीं पाती
अपनी कशेरुका पर जमी काई
जो सबकी नदियों और बारिशों को
अपने ही आँगन में बाँध लेने की लालची ज़िद का नतीजा है
कितनी ही बार मेरे हृदय से उठा विद्रोह
मेरी अपनी ही रीढ़ पर फिसलकर पाताल में जा गिरता है
कितनी ही बार बदल जाते हैं रास्ते
कितनी ही बार स्थगित कर दिया जाता है ज़रूरी संघर्ष
अनिश्चितकाल के लिए
मेरी पीठ पर फिरे सब हाथ काइयों से भरे हैं
मगर
जब तुम्हारी दो गोरिल्ला आँखें
सूरज के ताप-सी जलाती हैं मेरी पीठ
तब मुझे इतिहास के चिपचिपे कलंक से मुक्ति मिलती है।
कविता कादम्बरी (जन्म : 1984) हिंदी कवयित्री हैं। उनकी कविताएँ प्रमुखता से कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे singhkavita.bhu@gmail.com पर बात की जा सकती है।
I greatly liked Kavita Kadambari’s ‘Muhavare’ and shared it on my FB wall. The poems are good, not only in terms of message and poetic beauty but in the manner of communication too. I am not a poet and have no qualms in accepting my limitations as a reviewer of poems. Moreover, I write in English but I was simply overwhelmed with the emotion expressed in Kavita’s poems. Congratulations and all the best wishes, Nalin Verma.
बहुत ही उम्दा
देवताओं को मनुष्य बनने की घुड़की देने वाली यह कवयित्री, जीवन के मुहावरों को साफ करने में जुटी हुई हैं।
बिडंबनाओं से साहित्य की मुठभेड़ कैसे हो, यह उनकी मछली की पंख जैसी कवितायें बखूबी दर्ज करती हैं। काई और ताप में वे एक समाजशास्त्री की इतिहास की काई ढोने वाले, बहु-पहचानों से आतंकित हम लोगों की मुक्ति का रास्ता तलाशती हैं।
स्त्री होने के अनावश्यक बोझ से मुक्त हैं। कुछ कुछ उसी तरह जैसे राजेन्द्र यादव ने मन्नू भंडारी के लिए कहा है।
स्वागत. 💐
शानदार कविताएँ।बधाई।सदानीरा का धन्यवाद।
बहुत सुन्दर कविताएं, बधाई।
मेरे बेटे
मेरे बेटे
कभी इतने ऊँचे मत होना
बहुत ही सटीक कविता है बहुत ही उम्दा …शिक्षा का आधार ही यही होना चाहिये।
बहुत बहुत आभार इतनी बेहतरीन कविताओं से साक्षात्कार करवाने के लिये..
मेरे बेटे मैंने अपनी FB wall पर शेयर भी की है..
बस यही गुजारिश है इतनी अच्छी कलम कभी रुके नही..
केदारनाथ सिंह की एक कविता है ‘कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए’ आपकी कविता ‘मेरे बेटे’ भी कुछ-कुछ इसी तर्ज पर लिखी जान पड़ती है। बधाई!!
मैम 🙏
आपकी उपरोक्त कुछ कविताऐ रूढ़िवादी सोच व सदीयों से चली आ रही गुलाम मानसिकता पे कठोर प्रहार करती है।
“मेरे बेटे” जीवन की यथार्थ को बताता है।
धन्यवाद ।
बहुत शुक्रिया
यथार्थ हे जुडी कविताऍं पढकर खुशी हुई.
अप्रतिम❤️ मैम
बहुत उम्दा कविताएँ … मेरे बेटे तो लाज़वाब ।