कविताएँ ::
समृद्धि मनचंदा
मेरी देह
मेरी देह
तुम्हारी विश्रामस्थली है
जिसे तुम बरतते हो
सुख के मौसम की तरह
पर मेरी आँखें
पीड़ा का वक्षस्थल हैं
जिसे तुम छू भी नहीं पाते
पिछली बार तुम
जन्मे थे मुझसे
इस बार मुझमें
सुस्ताते हो
यह देह
माटी नहीं पाषाण है
जिसे याद हैं अपने घुमाव
मेरे नाभि-स्थान से
आती है कमल की गंध
जिसे तुम
भींच नहीं सकते
देखो! मेरी नाल के
एक सिरे से बँधी है धरा
दूजे सिरे पर क्षीर-नदी है
मेरी देह एक जंगल है
आओ!
एक रात इससे गुज़रो
खो जाओ!
पर यह घर नहीं है
न तुम्हारा खेत
यह ब्रह्मांड की छत है
इसे देखो
जैसे
देखा जाता है
अखंड अनादि संगीत
इसमें रुको
बनकर तंद्रा नहीं
एक गूढ़ चिरनिद्रा।
ये यात्राएँ
ये यात्राएँ
जो हम करते हैं
नितांत एकाकी हैं
देखो!
हमारे दुःख में
कितनी निजता है
हम नहीं भूलते
यात्रा में उसे
साथ ले जाना
हम
दुःख के प्रहरी हैं—
लंबे प्रवास के आदी
हम नहीं भूलते
दुःख पर
अपनी एकल निष्ठा।
मैं महसूस करती हूँ
मैं महसूस करती हूँ
अपनी आत्मा में
सरक आई
धूप को
मैंने एक नदी से सीखा है
प्रेम का तत्त्व
एक दरख़्त से जाना
छाँह की अनुपस्थिति को भरना
जब पर्वतों के संसर्ग से
शब्द प्रतिध्वनि बनकर लौटा
मैं बूझ पाई
भाषा की दरिद्रता
मुझे
मेरे पाँवों ने दिया
दुःख से थिरकने और
सुख में ऊँघने का बोध
मैं अपने गर्भ में
ईश्वर को महसूस करती हूँ
वह निर्लेप प्रार्थनाएँ
बड़बड़ाता है
मुझे उसे सिखलाना होगा
नदी दरख़्त पर्वत
और पाँवों-सा
आस्थावान होना
देखो! मेरी पीठ पर
धूप और बारिश के निशान हैं
यही है ईश्वर के चाबुक से निकली
सबसे निर्मल चोट
मेरी आत्मा जानती है
एक साथ ही भीग जाने और
सूखने का आश्चर्य
वह अब एक नौका का ध्यान करती है—
दिन-रात।
सबसे शांत स्त्रियाँ
सबसे शांत स्त्रियाँ
अगले जन्म में
बिल्लियाँ होंगी
वे दबे पाँव आकर
टुकुर-टुकुर देखेंगी
तुम्हारा उधड़ा जीवन
एक नर्म धमक के साथ
कूद जाएँगी वे तुम्हारी नींद में
ख़लल बनकर
जब तुम उठकर लपकोगे
तुम्हारी दुत्कार से पहले ही
वे हो जाएँगी ओझल
सबसे शांत स्त्रियाँ
चतुराई से बचा लेंगी थोड़ा-सा वक़्त
थोड़ी-सी उत्सुकता
तुम्हारी नज़र बचाकर
वे सीख लेंगी अटारी चढ़ना
और दीवारें फाँदना
इन संकोची स्त्रियों की
ताक में रहेंगी
बिल्लियाँ भी आजन्म
अगले जन्म में
ये सारी उद्दंड स्त्रियाँ
दबोच लेंगी तुम्हारी एकछत्र भीरुता
सच! सबसे शांत स्त्रियाँ
अगले जन्म में
बिल्लियाँ होंगी—दुस्साहसी!
सच!
सबसे शांत बिल्लियाँ
अब भी हैं स्त्रीवादी!
आएगी बाढ़
आएगी बाढ़
डूब जाएगा गाँव
घोषित होगा
अनुदान
आएगी बाढ़
घोषित होगा अनुदान
डूब जाएगा
आदमी
आएगी बाढ़
डूबने के लिए
आदमी को
मिलता रहेगा अनुदान।
साधारण आदमी
साधारण आदमी
चल पड़ता है
कहीं से… कहीं के लिए भी
इतना चलता है कि
उसके चलने से
सपाट हो जाती है धरती
और जब भी चलता है
तब जहाँ से चलता है
लौटकर वहीं पहुँचता है
वह समतल सपने देखते हुए
परिक्रमा करता है
एक गोल रोटी की
परिक्रमा करता है
अपनी ही कील पर
अपने ही दुःख की
एक साधारण आदमी
स्वभावतः चल पड़ता है
एक दुःख से अगले की ओर
चलता है
डामर की सड़क पर
डामर के पाँव लिए
और जब भी चलता है
उससे थोड़ा गाँव छूटता है
बीत जाता है उस पर थोड़ा शहर
वह नींद के
सपने देखते-देखते
भूल जाता है सोना
साधारण आदमी बहुत चलता है
कभी दुःख के पीछे
कभी दुःख के आगे।
समृद्धि मनचंदा हिंदी कवयित्री हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुत से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : तुम पिंजरे की नहीं जंगलों की हो
बढ़़िया कविताएं हैं।
Bahut hi achi rachna
अच्छी रचना है।👍👍👍
बहुत ही जानदार शानदार कविताएं मनचंदा जी आपने एकदम मन चंगा कर दिया।
I read some of the poems.I found them beautiful and well written.