कविताएँ ::
लता खत्री
रिश्तेदारों में जाते हुए
रिश्तेदारों में जाते हुए पहनने होते गहने
खिले रंग के कपड़े
चूड़ियों से भरे हाथ
सिर पर पल्लू थोड़ा आगे तक खींचा हुआ
जातरुओं को फेरी देनी होती
और भैरू जी को चढ़ाना रहता चूरमा—
सवा किलो
मंगतों के लाचारी भरे चेहरे
चिटक-चिटक परसाद
धोबा भर चूरमे से भरे हाथ
तालाब की सीढ़ियों पर बैठा अनमना कुत्ता
मीठा खाकर अकुलाया हुआ
लंबे घूँघट में जात देने आई नई दुल्हन
दूसरी जाति में परणिजा हुआ पढ़ा-लिखा छोरा
मेला था यहाँ-वहाँ छितराया हुआ
एक खंडहर की साळ
थान पर ली गई हर फ़ोटो के बैकग्राउंड में
निर्लिप्त खड़ी रहती हर बार।
नाटक
पूछे गए सवाल का जवाब न में होगा
यह जानते हुए भी सवाल पूछे जाते रहेंगे
बंद खिड़कियों के ज़ंग लगे दरवाज़ों को
खोलने की इजाज़त माँगी जाती रहेगी
शहर के टाउनहॉल में
खेले जाते रहेंगे स्त्री-मुक्ति के नाटक
तुम अपनी डायरी में घिसती रहना एक ऐसा पेन
जिसकी स्याही सूख गई है
झटकना हाथों को ग़ुस्से में
कि चल पड़ेगा शायद फिर अटक-अटक कर
यहाँ सभी बोल रहे हैं किसी ओर की बात
तभी तो कहते हैं पढ़-सुनकर दूसरों को—अद्भुत है!
यात्रा
कितने पश्चाताप
देर तक जागने के
और देर से उठने के
फिरती रहती हो फिर
अपराधी की तरह
हड़बड़ी में
काम निबटाकर
गर्दन झुकाए हुए
नज़र बचाकर
अपने किए को
मिटाती रहती हो
जन्म से गठरी उठाते हुए
मरने तक बोझ ढोती हो
कितने पश्चाताप ढोती हो
ओह! तुम अकेले
यात्रा करने के विचार मात्र से
अपराधबोध से भर जाती हो
मन ही मन खिल्ली उड़ाती हो
अपनी उस कल्पना की जिसमें
सेकंड क्लास की एक बोगी में बैठकर
तुम ‘बिनोदिनी’ को फिर से पढ़ रही हो
कितनी निश्चिंत!
क्योंकि
कुछ देर पहले
धड़धड़ाती हुई ट्रेन
जब एक पुल से गुज़री थी
तुमनें अपने छोटे से झोले से
एक बड़ी-सी गठरी को निकाल
पानी में धकेल दिया था
हौले से
सबकी नज़रें बचाकर।
क़िला
ज़ेहन के भीतर बसता है
अपराजित क़िला
या क़िलेनुमा कमरा
जिसके बंद दरवाज़े पर
लगी है कुंडी
ताला ज़ंग लगा हुआ
जहाँ टूटती आईं
सहानुभूति की चाबियाँ
जिसमें वर्जित है
बाहरी प्रवेश
वहाँ कोई नहीं जाता
त्राटक के साधक
तुम्हें लौटना होगा।
दो मिनट का मौन
दो मिनट का मौन
पहली बार कब रखा था
याद नहीं
शायद उस अँधेरी कोठरी में
जहाँ माँ ने जना मुझे
और बूढ़ी थकी दाई ने कहा माँ को
कि बच्चा जनते हुए
मुँह से आवाज़ मत निकालो
इससे पीड़ा बढ़ती है
मुँह भींचकर रखने से अदम्य शक्ति में बदल जाता है दर्द
फिर कहा—मुझ नवजात से—
दो मिनट चुप रहो
दुनिया में आई ही हो अभी और बाँय… बाँय…!
मगर जो पहला मौन याद है
वह स्कूल में रखवाया गया था
कौन मरा था
ओह! माफ़ करना
गुज़रा था
(किसी के जाने के बाद वह हो जाता है सम्माननीय)
हाँ तो कौन गुज़रा था यह तो याद नहीं
मगर उसके बाद समय-समय पर
धारण करती रही हूँ मौन
‘क्या होता है मौन होने से?’
पूछा था पिता से मैंने यह सवाल
जब पहली बार किया था
यह अजीब लगने वाला काम
‘मरने वाले के लिए प्रार्थना होती है मौन में!’
‘मैं हँसती हूँ मगर पिता, बाक़ी सब भी ऐसा करते हैं मन ही मन’
‘नहीं हँसोगी जब हो जाओगी बड़ी
जब समझने लग जाओगी चले जाने का अर्थ
जानोगी क्षति की क़ीमत!’
क्षतिपूर्ति संभव नहीं
दो मिनट के मौन की
जो बचपन में मुँह पर हाथ रखे हँसता था खीं खीं
उसको मरे हुए बहुत साल बीते
अभी-अभी जाना जब टटोल रही थी उसे किसी ज़रूरी काम से
मगर हाय कंकाल!
लता खत्री (जन्म : 1970) की कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। वह एक गृहिणी हैं और जोधपुर (राजस्थान) में रहती हैं। उनसे khatrilata1970@gmail.com पर बात की जा सकती है।