कविताएँ ::
ओमप्रकाश मिश्र
आँखों का फ़र्क़
किताबों का भारी बस्ता टाँगे कंधे पर
स्कूल से लौटती हैं
तुम्हारी आँखें खोजती हैं मुझे
बताने के लिए दिन भर की तमाम बातें
किस मैडम ने डाँटा था तुम्हें
किस सहेली से हुई थी तुम्हारी लड़ाई
किस-किसने मिल बाँटकर खाया था टिफ़िन
किसने किसकी टॉफ़ी चुराई
मैं भी, लौटा हूँ थका हुआ दफ़्तर से
मेरी आँखें पहने हैं नक़ाब
छुपा लेती हैं दिन भर की घटनाएँ—
किस अफ़सर ने डाँटा
किसे रिश्वत दी, किससे रिश्वत खाई
किस बात पर, बड़े साहब ने बैड एंट्री लगाई
कुछ भी तो नहीं बता पाता मैं
मेरी नन्ही दोस्त
तुम्हारी आँखें सब कुछ बताकर
हो जाती हैं निश्चिंत
दप-दप करती हैं,
मेरी आँखें
सब कुछ छुपाकर होती हैं चिंताग्रस्त
बुझी-बुझी रहती हैं।
अख़बार
जैसे ही आता है सुबह का अख़बार
झपटती हैं तुम्हारी आँखें
गिनती हैं मरे हुए लोगों की संख्या
अख़बारी ख़बरों का तुम उड़ाती हो मज़ाक़
पड़ोस के बच्चों के साथ
लगाती हो शर्त रोज़
किसके अख़बार में मरे हैं ज़्यादा लोग
और जीतने के लिए, अक्सर
करती हो बेईमानी
अभी तो बहुत छोटी हो
नादान हो तुम
लेकिन कल, जब समझने लगोगी
बलात्कार और बहू-दहन का अर्थ
तब भी तो, इसी तरह
आँकड़े परोसेंगे अख़बार
लेकिन, नामालूम ढंग से
तब तक
संवेदनाओं को कुंठित कर चुके होंगे वे
चाहे ज़हरीली शराब हो
चाहे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ज़हर
भूकंप से मरे हों लोग
या खाड़ी के युद्ध में
आहिस्ता-आहिस्ता, मौत
बन चुकी होगी तुम्हारे लिए
महज़ एक आँकड़ा
बढ़ रही होगी
इसी छद्म रूप में
जन-जन की ओर
मेरी नन्ही दोस्त!
कैसे महसूस करोगी, फ़र्क़ तब
पुलिस मुठभेड़ में मारे गए
एक क्रांतिकारी और एक शातिर डक़ैत में?
नशा और महाशम्भु की पलकें
ऊब चुके हैं वे
बंद कमरों में
आँसुओं से तर
बेबस-बिलखती देह का
लगाते हुए भोग
नशे की तेज़ दुलत्ती ने
दिमाग़ को
पहुँचा दिया है
सातों आसमान के पार
अब केवल बलात्कार से
तुष्ट नहीं होता
उनके पौरुष का अहंकार
सभ्यता की
इक्कीसवीं सदी के लिए
जारी हैं
नए प्रयोग
लाठियों, जूतों-चप्पलों से पिटती
निर्वस्त्र औरतों का रेवड़
गलियों-सड़कों और चौराहों पर
हाँकने के दिन आ गए हैं।
विकास के भव्य राजमार्ग पर
चाबुक फटकारते
एक नए पड़ाव तक
पहुँच चुका है
उनका हिरावल दस्ता
शराब से
नहीं उठती अब
नशे की तेज़ तरंग
शिराओं में दौड़ती
स्मैक की गोलियों के बिना
जीवन का स्पंदन
महसूस नहीं होता है उन्हें
हाहाकार और चीत्कार
से कम कोई भी ध्वनि
नहीं देती संगीत का आनंद
विधर्मी के पेट से
निकाली जाती अँतड़ियों
काटे जाते स्तनों
और गुप्तांगों को
भाले की नोक से
विदीर्ण करते पैशाचिक अट्टहास के
फ़िल्मांकन से कम पर
तृप्त नहीं होती है
उनकी कलात्मक अभिरुचि
दूसरों की धार्मिक भावना पर
किए बिना आघात
अधूरा रहता है धार्मिक आचरण
और अपने को
सारी दुनिया का सिरमौर
साबित किए बिना
पनप ही नहीं पाता
उनका राष्ट्रवाद।
नशे के हज़ार रंग हैं
ज़हर के हैं हज़ार रूप
टूटते नशे से
ऐंठती तंत्रिकाएँ
माँगती हैं
और भी तेज़ ख़ुराक
शिराएँ चाहती हैं
ख़ून में और भी तेज़ उफान
मादक द्रव्य अधिनियम की
पहुँच से बाहर भी
इतनी दिशाओं में फैली हुई है
नशे की वीभत्स दुनिया
कि सबसे खतरनाक ‘डोप-पुशर’ पर
लागू ही नहीं होती
क़ानून की कोई धारा
किसी भी मादक पदार्थ से
ज़्यादा आकर्षक
और ज़हरीला स्वप्नलोक
रच रहे हैं विज्ञापन
अगर सिर्फ़ बोर्नवीटा पिलाने से
बच्चा आने लगे
हर प्रतियोगिता में अव्वल
क्लियरसिल लगाने से
पक्की हो जाय सगाई
और कोलगेट या लिस्टरीन माउथवाश
दूर कर दे
सहजीवन की कड़वाहटें
अगर सिर्फ़ पेप्सी रखने से ही
मेहरबान होती हो अप्सरा
तो दाँव पर
क्यों न लगा दे कोई
जेब की आख़िरी रेज़गारी तक?
सेंधमार व्यापारियों ने
खोदी है हर क़ानून में सुरंग
धरती की छाती रौंदते हुए
गुज़र रहा है
सदी के जघन्यतम अपराधों का जुलूस
और
रोने के लिए
नहीं बची है
शताब्दियों की आँख में
एक भी बूँद
मंदिरों में
जारी हैं दिन-रात
फ़िल्मी धुनों पर कीर्तन
मस्जिद से उठती
अज़ान के स्वरों में
नहीं है ज़रा भी कँपकँपाहट
कहीं कोई व्यवधान नहीं आया है
गिरजाघरों की प्रार्थनाओं में
नशे के सितार पर
मृत्यु के स्वर साध रहा है
मुनाफ़े का गणितज्ञ
धरती से भी बड़ा हो गया है
रुपए का आकार
रोटी से भी
छोटी होती ज़िंदगी में
जब भी होता है
चेतना की शिराओं का
कोई विस्फोट
कल की रोज़ी का सवाल
पावों से बाँध देता है हिमालय
सपनें देखता मन
रातों-रात बनता है कुबेर
और सुबह
लाटरी के स्टॉल पर
बेच देता है बर्तन और कपड़े
रुपया खींच रहा है रुपए को
छोटे ढेर
खिसक रहे हैं बड़े ढेर की तरफ़
बड़े ढेर गतिमान हैं
सात समंदर पार
और भी बड़े ढेर की ओर
आणविक हथियारों से
कहीं अधिक मारक है
रुपए से निकलता विकिरण
डंकल महाविस्फोट के आगे
बौनी हो गई है
तमाम परमाणु परिसीमन संधियाँ
एड्स की काट
खोज भी लेते हैं अगर जीव वैज्ञानिक
कौन रोकेगा
महाजनी पूँजी के
संक्रामक विषाणुओं को?
अगर मनुष्य के रिश्तों की
स्थापित नहीं होती है
नई परिभाषा
बदली नहीं जाती है
यदि पूरी जीवन-दृष्टि
तो निश्चय ही
जुरासिक पार्क में बदल जाएगी
समूची धरती
एकाधिकार के नशे की जीन पर
चल रहा है
एक महत्वाकांक्षी प्रयोग
वित्तीय पूँजी के
भ्रूण डायनासोर
जिस दिन लेंगे विराट आकार
उस दिन नहीं
बची होगी
कोई भी शरणस्थली
नशे में डूबे जनसमूह को
यंत्र मानव में
बदल रहे हैं
नशे के व्यापारी
अहिल्या को
शिलावत नहीं करते अब गौतम
निर्वासित सीता
वाल्मीकि के आश्रम की जगह
पहुँचाई जा रही है
रूप के बाज़ारों में
और सब कुछ को
घाटे-मुनाफ़े के पैमाने से नापता
निरुपाय खड़ा है
एक अपार जनसमूह
फैल रहा हो नशे का ज़हर
या ज़हर का चढ़ रहा हो नशा
विकृत तो हुआ है
संवेदना का तंत्र ही
क्या फ़र्क़ पड़ता है
कि नसों में
ख़ाली की गई हो नशे की सिरिंज
या धँसे हों विषधर के दाँत
अनजाना तो नहीं है उन्माद
जिसके आग़ोश में
समारोहपूर्वक क़त्ल कर दिए जाते हैं
जाति-धर्म की दीवारें तोड़ते
प्रेमी युगल
अनवरत
टपक रहा है किसी न किसी का लहू
इसीलिए तो आज तक
सूखा नहीं है
शम्बूक के ख़ून का दाग़
ऊर्ध्वगामी विचारों की राह में
चप्पे-चप्पे पर हैं
भाले की नोक जैसे काँटे
लहूलुहान
अंतिम साँसे गिन रही है
एक बूढ़ी सदी
वर्चस्व के दंभ में डूबी
संस्कृति में
भले ही नहीं आया है
कोई गुणात्मक बदलाव
भले ही रुकी नहीं है
कुरुक्षेत्र में
तीरों की बौछार
पर इतना तो हुआ है
कि बदल गई है
महाभारत के पात्रों की जगह
द्रोपदी को दाँव पर लगाने वाले लोग
खड़े हो गए हैं
दुर्योधन के ही ख़ेमे में
किंकर्तव्यविमूढ़
कुंती के हाथों में भी
थमा दी गई है
आँखों पर बाँधने की पट्टी
और चक्रव्यूह के आठवें द्वार पर
अभिमन्यु की जगह
हाथों में थामे हुए
समय का पहिया
निहत्था खड़ा है
एकलव्य
इतिहास की पलकों की नोक पर
बड़ी देर से ठहरी हुई है
आँसू की एक बूँद
इस घटाटोप अँधेरे में
आशा जगाती है
प्रकाश की बस एक ही किरण
कि महाशम्भु जनगण को
नशे की
इस महानिद्रा से जगाने की
अनवरत तपस्या में
लीन है कोई भगीरथ
ताकि
आसेतु हिमाचल फैली जटाओं में
व्यवस्थित हो सके
परिवर्तन की वेगवती गंगा
बहुत अच्छा लगता है
जब बच्चों के ख़ून में
अन्याय के ख़िलाफ़
होती है तिलमिलाहट
मुस्कुरा उठते हैं आँसू
जब नन्ही आँखों में
लहराता दिखता है
करुणा का अथाह सागर
जल्दी-जल्दी
बदल रहे हैं मौसम के तेवर
धधकते खेत खलिहान से
उभर रहा है
जागरण का शोर
शायद निकट आ रहा है
प्रतीक्षित समय
शायद काँपी है
महाशम्भु की पलकें!
जुलाई, 1994
ओमप्रकाश मिश्र की यहाँ प्रस्तुत कविताएँ ‘सदानीरा’ को अखिलेश सिंह के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं, इस परिचय के साथ—‘‘ओमप्रकाश मिश्र उत्तर प्रदेश के जनपद जौनपुर में तरसावाँ गाँव में रहते हैं, जहाँ उनका जन्म 7 फ़रवरी 1955 को हुआ। सरकारी नौकरी से संबद्ध होने के साथ ही वह बतौर रंगकर्मी ‘परचम नाट्य संस्था’ (जौनपुर) से जुड़े रहे हैं। इसके अतिरिक्त सांप्रदायिकता और अन्य सामाजिक समस्याओं पर लघु पुस्तिकाओं का संपादन-वितरण करने के साथ ही वह अनुवाद और कहानी-लेखन भी करते रहे हैं। यहाँ प्रस्तुत तीन कविताएँ उनके कविता-संग्रह ‘नन्ही दोस्त के नाम’ (परिकल्पना प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 1995) से ली गई हैं। यह कविता-संग्रह एक बच्ची के बाल-सुलभ व्यवहारों और उनके परस्पर संबंधों के सूक्ष्म दैनिक विवरणों से पूरित है, जिसमें कवि ने अपनी उस ‘नन्ही दोस्त’ को संबोधित करते हुए अपने युगबोध का परिचय दिया है। इस संग्रह की अधिकतर कविताएँ नब्बे के दशक में लिखी गई हैं। इन कविताओं में बदलावों के शोर और वैश्वीकरण के अंतर्विरोधों से भरे हुए नब्बे के दशक में बड़ी हो रही बच्ची की चेतना तथा उसके भविष्य को लेकर कवि एक अभिभावक की तरह आशंकित हैं। ओमप्रकाश मिश्र से opm070255@gmail.com पर बात की जा सकती है।”