कविताएँ ::
पायल भारद्वाज

पायल भारद्वाज

घृणा

घृणा एक कट्टरपंथी शब्द है—
एक कठोर सँकरा अनुदार शब्द

असहमति में शेष रहती है—
संभावना सहमति की
अप्रियता में प्रियता की
अमित्रता में मित्रता की

प्रतिकूलताओं के
बड़े और भारी पत्थर के नीचे
बची रह जाती है
अनुकूलताओं की छटाँक भर नमी

पर घृणा में कुछ नहीं बचता
प्रतिकूलता भी नहीं
बचती है तो केवल घृणा
जिसे बोलते वक़्त तुम
‘र’ को जितना घुमाओगे
वह उतनी ही गाढ़ी होती जाएगी।

धर्म

धर्म बताएगा
कि किस भाषा में रखा जाए तुम्हारा नाम
पर काग़ज़ और क़लम नहीं देगा
उसे लिखना सीखने के लिए

धर्म बताएगा
तुम्हें पानी के प्रयोग के ढंग
दैहिक पवित्रता के लिए
पर पानी नहीं देगा—
अनुपलब्धता की स्थिति में

धर्म बताएगा
तुम्हें प्रार्थना का तरीक़ा
पर ज़मानत नहीं देगा
प्रार्थना स्वीकार होने की

धर्म बताएगा
कि क्या सुलूक करना है
तुम्हारी मृत देह के साथ
और तमाशा ख़त्म होने पर
खीसें निपोरकर बजाएगा ताली
अपनी जीत की ख़ुशी में…

कविता छूट रही है

आटे की लोई और कविता की भूमिका
दोनों साथ-साथ बनते हैं
बेलन की चोट से लोई बढ़ती है,
कविता नहीं।

विचारों और भावों को आग में झोंककर
सेंकी जाती हैं रोटियाँ
(पेट की दुनिया में रोटियों का जलना वर्जित है)
सालन की तरी में डूबकर मर जाते हैं शब्द
रसोई को तारीफ़ें मिलती हैं,
कविता को उपेक्षा!

स्वाद-ग्रंथियों को नागवार गुज़रती है—आत्मप्रवंचना
आत्महनन से सिकुड़ती जाती हैं आँतें
जैसे-तैसे निगल ली जाती है
आख़िर में बनाई गई एक बेढब रोटी।

जीने की प्रक्रिया में चलते रहना ज़रूरी है
पर शरीर के साथ मन भी चले…
ज़रूरी नहीं।

डूबते सूरज और छूटती कविता के साथ
मन भी डूब जाता है कई बार…
(सूरज डूबता है,
छूटता नहीं!)

कविता छूट रही है—
जैसे छूटता है घर के कामों में समय,
जैसे छूटती है उम्मीद,
जैसे छूटता है जीवन।

छितरा हुआ प्रेम

तुम्हें निपट अकेले आना था
जैसे आता है एक सद्य जन्मा शिशु
पर तुम आए दायित्वों और चिंताओं के साथ
भय, निंदा, अपयश जैसी तमाम दुनियादारियों के
कड़े और भारी लिफ़ाफ़े में इस तरह पैक्ड
कि चरमरा गए मुझ तक पहुँचते-पहुँचते
और मुझे मिले—जहाँ-तहाँ से फटी केंचुली की भाँति—
केवल तुम्हारे अवशेष

मुझे मिले छितरे हुए प, र, ए और म
जिन्हें जोड़-समेटकर तुम्हें साकार रूप देने की कोशिश की मैंने
यह भूलकर कि तर्क और युक्ति बुद्धि को संतुष्ट कर सकते हैं
आत्मा को नहीं
यह भूलकर कि प्रेम बौद्धिकता की नहीं
आत्मीयता की विषयवस्तु है
तो आश्चर्य कैसा यदि आज पुन: छितरे पड़े हैं तुम्हारे अवशेष
और तालियाँ बजाकर अट्टहास कर रही है मेरी आत्मा।

मज़दूर

दोनों हथेलियों में दस शंखों को कसे जन्म हुआ मेरा
ब्रह्मा भूल गए मेरी उँगलियों पर चक्र बनाना
भयमाता भूल गईं सुनहरी स्याही लाना
छठवीं के दिन
मेरी आँखों में लगे मोटे-मोटे काजल से लिखे गए
मेरी क़िस्मत के दस्तावेज़

पिता भूल गए मेरे भविष्य के लिए गुल्लक बनाना
बिल्कुल वैसे ही जैसे उनके पिता भूल गए थे
या संभवतः न भूलकर भी याद न रख पाए हों

मुझ सीढ़ी के पहले पायदान पर
अपना सारा भार रखकर
ऊपर चढ़ते हुए
यह समाज भूल गया
मुझे सिद्ध और समर्थ बनाना
मेरा नाम रट-रटकर बनी सरकारें भूल गईं
मेरे हित में योजनाएँ बनाना

केवल एक मृत्यु है जो सब याद रखेगी
जो याद रखेगी कि कब और कैसे सुधारना है
इन सबकी भूलों को
वह आएगी और फिर सब ठीक हो जाएगा।


पायल भारद्वाज (जन्म : 1987) की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ से वाणिज्य में स्नातकोत्तर हैं। इन दिनों दिल्ली में रहती हैं। उनसे payalbhardwajsharma1987@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. yogesh dhyani जुलाई 22, 2021 at 4:59 अपराह्न

    achchi kavitayen

    Reply
  2. Sagar जुलाई 24, 2021 at 7:33 पूर्वाह्न

    सुंदर कविताएँ

    Reply

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