कविताएँ ::
प्रियंका दुबे
आत्म-मृत्यु
(आत्म) हत्या की नोक पर
मेरी हत्या की नोक
हिंदुस्तान और पाकिस्तान की
उस सीमा पर ठुकी हुई है
जहाँ कभी बेसुध पड़ा
टोबा टेक सिंह
बिलख-बिलखकर अधमरा हो गया था।
तुम्हारे प्यार में मेरे यूँ बेघर होने को
कौन समझता है,
इक टोबा टेक सिंह के सिवा?
बॉर्डर पर लोटता-फड़फड़ाता उसका शरीर,
और, मेरे कानों में बजता उसका सतत विलाप
मुझे जीने नहीं देता।
मेरे आँसू?
आँसुओं से गीली मेरी चीख़ें
उसे मरने नहीं देतीं।
यह और बात है कि उसे लिखने वाले को
मरे हुए भी सदियाँ बीत चुकी हैं।
लेकिन मंटो के मरने से
टोबा टेक सिंह तो मरा नहीं करते न!
टोबा टेक सिंह
प्यार के बहाने घर
और
घर के बहाने प्यार ढूँढ़ती
हर टूटी लड़की के दिल में ज़िंदा रहता है—
तब तक
जब तक वह लड़की
अपनी हत्या की नोक ख़ुद ढूँढ़ती हुई
अधमरी नहीं हो जाती।
रिहाई
जब दुनिया देती है दुःख
तब सोचती क्यों नहीं
कि इतने दुखों से मर जाता है इंसान?
थमता ही नहीं है
स्त्री पर उठाए गए हिंसक हाथों
निर्वासन से पहले ही जला दिए गए घरों
पुरानी बीमारियों से मर रहे बच्चों
और टूटे हुए प्रेमों का सिलसिला।
सिल्विया प्लाथ के पास
कम से कम एक तरह का
प्रतिशोध तो था।
लेकिन माफ़ी और सिर्फ़ माफ़ी में डूबी
इस भारतीय लड़की के पास
तो प्रतिशोध भी नहीं।
सारा दिन रोती रही है वह
न ही दुःख कम हुआ
और न ही
मन में बदले की कोई भावना ही जागी।
हर रोज़ उसकी नसों में
अँधेरा भरती है दुनिया
यूँ भी
अँधेरे में मरी पड़ी लड़की के लिए
मृत्य की चाह कोई विकल्प नहीं
सिर्फ़ एक रिहाई भर है।
जन्मने के ख़िलाफ़
पुनर्जन्म के उस सपने पर विश्वास करना चाहती हूँ
जिसमें देखा कि मैं,
हिमालय की सदियों पुरानी पर्वत-शृंखला पर
एक नया पहाड़ बन कर जन्मी हूँ।
पुराने जन्म के सारे दुःख
जो घिसटते-घिसटते मेरे साथ
इस नए जन्म तक आ पहुँचे हैं,
उन्हें मैंने,
एक बर्फ़ीली नदी के रूप में
अपने सीने से उतार कर
बहा दिया है।
लेकिन,
एक बार जो मुझसे फूटी तो
दुखों की यह नदी कभी सूखी ही नहीं!
पहाड़ जितना मज़बूत बनकर भी
जब दुखों से मुक्ति नहीं मिलती
तो आख़िर हम संसार में
मज़बूती को मूल्य मानते ही क्यों हैं?
शायद श्रेष्ठ सिर्फ़ मृत्यु है।
क्योंकि,
उसके पहाड़ में
जन्म की पीड़ा ही नहीं।
इच्छा-मृत्यु
मित्रता में मिला एक पत्थर भी जब
पूरे पहाड़ का भार लिए गिरता है मेरे कंधों पर,
तो उठाती हूँ पूरा पहाड़,
रियायत नहीं माँगती।
टँगी रहती हूँ,
उस तलवार की लपलपाती नोक पर
जिस पर बरसों टाँगे रखता है प्रेम।
रियायत नहीं माँगती।
आख़िर यही तो चाहा था मैंने!
जिसको मित्र मानूँ,
वही मुझे नष्ट करे।
जिसको प्यार करूँ,
वही मेरी मृत्यु का कारण बने।
ख़ुद मरना तो सरल था,
लेकिन प्रेम में ‘मारे जाने’
से ज़्यादा वांछित
प्रेम की परिणिति
और क्या हो सकती थी?
प्रेम मेरी हत्या कैसे करेगा?
प्रेम मेरी हत्या कैसे करेगा?
कैसे हो पाएगा वह
मेरी उस गर्दन पर चाक़ू रख पाने जितना निष्ठुर
जिस गर्दन को उसने सालों
अपनी साँस की धुरी माना था?
मुझे हमेशा से सिर्फ़ इतना ही जानना था कि
प्रेम मेरी हत्या कैसे करेगा?
कैसे घसीट पाएगा वह मुझे हर रोज़
एक नए अँधेरे में?
कैसे ज़ख़्मी करेगा बार-बार
दोस्ती में आगे बढ़े मेरे हाथ?
क्या प्रेम की मृत्यु में डूबते ही
मृत्यु का स्पर्श बदल जाता है?
जिज्ञासा हमेशा जीवन पर भारी पड़ी।
आख़िर कितना क्रूर हो सकता है प्रेम?
यही जानने के लिए
मैंने हमेशा सिर्फ़ प्रेम के हाथों मरना चाहा।
प्रियंका दुबे से परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित उनकी कविताओं और गद्य के लिए यहाँ देखें : स्त्री के पैरों पर │ प्रतीक्षा के बारे में