अ’म्मार इक़बाल की नज़्में ::
उर्दू से लिप्यंतरण : मुमताज़ इक़बाल

अ’म्मार इक़बाल

हमेशा की अधूरी नज़्म

पेंसिल घिस गई,
और अब तो मिरे हाथ में भी फ़क़त,
चार ही उँगलियाँ रह गई हैं मगर,
मैं लिखे जा रहा हूँ
कोई नज़्म जिसमें
मैं क़रनों पुराने
तवह्हुम के आतिशकदे की परस्तिश से उकता चुका,
कोई अध-देवता हूँ!
अपाहिज ख़ुदा हूँ
ज़मीं पर हुए
आसमानी गुनाहों का वो मुद्दआ हूँ,
जो ख़ुद अपने होने पे हैरान है
या’नी आधा ख़ुदा
आधा इन्सान है,
ऐसा इन्साँ जिसे
बंदगी का ज़रा भी सलीक़ा नहीं,
एक ऐसा ख़ुदा
कुछ ख़ुदावंदगी जिसको आती नहीं
जिसके सौ नाम हैं
और कई दीन हैं
अब मिरे हाथ में उँगलियाँ तीन हैं!
मैं वो इन्सान जो
तीसरे रोज़ ही
अपने मरने का ए’लान करने लगा है
समझने लगा है
वो ख़ुद ही ख़ुदा है
सो अब उसकी आँखें ज़मीं पर जमी हैं,
मिरे हाथ में उँगलियाँ दो बची हैं,
ख़ुदा और इन्साँ में ऐसी ठनी है
कि अब मैं
शहादत की उंग…

अंधी पुजारन

जा के अंधी पुजारन को पैग़ाम दे
उसका मन्दर1मंदिर (अस्ल लफ़्ज़ ‘मन्दर’ ही है) गया
देवता मर गया
उसके मन्दर में कल शाम होते ही बदमस्त परियों का मेला लगाया गया
ख़ूब झूमा गया
ख़ूब गाया गया
देवता अर्ग़वानी शराबों के नश्शे में धुत
सारी परियों की बाँहों में आया-गया
रक़्स होते रहे
ऐश चलते रहे
धूल उड़ती रही
देवता के पुजारी किनारे खड़े हाथ मलते रहे
और अंधी पुजारन किसी पेड़ को
देवता जान कर
उसकी शाख़ों से नीली, हरी, जामुनी
डोरियाँ बाँधती रह गई…

अलार्म

सियह परिंदा
सुनहरे सूरज को अपने सिर से गिरा चुका है
जो धूप निकली थी
अब दरख़्तों पे चढ़ के खिड़की तक आ गई है
हवा ने पर्दा हटा दिया है
तो पेंटिंग में
अ’ज़ाब सहते हुए ग़ुलामों का रंग तब्दील हो गया है
मिरे कैलेंडर से बर्फ़ गिर कर पिघल रही है
घड़ी से चिड़िया निकल के चीख़ी है… वक़्त कम है!
बटन दबाने पे ख़्वाब मिसमार हो रहे हैं
जो सो रहे थे
वो सो रहे हैं

यकसानियत

वो मछलियाँ थीं
वो सात शीशे के मर्तबानों में
बारह रंगों की
तीस रंगीन मछलियाँ थीं
जो अपनी रंगत में,
अपनी हेयत में एक-दूजे से मुख़्तलिफ़ थीं
और अब अचानक
किसी ने शीशे के एक बर्तन में
सबका पानी उलट दिया है
निज़ाम सारा पलट दिया है
उलट-पलट में
बहुत-सी रंगीन मछलियाँ तो
तड़प-तड़प कर ही मर गई हैं
और एक उनमें से बाक़ी सबको निगल गई है
मैं मुद्दतों से
उस एक मछली के पेट में हूँ

कहानी जो औंधी पड़ी है

कहानी के बीमार होने से पहले तो मेला लगा था
मगर अब कहानी
अकेले में
काग़ज़ के बिस्तर पे औंधी पड़ी है
कहानी तसव्वुर की चादर से थोड़ी बड़ी है
कहानी तो अंजाम से पहले मरने लगी है
कहानी कि जिसको बचाने की ख़ातिर
मैं किरदार को ढूँढ़ता हूँ
मगर कोई किरदार बाक़ी नहीं है
लिहाज़ा मुझी को
ख़ुद अपनी कहानी का किरदार बन कर
कहानी में रहना पड़ेगा
और अंजाम पर ख़ुद
किसी रेलगाड़ी की सीटी पे
लब्बैक कहना पड़ेगा

मंझरूप

तसव्वुर की चिड़ियाँ उड़ीं तो खुला है,
ये चिड़ियाँ नहीं चींटियाँ हैं,
जिन्हें पर लगे हैं,
ये चमगादड़ें हैं,
जिन्हें ग़ार में रहने वालों के जलते अलाव से शिकवा नहीं,
बल्कि भटके हुए एक शो’ले से है
अब अगर,
मैं भी इन सारे रंगों का,
भटकी हुई रौशनी की ज़बाँ में
करूँ तर्जुमा :
जो अँधेरे में पैदा हुए हैं
तो तुम मुझसे चमगादड़ों की तरह कोई शिकवा न करना
मैं कह तो रहा हूँ
कि रंगों की तजरीद से
रौशनी को कोई ऐसा ख़तरा नहीं है
कि तुम उसके होने का इन्कार कर दो,
जो अब तक
तुम्हारे तसव्वुर के इज़हार की तर्जुमानी पे मा’मूर है
वो तसव्वुर…
जो दौरान-ए-परवाज़ पिंजरे से टकरा के
हशरात में आ गया
सख़्त मजबूर है,
इसलिए
अब अगर
तुमको कीड़े से तितली निकलती नज़र आए तो…
तुम मनाज़िर को रीवाइंड करके परखना
समझना कि
मंझरूप बहरूप हरगिज़ नहीं

एक बे-रब्त ख़्वाब

रात एक आँख पर ख़्वाब वारिद हुआ
नील मेरे लिए
अपने सीने को दो-लख़्त करता है और मुझसे पहले वहाँ
मेरे नक़्श-ए-क़दम
मुंतज़िर हैं कि मैं अपने लख़्त-ए-जिगर की बलि दूँ,
जिसे एक मछली ने अब तक किसी भी जज़ीरे पे उगला नहीं
और शहंशाह तक
मुझ नजूमी का पैग़ाम पहुँचा नहीं
अब उसे आने वाले किसी से कोई ख़ास ख़तरा नहीं
ख़्वाब बे-रब्त होकर भी टूटा नहीं…
आँख सदियों की इस नींद में मुस्तक़िल,
एक बाज़ार में,
अपने आँसू का सिक्का लिए दरबदर,
ये तसल्ली किए जा रही है कि वो इस ज़माने से पहले भी मौजूद थी,
उसका आँसू मुक़द्दस तो है,
राइज-उल-वक़्त आँसू नहीं
सो वो चलता नहीं,
ख़्वाब पर एक क़ानून लागू है
और ख़्वाब बे-रब्त है
पर वो क़ानून जो सब्त है
मैंने उसके तहत
सुब्ह-ए-दरिया में कश्ती उतारी नहीं
हुक्म-ए-सरकार है,
रात दीवार है,
ख़्वाब दीवार को चाटता है मगर…
रात भर
और बस रात भर
हाँ मगर
एक दिन,
ख़्वाब रातों से बाहर निकल जाएँगे
और आँखों को मेरी निगल जाएँगे

जन्नती औ’रतें

जन्नती औ’रतों से तो मेरा इलाक़ा नहीं
जन्नती औरतो,
अपने ज़िंदाँ में आबाद हो?
शाद हो?
अपने सय्याद को याद हो?
ख़ैर ज़िंदान की उन हदों तक तो आज़ाद हो,
जिनके बाहर खड़ा मैं तुम्हें
ऐसे तकता हूँ जैसे कोई
जार में बन्द
रंगीन उन तितलियों को तके
जो यहीं पर उगाई गई हैं,
तुम्हें देख कर
मेरे हाथों की सब हसरतें
मेरे पोरों से झड़ने लगी हैं,
इन्हें देख लो!
जन्नती औरतो…!
सिर्फ़ देखो मगर तुम
इन्हें थामने की जसारत न करना
कि मैं हैरती, वहशती
वो जहन्नम हूँ
जिसमें ख़ुदा ने कई जन्नतें झोंक दीं

इसक़ात

गवाह रहना!
मिरे मसीहा गवाह रहना मैं पैदा होते ही मर गया था
गवाह रहना!
मैं आग जलने से थोड़ा पहले झुलस गया था
मैं अपने ज़ख़्मों से रिस रहा था
मैं अपनी आँखों से ख़ून बनकर टपक रहा था
और अपने बाहर किसी मसीहा की जुस्तजू में भटक रहा था
मुझे ख़बर थी,
मैं जानता था,
मैं जानता था मिरे मसीहा को कोढ़ जैसा करीहा, मोहलिक मरज़ हुआ है
वो एक बेहद क़दीम जंगल के इक मुक़द्दस दरख़्त से लग के सो गया है
और उसकी कोशिश है रात होने से पहले-पहले
वो अपने ख़्वाबों में अपने जैसा ख़ुदा तराशे
मसीह इक दूसरा तराशे
सो रात होने से पहले-पहले
वो उस मुक़द्दस दरख़्त की चंद टहनियों को
और अपने हाथों की चार मख़्सूस,
ख़ून आलूद उँगलियों को
(जो झड़ के पत्थर की हो गई हैं)
उठा रहा है
और आग उनसे बना रहा है
मिरे मसीहा गवाह रहना!
कि उसकी वो आग जल चुकी है
मैं जिसके जलने से थोड़ा पहले झुलस गया था

ला-उ’न्वान

एक

कल रात,
मैं बहुत गहरी नींद में उड़ रहा था,
और तुम…
अपनी आँखों के रंग की,
तितलियों से बने हुए लिबास के साथ,
मुझसे गुज़र कर,
रौशनी की तरफ़ चली गई थीं…!
आज सुब्ह,
तुम्हारा आख़िरी ख़त मिला,
जिसमें बस ये लिखा था,
कि ये तुम्हारा आख़िरी ख़त है
मैंने ख़त जलाने की बहुत-सी तरकीबें सोचीं,
और शाम तक ‘दीपक राग’ में सीटियाँ बजाईं…
ख़्वाब के दूसरी तरफ़
आँसू क्या,
आँखों का पानी तक ख़ुश्क हो गया था…
मगर मैं फिर भी
सारी रात जाग कर,
शीशे के जार में,
अकेली गोल्ड फ़िश का इज़्तिराब देख सकता था
वो सफ़ेद पड़ती जा रही थी,
…तुम्हारी आँखों की तरह

दो

यूँ समझो मेरी मोहब्बत
बस स्टॉप पर खड़ा वो आदमी है
जिसको घर जाने की कोई जल्दी नहीं
और तुम वो वक़्त
जिस पर उसे घर पहुँच जाना चाहिए

पाबंदी की डबल नॉट गले में बाँधे घर से निकलना

और वापसी पर मोहब्बत या बस का इंतिज़ार करना
वैसा ही है
जैसा तुम समझते हो

तुम, जो गुज़र चुके हो
और तुम्हारे गुज़र जाने का रंज किया जा चुका है
टाई बाँधना नहीं जानते
सिसकियाँ बाँध लेते हो
जब तुम्हें मेरी मोहब्बत समझ नहीं आती
या जब आ जाती है

तीन

डूबते हुए जहाज़ पर
मोहब्बत का आग़ाज़ करते हुए
अहमक़ जोड़े से
कप्तान को,
जिसने कभी जलपरियाँ नहीं देखीं
उतनी ही दिलचस्पी है
जितनी डूबे हुए जहाज़ के मलबे में
जलपरियों को

चार

मैंने समुंदर का क़त्ल कर दिया है
और उसकी लाश
नहर में फेंक दी है
लाश के हाथ में एक ज़र्द लिफ़ाफ़ा है
जिसमें वो सारी मोहब्बत है
जो मुझे तुमसे करनी थी
तुम,
जो वायलिन की एक मख़्सूस
धुन पर समुंदर से आती थी
और मुझे न जाने कहाँ ले जाती थी
फिर कोई दस तक गिनता था
और सबको छीनना पड़ता था…

ढूँढ़ने वाले…
मुझे तब भी नहीं ढूँढ़ पाते थे
और ये अब भी मुझे गिरिफ़्तार नहीं कर सकते
हालाँकि मैंने समुंदर का क़त्ल कर दिया है

पाँच

सिर्फ़ शाम होने का इंतिज़ार करते हैं
आज नज़्म नहीं लिखते
वरना शाम हो जाएगी

और किसी को अपना मुंतज़िर न पाकर
जूतों समेत सोफ़े पर बैठ जाएगी
इन ना-मा’लूम अफ़राद के अंदाज़ में
जिनमें शुमार होने से
सबको ख़ौफ़ आता है

आज ख़ौफ़ज़दा नहीं होते
सिर्फ़ शाम होने का इंतिज़ार करते हैं
और ख़्वाब टूटने की आवाज़ पर नींद नहीं तोड़ते
बेदार नहीं होते

ये अंदाज़ा लगाने की कोशिश नहीं करते
कि दरवाज़ा किस तरफ़ है

बस मान लेते हैं
कि दस्तक की उम्मीद
कव्वे की आवाज़ से बाँधकर
दरवाज़े पर लटका देना
अच्छा शगुन है

जब तुम नज़र आने लगती हो

जब तुम नज़र आने लगती हो
तो मैं और कुछ नहीं देख पाता
रौशनी से बनी
एक तितली
पानी में खिले फूल पर बैठती है
जिसकी पत्तियाँ काँच की हैं
मैं और कुछ नहीं देख पाता
क्योंकि तुम्हारे इर्द-गिर्द
बहुत गाढ़ा अँधेरा है
तुमसे पहले का अँधेरा
(जो हमेशा से है और हमेशा रहेगा)
और मैं
(जो ख़ुद को इस अँधेरे में रखने पर क़ादिर है)
रौशनी में आ जाता हूँ
मैं तुमको देख कर रौशनी में आ जाता हूँ
मैं दमक उठता हूँ
जब तुम नज़र आ जाती हो
मैं और कुछ नहीं देख पाता
बहुत शोख़ रंगों से बना परिंदा
हल्के गुलाबी रंग के बादलों में
ग़ोते लगाता है
रंग छिड़कता है
गुलाबी रंग के बादल
तुम्हारे इर्द-गिर्द फिरते हैं
जिनसे परे
मैं और कुछ नहीं देख पाता


अ’म्मार इक़बाल (जन्म : 1986) पाकिस्तान की नई पीढ़ी के बहुत संजीदा शा’इर और अनुवादक हैं। उनके अब तक तीन कविता-संग्रह और पाँच अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में लिप्यंतरण के लिए उनके कविता-संग्रह ‘मंझरूप’ से ली गई हैं। मुमताज़ इक़बाल उर्दू-हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध लेखक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : गुमशुदा समुंदर की आवाज़

पाठ में मुश्किल लग रहे शब्दों के मानी जानने के लिए यहाँ देखें : शब्दकोश

1 Comment

  1. सुमित त्रिपाठी अप्रैल 3, 2022 at 11:18 पूर्वाह्न

    अरसे बाद उम्मीद जगाने वाले किसी शायर से रूबरू होना एक ख़ुशगवार एहसास है .

    Reply

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