कविताएँ ::
राही डूमरचीर
बहुत बारिश हुई थी लापुंग में
एक
साथ-साथ भीग कर
तुम्हारी पलकों को
अंतिम बार चूमते हुए
फिर न छू पाने का असह्य दुःख
आखों के कोनों में आकर ठहर गया था
ढुलक आता इससे पहले
‘आता हूँ’ झटके से कहकर सीढ़ियाँ उतर रहा था
तुम कहे जा रही थीं—
‘ठीक से चेक कर लो’
‘कुछ छूटा तो नहीं’
‘इयरफ़ोन, चार्जर, पर्स, पैसे… सब रख लिया है न’
बेख़याली के तूफ़ान में डूबा
कह नहीं पाया
कि जो छूटा जा रहा था
उसे सहेजना संभव नहीं था अब
नीचे तक छोड़ने आती हुई तुम
बार-बार कह रही थीं—
‘ठीक से जाना’
‘ख़याल रखना अपना’
जाना भी कहीं ठीक से हो पाता है
और जाते हुए ख़याल कैसे रखा जाता है
ख़याल तो मुझे तुम्हारा…
पर
जाया नहीं जाता जिस तरह
ठीक उस तरह से जा रहा था मैं*
जाते हुए रुँधे गले से
ज़माने भर की ताक़त लगाते हुए कहा—
हाँ! रख लिया है।
अब तुम जाओ, मैं चला जाऊँगा
एक अंतिम बार
लिपट जाना चाहता था तुमसे
कि बारिश होने लगी अचानक
ज़िंदगी का वह एक फ़ैसला
और सदियों का रूठ जाना मुझसे
तेज़ बारिश की घिरती उस अँधेरी शाम में
तुम्हारी तरफ़ न मुड़कर
कूद कर ऑटो में बैठ गया था मैं
बहुत बरसी थी शाम लापुंग में
बारिश होती रही थी राँची पहुँचने तक
बाद में फ़ोन पर बताया तुमने
बहुत बारिश हुई आज लापुंग में।
दो
बराबर आता है इधर
लापुंग अख़बारों में
ख़बरें होती हैं
जंगली हाथियों के ‘आतंक’ की
‘नक्सली’ मुठभेड़ों की
निर्दोष रोशन होरो के मारे जाने की
आश्चर्य है कि
तुम्हारा मगन हो कारो को बहते देखना
उसके किनारों पर बैठकर
बहुत अंदर के गाँवों से आए लोगों से
बतियाना बेपरवाह
हुटार जंगल में बेख़ौफ़ लहराना
लापुंग में तुम्हारा होना
और वहाँ से चले जाना
किसी अख़बार की
किसी ख़बर में कभी नहीं आया।
तीन
फिर कभी नहीं गया लापुंग मैं
लापुंग कभी नहीं जा पाया मुझमें से।
चार
अब नहीं रहती तुम लापुंग में
भूल गया होगा लापुंग भी मुझे।
___________
*“जाया नहीं जाता जिस तरह
ठीक उस तरह
तुम जा रही हो”
(दिनेश कुमार शुक्ल की कविता ‘तुम्हारा जाना’ की पंक्तियाँ।)
तुम्हारा होना
तुम्हारे शहर के
स्टेशन से गुज़रते हुए
तुम याद आईं
सामान्य कथन है यह
सामान्य ही होता सचमुच
इसमें गर तुम नहीं होतीं
स्टेशन से दिख रहे
ठीक तीसरी पहाड़ी के पीछे है
सखुआ के जंगलों से घिरा तुम्हारा गाँव
वहाँ जाने वाली
लचकती वह सड़क भी दिखी
और वह झरिया पर की टूटी हुई पुलिया भी
जहाँ ख़राब हो गई थी तुम्हारे गाँव जाते हुए बस
सवारियों की उकताहटों से बेख़बर
बतियाते ही रहे थे बेपरवाह
हर बार की तरह उस रोज़
थाम कर रख लेना चाहता था
दूर पहाड़ियों से आ रही
झरने की आवाज़ को
घर लौट रहे लोगों
चिड़ियों की चहचहाहट में
डूबती शाम को
थामे रहना चाहता था
मांदर पर थिरकते उस रात
नाचते हुए मेरी हाथ को थामे
तुम्हारे हाथ को
तुम्हारे गाँव से बहुत दूर
गंगा के दियारे में भाग रही है ट्रेन
भाग रहा है मन मांदर की थाप संग
तांग धितिंग धितिंग तांग
तांग तांग तांग धितिंग
धितिंग तांग धितिंग तांग तांग।
जिताती रहीं हार कर
जिसके होने से
ज़िंदगी
बचपन की तरह
फुदकने लगती है
वही अनजान शहर की
सूनी गालियाँ हो जाता है
जिसके आने से
फिर से लौट आता है जादूगर
वही बारहा कोशिश से
आई रुलाई की तरह
हो जाता है
एक आदमी जो
एक स्त्री से प्यार करता है
बेइंतिहा प्यार करता है
वह प्रेमी से
ख़ालिस आदमी बन जाता है
सारी समस्याएँ यहीं से शुरू हुईं
आदमी ने स्त्री से प्यार करने का
दावा किया
दलील की तरह साबित की
अपनी मोहब्बत
उसके मुतमइन होने तक
उसने सारी तरकीबें अपनाईं
स्त्रियाँ हार कर इश्क़ में
जिताती रहीं प्रेमियों को
अनगिनत तोड़े गए भरोसों के बावजूद
मौक़ा देती रहीं आदमियों को
इस तरह
सहभागिता का एक युग जो शुरू हो सकता था
वह ताक़त के युग में बदल गया।
उगाए जाते रहे शहर
दरमियाँ एक तालाब था
जो नदी-सा बहता था
अब कंक्रीट के महल हैं दरमियाँ
जो पानी की क़ब्र पर उगे हैं
यूँ ही नहीं गँवाया
शहरों ने आँखों का पानी
चुराई हुई मिट्टी डालकर
सुखाया गया है
इंतज़ार किया है शिद्दत से
शहर ने
तब से सिलसिले हैं
प्यास के
तरसता है शहर पानी के लिए
दर-ब-दर भटकते हैं शहरी
आँखों में पानी की ख़्वाहिश लिए।
बाँधकोय
संताल परगना के
पाकुड़ जिला के अमड़ापाड़ा प्रखंड में
डूमरचीर ग्राम पंचायत है
जिससे पाँच किलोमीटर दक्षिण
छोटी-सी चढ़ाई पर
बाघापाड़ा गाँव आता है
फिर सखुआ के जंगल से गुज़रने पर
आता है बाँधकोय
जहाँ बाहा किस्कू और रिमिल टूडू के घर
एक असाधारण घटना
आज बेहद साधारण तरीक़े से रूप लेने वाली थी
बाहा गर्भवती थी
आज उनके बच्चे की होने की तारीख़ थी
सारा घर हड़िया की ख़ुशबू से भरा पड़ा था
दादा और दादी की ख़ुशी
बाप की ख़ुशी से भी ज़्यादा थी
अचानक जच्चा का चिल्लाना शुरू हुआ
दो-तीन घंटे हुए
चार-पाँच घंटे हुए
जच्चा का चिल्लाना बंद न हुआ
फिर किसी बड़े बुज़ुर्ग के कहने पर
खटिया पर लादकर
खेतों की पगडंडियों के ऊपर से
बाँधकोय से बाघापाड़ा होते हुए
डूमरचीर लाया गया
दो घंटे के इंतज़ार पर मिली
सवारी से अमड़ापाड़ा पहुँच
बस से
पाकुड़ के जिला अस्पताल ले जाया गया
जच्चा बच्चे को लिए अंदर गई
बच्चा बाहर आया
पर
जच्चा अंदर ही रह गई
वे लोग फिर से वापस जा रहे थे
उस बच्चे के साथ—
पाकुड़ से
अमड़ापाड़ा
डूमरचीर
बाघापाड़ा होते हुए
बाँधकोय।
हम लौट रहे हैं
रिमिल ने
सामने की तरफ़ दिख रहे
पहाड़ को दिखाते हुए कहा—
हमारी चिंता इसे बचाने की है
हँसी आई न?
तुम्हारे सभ्य चेहरे की
इस ख़ास कुटिल मुस्कान को
समझने लगे हैं अब
हमें मुस्कुराहटों में ज़हर
घोलने की आदत नहीं
इसलिए समझते देर लगी
कितना कुछ समझते?
हमारे फ़ुटबॉल के मैदानों को
कब तुमने क्रिकेट के मैदानों में बदल दिया
हम समझ ही नहीं पाए
मैदान में खेलने वाले
तुम्हारे लोगों की संख्या बढ़ती गई
हमारे फ़ुटबॉल मैच को जितने लोग नहीं देखते
उससे कहीं ज़्यादा तुम्हारे खेलने वाले होने लगे
एक ही मैदान पर बारह-बारह पिच बन गए
इस भीड़ में खेलते कैसे हो तुम लोग?
हम तो देखते हुए भी ओझरा जाते हैं
हमें तो खुले आसमान के नीचे
एक मैदान पर एक ही मैच खेलना आता है
खेल ही तो है
सोच कर खेलते देखते रहे तुम्हें
पर खेल तो कहीं और रहे थे
जब तक समझ पाते
हम शहरों की पराई गलियों में धकेल दिए गए
अपने ही घर में परदेशी बना दिए गए
हमारे ही गाँव, टोला, मुहल्लों से
हमारे लोग एक-एक कर ओझल होते गए
तेज़ी से बढ़ते तुम्हारे घरों की क़तारों ने
हमारी ज़मीन पर
गलियों का सैलाब ला दिया था
तुम्हारी उन गलियों से गुज़रते
तकलीफ़ होने लगी थी हमें
हमीं से बुलंदी चढ़ते रहे
और तुम्हारी आँखों में हमीं चुभते रहे
अरे हाँ, आँखों पर ख़ूब गीत कविता लिखी हैं
तुम लोगों ने तो
तीर, कमान, झील, दरिया पता नहीं कितना कुछ कहा है आँखों को?
ठग तक कहा है
हम ही नहीं समझ पाए
बार-बार ठगे जाते रहे
और तुम्हारे ही बनाए गाने
मशग़ूल हो अपने ख़िलाफ़ गाते रहे
आँखों पर इतना प्यार बरसाने वाले तुम लोग
ऐसी आँखें कहाँ से लाए
जो पहाड़ देखती हैं तो पैसा देखती हैं
नदी देखती हैं तो पैसा देखती हैं
पेड़ देखती हैं तो पैसा देखती हैं
हमें देखती हैं तो फ़ायदा देखती हैं
सचमुच इतने कमाल की आँखें
कहाँ से पाईं?
कहो अपने गीतकारों से
क़सीदे पढ़ें फिर से तुम्हारी इन मतवाली आँखों के
पूछो कि काले चेहरे पर क्यों नहीं जँच सकता काला चश्मा?
हमारे चेहरे पर क्यों नहीं जँच सकता?
हमारी नहीं तो
अपने ही घर के कालों की फ़िक्र कर लेते
जो बेचारे ‘बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला’ लिखी गाड़ियों में
ख़ुशियों से लहराते फिरते हैं
ख़ैर,
तुम्हारी तुम जानो
हमारी भी अब हम ही जानेंगे
जंगल, पहाड़, नदियों के उजड़ने से
सरना माँ नाराज़ हो जाती हैं
कोप बरसाने लगते हैं सिंग बोंगा
मीलो-मील पैदल चलकर
हम वापस लौट रहे हैं
तुम्हारी कभी न ख़त्म होने वाली गलियों से
अपने खुले आसमान में वापस जा रहे हैं
डरो मत
तुम्हारे काटे हुए पेड़ों का हिसाब
तुम्हारे बच्चों से नहीं माँगेंगे
ऑक्सीजन! हमारे हिस्से के पेड़
पहुँचाते रहेंगे उन तक
बस हो सके
तो अगली बार जब धूप में निकलो
अपने बच्चों को
इमारत की छाँव और
पेड़ की छाँव में
फ़र्क़ करना सिखाना।
दो वर्ष होने को हैं ‘सदानीरा’ पर राही डूमरचीर की कुछ कविताएँ प्रकाशित हुई थीं, इस परिचय के साथ—”24 अप्रैल 1986 को जन्मे राही डूमरचीर की कविताएँ बहुत चुपचाप कई वर्षों से कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इस प्रस्तुति से पूर्व आख़िरी बार उनकी कविताएँ साल 2009 के किसी महीने में ‘परिकथा’ में आई थीं। इसके बाद से वह कविताएँ लिखते ज़रूर रहे, लेकिन उन्होंने उन्हें कहीं भेजा नहीं।” यह सुखद है कि ‘सदानीरा’ को एक अंतराल बाद फिर राही डूमरचीर की यहाँ प्रस्तुत कविताएँ प्राप्त और प्रकाशित करने का अवसर मिला है। उनसे rdumarchir@gmail.com पर बात की जा सकती है।
राजीव भाई!!
विरासत बोलती हैं…आपकी ये कविताएँ साहित्य के प्रयोगधर्मिता एवं परिवर्तन को गतिशीलता प्रदान करती हैं
एक ठहरे हुए समय को आज से जोड़कर उसकी प्रासंगिकता का स्वतःचित्रण बखूबी करते हैं आप।
मुझे अभी भी याद हैं आप से वो पहली मुलाकात वो हमारे रूम में गाई गयी कविताओं का रिकॉर्ड अभी भी मेरे पास हैं।
अंधाधुंध हैं आप…..💐💐
इस प्यार के लिए शुक्रिया भाई🙂
आपकी कविताये जीवन्तता को साक्षात करने वाली हैं। पढ़ना शुरू करने के बाद बीच मे छोड़कर जाना उतना ही कठिन लग रहा था जितना “जाया नहीं जाता जिस तरह” में जाने की चेष्टा करना।और यह जानकर तो अपार हर्ष हुआ कि आप हमारे झारखंड के प्रगतिशील सह प्रकृतिवादी युवा कवि हैं। सादर शुभकामनाएं व्यक्त करता हूँ।
आज देखा मैंने आपका कमेंट।
बहुत शुक्रिया, सचमुच।
जोहार…
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रा.डू.
rdumarchir@gmail.com
Bhaiyaji bahut achchhi kavitaen hain
Aapako bahut bahut badhaee shubhakaamanaen aur mubaarakabaad
Aage bhi likhte rhi
Ummid karata hun aage bhi achchhi kavitaen Pdhne ko milengi
राही डूमरचीर की कविताओं के इश्क़ में पड़ना आप चाहें भी तो इससे बच नहीं सकते। एक संवेदनशील कवि के रूमान में प्रेम से लेकर जंगल और नदियाँ, आदिवासी समाज की ज़िंदादिली और निष्कलुषता से लेकर उसकी पीड़ा और दोहन और सामाजिक रिश्तों से लेकर सियासत और बाज़ार कैसे शामिल हो सकते हैं, इसकी ज़ियारत हमें इन कविताओं में होती है।
बिना किसी आवाहन के जब कविता अपनी बात कह गुज़रने की सलाहियत जान ले तो उसका असर गहरा होता है। राही डूमरचीर की कविताएँ इन्हीं वजहों से याद रह जाती हैं। कई मेटाफ़र तो विस्मित कर देते हैं। आपको पढ़ने की तलब बढ़ती जा रही है।