कविताएँ ::
सारुल बागला

सारुल बागला

इंतिज़ार

इंतिज़ार के बासी पन्नों की तरह
मुँह में पिछली रातों का
कसैला स्वाद रह जाता है
समय को आँख उठाकर
देखने से भयाक्रांत
मधुमक्खियाँ हमेशा इधर-उधर
दौड़ती रहती हैं
और सारे दार्शनिक पागल क़रार दिए जाते हैं
और किसी न किसी
पेड़ की छाया में कराहते हुए
वक़्त काट देते हैं।

अतिरिक्त भार से दबे हुए
नौजवानों ने नौजवानी से
इनकार कर दिया है
और देश एक
विक्षिप्त आर्थिक स्थिति में ख़ुद को
सही ठहराते हुए अभी थका नहीं है
जैसे कि पाँच का हरा नोट
कॉपी के पन्नों में जस का तस रखा हुआ है।

बोरियत को परिभाषा देने के लिए
बहुत दिनों से बोर हो रहा हूँ
जैसे कि पागलपन में
ख़ुद को ढूँढ़ने के लिए
जंगलों में चले जाते हैं लोग
और अपने होने की कोई
परवाह नहीं करते।

ऐसे ही इंतिज़ार के बासी पन्नों की तरह
मुँह में पिछली रातों का
कसैला स्वाद रह जाता है।

टीस

कौन पूरे करता होगा अधूरे काम
जिन्हें छोड़कर शहर चले जाते हैं लोग
बोयी हुई फ़सलें काटी तो ज़रूर जाती होंगी
जिन्हें बोने वाले चले जाते हैं ज़मीन से दूर
फ़सलों को भी सब याद रहता है
नहर, पानी, नदी, पहाड़, जिसे एक बार
स्पर्श कर लें, फिर कभी नहीं भूलते उसे।

हम सब सच समझे हुए
भ्रमित लोग है और फिर और भटक रहे हैं
हमें रास्तों का घुमाव समझ में नहीं आता
अक्सर एक दूसरे से दूर जाते रहते हैं
भले ही थाम रखें हो किसी कोयल ने हमारे हाथ।

बहुत देर से समझ पाता हूँ मीठापन
और असहनीय होता है दर्द का तीखापन।

सब्र

सब्र की एक उम्र होती है
और उसके पार कुछ नहीं होता।

बहुत थोड़ा-सा बचा हुआ मैं
बहुत थोड़ा-सा भी नहीं बचा रहता
वह बच्चा जिसके हँसने की उम्मीद थी
ख़ामोश हो जाता है
वह पेड़ जिसके हरे होने का मौसम बाक़ी था
सूख जाता है
वह सूरज जिसके उगने की उम्मीद थी
डूबकर फिर किसी ओर नहीं निकल पाता।

और ये सब बातें प्रकृति की नहीं
पड़ोस की होती हैं
बुझे हुए लावे का स्थगित प्रवाह
स्थगित ज्वार!
अगर तुमने असहाय होने की पीड़ा
महसूस की है तो सुनो!
और सुनो! कि ख़ुद जागना है
और ये हज़ार मील का रास्ता
अपने पैरों ही काटना है
जो भी कहना है
वह ख़ुद को संबोधित है।

प्रार्थना से

क़त्ल के बाद
प्रार्थना-सभा में बैठे हुए लोग
हमारी सदी के महानतम लोग हैं
और कुढ़-कुढ़कर जीती हुई गौरैया
इस सदी की सबसे दुखी प्राणी
दोनों एक दूसरे को पहचानते नहीं
लेकिन रिश्तेदार हैं।

सफ़ेद कबूतर को हाथ में थामकर
बैठे हुए
बूढ़े मन को रोज़ कोई पिन चुभा जाता है
और कबूतर के पंखों पर
एक लाल धब्बा पड़ता है।

लाठी का सहारा लेकर
झोपड़ी में रख आता है
सब विडम्बनाएँ
और क़त्ल करने वाले
फिर ताज़ा महसूस करते हैं
प्रार्थना-सभा से निकलकर
क़त्लगाह चले जाते हैं।

विलोम

कैसे मिलती है सुबह के सिरे से रात!
मैं हर चीज़ का विलोम कर देता हूँ
मसलन सूखे पेड़ हरे हैं अब
और हरे पेड़ कहीं हैं ही नहीं
तो सूखे पेड़ों का ज़िक्र नहीं आएगा।

हर कोई करता है प्यार
और कहीं ज़िक्र नहीं होगा नफ़रत का
अब इस नई भाषा में
मैं लिखता हूँ
हो रही है बारिश
नाच रहे हैं मोर
इस शाम कोई नहीं है भूखा
प्रेमिकाओं तक पहुँच गए आज युवक
और कहीं नहीं हुआ उपद्रव
भीड़ में नहीं मारा गया कोई आज
आत्मा को छीलने वाला बयान
नहीं दिया किसी ने आज
और सुबक नहीं रहा था कोई भी
मरियल बच्चा
कम थीं माँ के चेहरे पर तनाव की रेखाएँ
बाहर गए बच्चों को लेकर
आश्वस्त थे पिता आज।

लेकिन यह विलोम की भाषा है
और कितनी मीठी और सुहानी है
याद रहे सिर्फ़ इसलिए
कि विलोम, विलोम की भाषा है।

ख़ालीपन

ख़ालीपन जानता है कि
उसे किस तरह भरा जा सकता है
मैं हताशा में नहीं
अपनी समझदारी में
इतनी दूर अकेला चला आया हूँ
और यह भी नहीं कह सकता
कि मुझे बहुत से शब्दों से ख़ौफ़ है।

वसंत के साथ
सरसों का पीलापन ही नहीं
हवा से उसकी महक भी चली जाती है
जैसे कि तुम जाती हो
मेरे शहर से
मेरे घर से
जो कि तुमने मेरे भीतर बना रखा था।

अब हल्की-सी चोट के साथ
टीसते हुए दर्द वाली शामें
ज़्यादा हक़ीक़त भरी लगती हैं जैसे कि
पुरानी चोट कसकने के बाद
इस बात पर ध्यान जाए
कि हवा पूरब से चल रही है।

सुबह कोई जादू नहीं करती

सुबह कोई जादू नहीं करती
जब रात का दरवाज़ा बंद रहता है
बे-इंतिहा मुहब्बत करने वाले लोग
कभी भी मुहब्बत का मतलब नहीं जानते।

दीवार की सीलन धूप के साथ भाप
होती है और अच्छे इंसान धीरे-धीरे
सिर्फ़ इंसान रह जाते है
दीवार सीली हुई दीवार से सिर्फ़
दीवार होती जाती है।

अजनबीपन अकेली चीज़ थी
जो मुझे तुम्हारे पास लेकर आती थी
नदी को पता थे सारे रहस्य
समंदर में मिलती हुई नदी ने भी सोचा
सारा जल खारा हो जाएगा।

लंबे लगते हैं सीधे रास्ते
और कोई अजनबी नहीं मिलता
कोई डर भी नहीं कि दिखता रहे
अगला मुसाफ़िर
सीधा रास्ता,
रास्ता ही नहीं होता।

उधार

हमारी आत्माओं का उधार है
ऐसे समय में जब हमारी हैवानियत और बढ़ती जा रही है
इंसानियत की बहस करते-करते
देखो कैसे ये सच के पुजारी
अभी-अपनी आस्तीन से तलवार निकालकर
हमें दौड़ा लेंगे
ज़रा-सी भूख माँगी तो गुनाह
प्यास माँगी तो गुनाह
शाम माँगी तो गुनाह
सुबह माँगी तो गुनाह
गुनाह है कुछ भी माँगना
और हम न चाहते हुए भी
ख़ुद को हर चीज़ के ख़िलाफ़ पाते हैं
हवा हमारे ख़िलाफ़ है
हमारी आग का ताप बाहर की आग के ख़िलाफ़ है
हमारी प्यास ख़िलाफ़ है—
सारी कायनात के ख़िलाफ़
भूली चंपाओं को प्यार करते हुए
मुझे महसूस होता है
हम अभी प्यार के भी ख़िलाफ़ खड़े हैं
हमारी बुझी हुई आत्माएँ जागती हैं तो
अपना उधार माँगती हैं।

गाँव का नहीं बचा

मैं अब किसी गाँव का नहीं बचा
गाँव ऐसी जगह जैसा है
जहाँ से हर कोई आया है कभी न कभी
और फिर कभी वापस नहीं गया
शीशमहल गाँव में कभी नहीं थे
जहाँ सपने थे
उनके ठिकाने उससे दूर रहे हमेशा।

बादल

बादल किसी पर नाराज़ नहीं होते
मौसम भी नहीं…
बहुत सारे पेड़ होते हैं
जो इंतिज़ार करते हैं
कि सूरज इतना झुलसाए
कि सारे लोग मजबूर हो जाएँ
उनके साये में आने पर
जैसे कि मैं ही
दो साल से गुमसुम हूँ
कि कोई नहीं मारता मुझे
शब्दों की चपत
सिर्फ़ कविताएँ लिखते बीत रहे हैं दिन।


सारुल बागला हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-अनुवादक हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : शब्दों को इतना ख़ौफ़नाक कभी नहीं पाया था

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