कविताएँ ::
सारुल बागला
बेबसी
कुछ भी न कह पाने की बेबसी
और सब कुछ कह लेने की बेसब्री के बीच
सूरज यूँ ही उग कर बुझ जाता है
मद्धम और उदास दीए-सा।
शब्दों को ख़ूबसूरती चाहिए
क्यूँकि उन्हें बहुत दिनों तक रहना है
हमसे बहुत बड़ा है उनका जीवन
नदी माँगती है निश्चितता
जो कि मेरे पास किसी भी तरह से है
और वे दोस्त भी अच्छे नहीं लगते
जो ऐसी किसी जंग मे जीत के सुख में जी रहे हैं।
जीने के लिए और प्यार करने के लिए
सिर्फ़ उम्र इजाज़त देती है
वक़्त कभी नहीं देता
किसी भी सदी में नहीं कहा गया
यह सदी प्यार की सदी है
और इस बार ज़्यादा मिठास हुई है
हर बार काँटें बोए गए और
सारे अधूरे ही मारे गए हैं मीठे सपने
तो प्यार कर लेना
वक़्त को जो करना है वह कर ही लेगा
मुझे भी अब अपना चेहरा अच्छा नहीं लगता
तो इससे पहले ही कर लेना प्यार
नहीं तो इतनी सुबह नींदों से लड़ना बहुत तकलीफ़ देता है।
एक दिन
शरीफ़ दिनों ने जिन
शरारती बच्चों के दिन बर्बाद कर दिए
वे कभी माफ़ नहीं कर सकते उन्हें।
हल्की बारिश में पुरनम
जिन जादुई शामों को
ख़बरों ने बेमज़ा किया है
वे शामें ठहरी ही तो रह जाती हैं।
आवाज़ की कशमकश मे उलझे हुए
उन मज़बूत सवालों का
जिन पर चिल्ला दिए तुम
उधार बाक़ी है
जिसकी मियाद कुछ ही साल है
जो चुकाना ही पड़ेगा तुम्हें।
सपने देखने वाली आँखों ने
सपनों से ज़्यादा ख़ूबसूरत कोई चीज़ नहीं देखी होती है
सो, बेशक! तुम हमारी आँखों से
कोई भी जलता जंगल दिखाकर
रातरानी के बग़ीचे नहीं उजाड़ सकते।
यहाँ से एक अफ़साना सफ़र करता हुआ
बहुत दूर तक जाता है
कई बार तो मैंने इसलिए हार नहीं मानी
क्यूँकि उसके बाद करने के लिए कुछ भी नहीं था
और ख़ालीपन बोरियत है
तुम यक़ीन नहीं करोगे
लेकिन मैं कहता हूँ
कि मेरे उदास होने की कोई वजह नहीं है
और मैंने जो भी कहा सब झूठ कहा
और सच, ये अपनी गर्दन बचाते और
तलवार लहराते हुए हाथ
झुक जाएँगे, टूट जाएँगे, गिर जाएँगे एक दिन।
रात दिन को
रात दिन को हसरत से देखती
अगर देख सकती
कबूतर गिलहरी को प्यार करते हैं
और समुद्र को नदियाँ अच्छी लगती हैं
मैं कभी-कभी ख़ुद को भोला लगता हूँ
रास्तों की लंबाई बोर होने से बचाती है
और थकान रात की ऊब से छुपा कर रखती है
अख़बारों में आई हुई ख़बरें बड़े दरवाज़े वाले
घर से होकर निकलती है
बहुत से लोग बताते हैं कि ऐसा उन्होंने देखा है
बग़ावत की कमी का कारण कई बार
ख़ून में लोहे का कम होना लगता है
और मैं सोचता हूँ कि यह नमक किसका है
जब भी घावों में टीस उठती है
तो कोई न कोई याद जोड़ कर वक़्त काटना अच्छा लगता है
शहर की ओर आते हुए किसानों की
संयुक्त पदचाप नींद में मेरा पीछा करती है
और मुझे खेत तालाबों में बदलते दिखते हैं
कई महीनों से फ़र्क़ नहीं पता चलता है
कि ख़बर पढ़ी थी या कोई सपना देखा था
नींद के भीतर और घर के बाहर दोनों जगह
डरी-डरी जाती है क़स्बाई लड़कियाँ
और अपना हक़ माँगते हुए उनकी काँपती आवाज़ के
पीछे खड़ी मेरी आवाज़ पर पीछे से किसी विलुप्त
गिद्ध की आत्मा रोज़ अपनी चोंच की धार पैनी करके लौट जाती है
दोस्त जानना चाहता है कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ
और अक्सर इसका जवाब देने की बजाय मैं घर लौट आता हूँ
मुझे यह भी याद नहीं रहता कि यह बात किस दोस्त ने पूछी है
कभी-कभी जवाब मिल जाता है तो दोस्त ग़ायब हो जाता है
उसकी माँ बताती है कि उसे आटे की मिल में काम मिल गया है
और अब उसे जवाब की ज़रूरत नहीं है
उसके घर शाम की रोटी का बंदोबस्त हो गया है
दिन लंबे होने लगते हैं तो बेरोज़गारों को सबसे पहले पता चलता है
देश की बिगड़ती हालत पर सभा बुलाकर बैठे हुए बंदर
चुपचाप बैठे हुए हैं
और मुझे बस इतना पता है कि
रात दिन को हसरत से देखती
अगर देख सकती
कबूतर गिलहरी को प्यार करते हैं
और समुद्र को नदियाँ अच्छी लगती हैं।
सारुल बागला हिंदी कवि हैं। वह फ़िलहाल ओएनजीसी, अंकलेश्वर (गुजरात) में कार्यरत हैं। उनसे sarulbagla.bhu@gmail.com पर बात की जा सकती है।