कविताएँ ::
सावजराज

सावजराज

दीवानगी

तुम्हारी मुरकीली आँखों की छाँव में रहकर
मेरी आँखें पाती हैं तानाशाह की आँखों में आँख डालने की हिम्मत
बेख़ौफ़ मेरी आँखों से डरकर झपकने लगती हैं शहंशाह की पलकें
लूड़क और लाचारी देखने को अभ्यस्त आततायी लौट जाते हैं
मेरी आँखों में उभर आई लौ और ललक से घबराकर
तुम्हारे चंचल चक्षुओं के आश्रय में
मेरी आँखों ने आँखों का अर्थ-विस्तार पाया

तुमने अपने दाँतों के बीच दबाया मेरा निचला होंठ
मेरे लबों पर उतर आया लहू
हमने यूँ ही गर्म लहू से फागुन खेला
और रक्तपिपासु साम्राज्य की चूलें हिलने लगीं
तुम्हारे ऊष्ण ओष्ठ की छुअन पाकर
मेरे ओष्ठ पुकारने लगे हैं इंक़लाबी नारे

परस्पर मुँह जुठलाते हुए हमारा इश्क़ परवान चढ़ता गया
और हमारी जीभें होती गईं और अधिक ज़िद्दी
तुम्हारी ज़ुबान पर कुछ देर ठहरकर बुलंद हुआ मेरा नाम
और सत्ता के हलक़ में फँस गया

साम्राज्यों की नाक में दम कर रखा है
मेरी देह में महकती तुम्हारी साँसों की गंध ने

आलिंगन लेते हुए मैंने उतार लिए तुम्हारे वक्ष अपनी छाती में
यूँ मैंने अपना सीना कुछ चौड़ा किया
जिससे टकराकर पुलिसिया लाठियाँ टूट जाती हैं

मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर तुमने दबाया
मैंने उससे सीखा स्पर्श का सलीक़ा
कि इससे अधिक स्पर्श किसी के साथ बरती गई हिंसा है

तुम्हारे नितम्बों को अपनी पीठ पर लादकर
तुम्हें ढोते हुए मैंने जाना
कि प्रेम में होती है कितनी नर्मी और गर्माहट

दो क़दम साथ चलकर तुम्हारे
मैं लाँघ आया आदि मानव से आधुनिक मानव तक का युग
तुम्हारे सहवास में मैंने पाई मनुष्यता
मैं तुम्हारे प्रेमपाश में बँधकर आज़ाद हुआ।

पिया-बोल

सावजराज सिंह, तुम अपने इस राजपूती नाम
और सामंती अकड़ के साथ मत आया करो मेरे पास
अकड़ खंभों को छाजती है प्रेमियों को नहीं
जब मेरे पास आओ
तब सिंधी पावों की तरह आया करो
मेरी फूँक पर तुम्हारे सुर फूटे
और मेरे पोरों पर तुम्हारी धुन बजे

जब मेरे पास आओ
तब द्वार के बाहर अपने पाधर और घमंड उतारकर आओ
मेरे पास आधी रात को अँधेरे में छिपकर नहीं
दिन के उजाले में इतराते हुए आया करो
ख़रीदार की तरह नहीं तलबगार की तरह आओ

जब मेरे पास आओ
सारे आलंबन, आडंबर, आवरण से मुक्त होकर आओ
उत्कंठा-उत्तेजना-ऊष्मा से युक्त होकर आओ
आओ और मेरे बालों से खेलो
अपनी उँगलियों से उन्हें सुलझाओ
और मुझे उलझाए रखो अधर-द्वंद्व में

आओ और थामो मेरी बाँह
पर इस तरह नहीं जैसे तुम खड्ग थामते हो
ज़रा बाँध दो मेरी काँचली
पर वैसे नहीं जैसे तुम घोड़े पर काठी बाँधते हो
प्रणय में मत करो अपने बल का प्रदर्शन
तुम कुश्ती लड़ने नहीं आए हो
बन्ना, जब मेरे पास आओ
तब बल से नहीं कळ से काम लो

जब मेरे पास आओ
तब राजकुमार की तरह मत आओ
मैं तुम्हारे बाप की रियासत नहीं हूँ
जहाँ तुम अय्याशी करते रहते हो
मेरा तन क़ब्ज़ाने मत आओ
जैसे तुम्हारे पूर्वजों ने मेरे पूर्वजों के खेत क़ब्ज़ाए

जब मेरे पास आओ
तब मेरे बदन को इस तरह घेरो
जैसे धूप घेरती है जगह को
मुझे इस तरह छुओ
जैसे मेघ स्पर्श करते हैं व्याकुल धरती का
मुझ पर ऐसे सवार होओ
जैसे हवा पर सवार होती है गंध
जब मेरे पास आओ तुम सावजराज सिंह
कलह करने नहीं
प्रेम करने आओ।

इच्छाएँ

अगली बार मत रखना प्रेम के लिए अभिशप्त
कि बाँहें फैलाऊँ और आ टकराए
वही आदिम उत्पीड़क गर्म हवा
कि बार-बार कोई भी जिस्म झेल नहीं पाता
वही सदियों पुरानी यातना

(…मेरे ख़्वाबों का ख़याल रखना अगली बार
कि मैंने बाँहें कुछ और भरने के लिए फैलाई हैं।)

अगली बार मत रखना प्यासा मुझे
होंठ खोलूँ और पानी उन्हें ठंडा कर दे
कि होंठ सिर्फ़ पानी की प्यास बुझाने के लिए ही नहीं खुलते
होंठ प्यार की मिठास चखने के लिए होते हैं
तो गोया उन होंठों पर होंठ ही रख देना

(…कच्छी केसर का अम्भफल बनाना अगली बार
कि जिसे कोकिल-सी कन्याएँ अपने होंठों से चूस लें।)

अगली बार इतना अहंकारी, आत्ममुग्ध मत बनाना
कि आईने में अपना ही प्रतिबिंब देखकर इतराता रहूँ
छवि अरीसों में नहीं सजण की आँखों में देखी जाती है
आँखों में बराबर हँसी और आँसू देना
और उन्हें बाँटने को किसी प्रणयिनी का साथ देना

(…अगली बार पखेरू बनाना, मनुष्य मत बनाना
कि इस दुनिया में मनुष्यों के प्रेम करने के लिए जगह नहीं बची है।)

सावजराज हिंदी कवि और अनुवादक हैं। वह बीहड़ व्यक्तित्व और रचनात्मकता के धनी हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनके काम के लिए यहाँ देखें : योग्यताओं के योग्य बनने का यत्नआज मैं तुम्हारे अँधेरे से बात करूँगागिद्ध की प्रेयसी बनकर

1 Comments

  1. प्रमोद मार्च 26, 2020 at 3:45 अपराह्न

    बेहद खूबसूरत कविताएं हैं। सदानीरा और को पढ़वाने और कव‍ि को इन्‍हें ल‍िखने के लि‍ए शुक्रिया।

    Reply

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