कविताएँ ::
शुभम नेगी
सुनो पंडित
हरी-हरी दूब हैं हम
तुम्हारे देवों की पूजा से पहले
तोड़ दी जाती हैं हमारी तनी रीढें
हमारे बिना संपूर्ण नहीं तुम्हारी आरतियाँ
जप-माला के एक सौ आठ मनके हैं हम
एक-एक मनके का गला घोंटकर
उच्चारते हो तुम
ओम् नमो वासुदेवाय नमो नमः
फिर पीछे धकेल देते हो
अगले गले की ओर बढ़कर
हमारे अधबने मकानों की ईंटें चुरा
हवन-कुंड बनाए हैं तुमने
इधर जगह नहीं अब
तुम्हारे देवों को बिठाने के लिए
तुम्हारे महल
जो कि बने हैं बटोरकर
हमारे घरों की अँधेरी अपवित्रता
वह कैसे हो गए इतने पावन
कि हमारा प्रवेश वर्जित हुआ उनमें?
मेरी बहन को धकेलते हो तुम
एक-चौथाई ब्रह्महत्या है कि मासिक-धर्म
तो बताओ बे पंडित!
पृष्ठ फलाना-श्लोक ढिमकाना पढ़कर बताओ
क्या है फिर इस तथाकथित ब्राह्मण का जन्म?
हमारी उँगली में पहनाते हो तुम पवित्री
ताकि शुद्ध हो जाए देह हवन से पहले
असल में
पवित्री की ज़रूरत तुम्हारी जिह्वा को है
नहीं कर सकती जिसे शुद्ध
तुम्हारी संस्कृतनिष्ठ शब्दावली
आहुति मुद्रा में निषेध है तर्जनी का प्रयोग
ओ कुलपुरोहित!
तुम्हारी उग्र उदारता ने धकेला है हमें
हाशिए पर तर्जनी की भाँति
तिल-तिल कर झोंके गए हम
तुम्हारी हवन-भट्टियों में
तुम्हारे ध्यानार्थ कहता हूँ कि
क्रोधाग्नि में चटकते तिल हैं हम
उछलेंगे तुम्हारे माथों तक
भूनने को सारी भाग्य-रेखाएँ
जिन्हें ढक रखा है तुमने त्रिपुंड से
इस हवन से उठता धुआँ
तुम्हारी साँसों में घुलकर
घोंटेगा फेफड़े तुम्हारे घमंड के
तुम्हारी ही भाषा में मेरी यह चाह—
हे पंडित!
सर्वनाश हो तुम्हारे जातीय दंभ का
स्वाहा!
सरगम
मंडी हाउस बैंड के लिए
सात बिखरे सुरों की तरह
आ बैठे थे सात लड़के सामने
जो मुखिया के प्रकाश-वृत्त में आते ही
मिलकर अब सरगम हो गए हैं
बुंदेली गीतों की तहों में
सलीक़े से रखते हुए
काहौन-गिटार की अपरिचित ताल
उठता जाता है उनका स्वर
जैसे रातरानी से उठती है ख़ुशबू आप ही
महानगर से भिड़ती भीड़ में
हारमोनियम से भिड़ता यह लड़का
बचा पाया है कम से कम इतनी ताक़त
कि हवा धौंकती उँगली की हल्की हरकत
बदल देती है गीत की गति
और कड़ियाँ जोड़कर पा लेते हैं राह
बुंदेली गलियों में भटकते सात साज़
मुख्य स्वर के साथ चलना था जिन्हें
मुखड़े पर आकर बिछड़ते हैं वह सह-गायक
विपरीत सुरों की पगडंडियाँ पकड़कर
एक ऊँची, एक नीची
और ऐसा करने में
पहले से भी अधिक गाढ़ा हो जाता है उनका रेज़ॉनन्स
हर थाप, झंकार, हर हरकत
पिघलाती है सबके भीतर हिमखंड
कमरे में ठंडी नदी बह आती है
डूबते सुरों संग डूबते हैं
फिर-फिर उभरने को सब श्रोता
भीगा लौटा हूँ घर
इस चाहत में कि
अगले सूरज के सोखने से पहले
बदन ही सोख डाले यह सारी रंगत
कीलें
मेरी बाईं जाँघ के अंदरूनी हिस्से पर
कब तक धँसा रहेगा वह अधेड़ हाथ
जो बस में एक दिन पास सरक आया था?
सोलह साल की उम्र में ही
होंठों से लेकर जाँघों तक
कीलों की तरह ठुकी पड़ी थीं मुझ पर
कितने बेगाने हाथों की स्मृतियाँ!
हॉस्टल का वह बेहूदा सीनियर
जिसकी दिनचर्या का अटूट हिस्सा था
मेरे होंठों को घोंटना अपने होंठों से
कैसे फेर पाता होगा अब
अपने बच्चे के सिर पर सहलाता हाथ?
मेरे बारह वर्षीय होंठ
हर शाम काटे जाते रहे
पर कटी पड़ी रही साथ में ही
मुझे कटता देखतीं डेढ़-दर्जन ज़ुबानें
युद्धग्रस्त क्षेत्र है मेरी देह
कितने ही घुसपैठियों ने किया है यहाँ अतिक्रमण!
मुझमें ठुकी कीलों को ढकती
लटकी है एक मुस्कुराती तस्वीर उन पर
जो कि मेरा बचपन है
हर धावे के उपरांत
और ऊँचा चिनता गया मैं
अपने गिर्द क़िले की दीवारों को
घुसा था जो बस में जाँघों के अंदर हाथ
झटका जा सकता था उसे
खींचकर जड़ा जा सकता था एक तमाचा
चिल्लाया जा सकता था कंडक्टर को पुकारते हुए
या मिलाया जा सकता था कोई हेल्पलाइन नंबर
जिसकी रिंगटोन बरसों बजती रहती
पर मैं बस उठा और बैठ गया
उस आदमी से सबसे दूर वाली कुर्सी पर
हालाँकि थम जाए इस नई कील से रिसता ख़ून
झटक दे मेरी देह यह बेगाना स्पर्श
कोई दूरी इतनी लंबी नहीं
रोया हूँ
इतना आदी हूँ
कि नहीं छूटी रुलाई
जब-जब दुःख ने चुराई
मेरे हिस्से की ऑक्सीजन
उल्टा
कण भर साँस लौटाए जाने पर
दहाड़ें मार-मार रोया हूँ
सुख आया तो जाना
जो था अभी तक
दुःख था
सूखी ही रही आँखें अँधेरों में
बाँध बन खड़ी रही रात की आदत
रोया हूँ लेकिन
पहली ही किरण की थपकी पर
बहुतेरे कारण थे
जो बन सकते थे अवसाद,
पर बने नहीं
जिनका पता बाद में चला
एक अँजुरी आस मिलने पर
लाल के असीम विस्तार पर
विकल्प बन गिरा जब सफ़ेद
तब हुआ एहसास लाल की मौजूदगी का
विकल्पहीनता में भला कैसा रुदन?
पहाड़-सरीखा मैं
डटा रहा तमाम आपदाओं में
पर जैसे फूटते हैं ठंडे नाले पहाड़ से
गालों पर हल्की छुअन पाकर रोया हूँ
थामते हाथों को देख ही जान पाया
कि खोली भी जा सकती है
भींची पड़ी थी जो मुट्ठी सदा से
भू-स्खलन की आवाज़
पहाड़ों पर नहीं है
सिर्फ़ चिड़िया के चहकने की आवाज़
यहाँ खाई से उठती वह चीख़ भी है
जिसके पाँव तले से बारिश
चुरा ले गई थी सारा पहाड़
उस बच्ची के क़दमों के नीचे
सूखी लकड़ियों के चटकने की आवाज़ें
जिन्हें घर पहुँच
दाल में उबलते बुलबुलों की आवाज़ बनना था
बचाव अभियान में बिलखते सायरन बन गई हैं
कान लगाकर सुनो
बादल की धमकियों
और बारिश के तीरों के अलावा
कितनी आवाज़ें हैं
इस त्रासदी का मनहूस पार्श्व-संगीत?
इन मशीनों की हँसी
जो दाँत चियारती खड़ी हैं पहाड़ों के आगे,
ये आरियाँ
जो जंगल को दड़बा मान चुकी हैं
ग्राहकों के आदेश पर उठा कर ले जाती हैं कुछ पेड़
पीछे छोड़ती उनकी फड़फड़ाहट,
इन्हें जोड़ो!
अब बताओ भला
कितनी आवाज़ों के मिलने पर
कुछ चीख़-सा सुनाई देता है?
अनजान नहीं हूँ इस विरोधाभास से कि
जो पहाड़ों को ज़हर है
वही है उनका निवाला भी
पर बिम्ब-विधान बदलो
पहाड़ों से झरने फिसलने की आवाज़
जो तुम्हें आकर्षित कर रही है
संभव है वह मजबूरी में
पानी के पत्थर पर सिर पटकने की आवाज़ हो!
शुभम नेगी की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। उनका लेखन गए कुछ समय में तेज़ी से प्रकाशित और सम्मानित हुआ है। उनके पास हिंदी-दृश्य के लिहाज़ से कुछ अनछुए विषय हैं। उनकी भाषा स्पर्श किए जा चुके को भी नए ढंग से स्पर्श कर रही है। शुभम बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश में पले-बढ़े और उनकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई बनारस से 2018 में पूरी हुई। कॉलेज में उन्होंने बहुत से नुक्कड़ नाटक किए और कुछ नाटकों का लेखन, निर्देशन; और उनमें अभिनय भी किया। इन दिनों वह डाटा साइंटिस्ट के तौर पर मुम्बई में कार्यरत हैं। उनसे shubhu.negi30@gmail.com पर बात की जा सकती है।