सुगाथाकुमारी की कविताएँ ::
अनुवाद : बेजी जैसन

सुगाथाकुमारी | तस्वीर सौजन्य : manorama online

यह गोपी अन्य गोपियों से अलग है। सारी गोपियाँ कृष्ण की सखियाँ, माँ या प्रेमिकाएँ रही हैं। वे सब कृष्ण की सुंदरता पर मुग्ध रहीं। पर यह उन गोपियों की तरह नहीं। इसने कृष्ण को कभी क़रीब से नहीं देखा। बस दूर से ही कृष्ण उसके आराध्य बने रहे। जीवन के आनंद को वह कभी न पा सकी। उसे संदेह है कि कृष्ण उसे नहीं जानते।

हो न हो, वृंदावन में कृष्ण की ऐसी भी एक सखी रही होगी—कवयित्री का यही संशय है यह कविता।

कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते

यहाँ अंबाडी के एक कोने में
मिट्टी की झोंपड़ी में
मैं एक अभागन रहती हूँ

यहाँ… अंबाडी के एक कोने में
मिट्टी की झोंपड़ी में
मैं एक अभागन रहती हूँ
कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते…

घाघरा की चुन्नट में पड़ती सलवटों से हिलते,
पाँव में पहने कड़ों से उठती ध्वनियों की बारिश कर
कमर पर जगमग मटकियाँ उठा
अपने आँखों में अनुराग का काजल लगाकर
पानी भरने के बहाने बनाकर
मैं तुमसे कभी नहीं मिली
कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते…

बावड़ी में नहाते हुए, चंचल कालिंदी की तरह
शीतल लहरों में इठलाती, मस्त, आधी मगन,
लजाती, शर्माती, पलकें झुकाए
हाथ बढ़ाए, उँगलियों से इशारा कर
मैंने कभी तुमसे तुम्हारे द्वारा छिपाए मेरे वस्त्र
लौटाने का आग्रह नहीं किया
कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते…

वन के हृदय में, कदम्ब के तले बैठ
जब तुम अपनी बाँसुरी पर धुन छेड़ते हो
तब शृंगार अधूरा छोड़
उबलते दूध का उफनकर गिरना भूल,
घर के सारे काम-काज छोड़,
बेतरतीबी से कपड़े पहन
बिना बाल बाँधे, सँवारे,
अपने रोते-बिलखते बच्चे को छोड़
भौंहें चढ़ाते अपने पति से नज़र चुराकर
सब भूल, दौड़कर,
मैं गोपियों के साथ कभी तुम्हारे सान्निध्य में नहीं पहुँची
कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते…

ओझल होती गोपियों के कड़ों से उठती ध्वनियाँ,
जैसे-जैसे दूर होती जाती है
मैं पलकें झुकाकर मेरी छोटी-सी झोंपड़ी में
अपने हज़ारों काम के बीच लौट आती हूँ
इस जन्म के समस्त बंधनों के बीच जकड़ी हुई
कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते…

तुम नीले चंद्रमा की तरह सबके मध्य खड़े
और तुम्हारे आस-पास तुम्हारी लीला में
मदहोश डोलतीं सुंदर गोपियाँ
तुम्हारी धुन पर मग्न हो होश खोकर थिरकती-झूमती गोपियाँ
तब शरारत से भरी तुम्हारी बाँसुरी की धुन
मध्य ताल से, द्रुत में बदलती जाती
उस लय पर उठते, रफ़्तार पकड़ते गोपियों के पाँव
और पाँव के कड़ों से उठते झंकार
जैसे खिलखिलाहट फिर कोलाहल से महसूस होते
नाचती हुई गोपियों के घाघरे की चुन्नट,
हवा में लहराते उनके कड़े पहने हाथ
इंद्रधुनष के आकार में बनते-ढलते हुए
ऐसे में, मैं अपने बाल खोल,
अपने बालों में फूल खोंसकर कभी नहीं नाची
कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते…

नृत्य में मदमस्त थका-हारा शरीर
क्षीण हुआ धूल-धूसरित अंग-अंग
तब हाँफते हुए
फूलों से लदे पेड़ पर अपनी छाती टिकाकर
तुम्हें मैंने लालसा भरी नज़र के साथ कभी नहीं देखा
कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते…

प्रेम में पाए मेरे दुख को
किसी कुशल दासी ने
तुम तक दौड़कर आकर कभी बयान नहीं किया
बेलों से बने कंदरा पर सफ़ेद फूलों के खिलते समय
दूर से आते तुम्हारे क़दमों की आवाज़ कान लगाकर
सुनने को आतुर मैं कभी नहीं रही,
न विस्मय के साथ मैंने तुम्हारा कभी इंतज़ार ही किया
कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते…

सहस्र जंगली फूलों का एक साथ खिलना
और उन सफ़ेद फूलों की मादकता
छलक गई हो शीतल नीले आकाश में
ऐसे तुम्हारे नीले वक्ष पर
मैं अपना सिर टिकाकर कभी खड़ी नहीं रही
कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते…

वसंत की तरह तुम आ जाओ…
वसंत की तरह तुम आ जाओ…

बाँसुरी की धुन वसंत की तरह आती है मुझ तक
मुझे तुम्हारे अंतरंग में विलीन करती हुई,
जैसे मैं तुमसे अभिन्न हूँ
अपनी जर्जर झोंपड़ी का दरवाज़ा बंद कर
इस आनंद में भाव-विभोर हो,
मेरी आँखें ख़ुशी के आँसुओं से भीग जाती हैं
कानों-कान किसी को ख़बर हुए बिना,
तुम्हें ही अपने हृदय में रख पूजा है मैंने,
(फिर भी)
कान्हा, तुम मुझे नहीं जानते…

सारा का सारा गोकुल रो रहा है
सारा का सारा गोकुल रो रहा है
कान्हा, तुम मथुरा जा रहे हो
तुम्हें लिवा लाने के लिए,
घास से बनाए रथ पर,
क्रूर और अक्रूर सब आ पहुँचे हैं
मैं कुछ भी कहे सुने बिना, बिना हिले-डुले
अपने बरामदे में सुन्न हो बैठ गई हूँ
रथ के पहियों की गर्जना
और घोड़ों की टाप जब कानों पर पड़ी
मैंने अपनी पलकें उठाकर देखा
झंडे वाला रथ, उस पर विराट राज्य-चिह्न
प्रफुल्लित तुम, पूर्ण चंद्रमा से दीप्त रथ पर विराजमान हो
हाथ बढ़ाकर रोती हुई गोपियाँ तुम्हारे साथ-साथ चल रही हैं
फुदक-फुदककर पीछे चल रही हैं सारी गायें
आँसुओं में भीगी तुम्हारी अलौकिक आँखें
उनके दुख में लाल हो गई हैं
तुम उन्हें मुड-मुड़कर देख रहे हो

एक चट्टान की तरह मैं
बिना कुछ कहे, बिना हिले, बिना रोए,चुपचाप वहाँ
तुम मुझे नहीं जानते कान्हा, लेकिन
फिर भी, एक क्षण के लिए तुम्हारा रथ मेरी झोंपड़ी के सामने रुका
आँसुओं में भीगी तुम्हारी निगाहें मुझ तक पहुँचीं
करुणा से निढ़ाल, भरा तुम्हारा मन
मुझे देख तुम्हारे होंठों पर स्मित,
तुम (जैसे) मेरे लिए मुस्कुराते हो

कान्हा… मुझे जानते हो क्या कान्हा…?
मुझे जानते हो क्या कान्हा…?
क्या तुम मुझे जानते हो…?

अकेली

मैंने अकेले रहना सीख लिया
गाढ़े जंगल के बीच, घुप् अँधेरों में,
एक अकेले अपने से लगते पेड़ के तले
जिसके पीछे से अचानक प्रकट होते
साँप और जंगली जानवर
वहाँ बिना चीख़े, चिल्लाए
रोये-बिलखे
निर्भीक हो

मैं अकेले रहना सीख चुकी
मैंने अकेले यहाँ से गुज़रना सीख लिया है
बिना तुम्हारे हाथों का सशक्त संबल पाए
दुर्गम रास्तों के बीचोबीच होते हुए
बग़ैर किसी मंज़िल के,
अपना सिर झुकाकर
अब अकेले चलना सीख चुकी मैं

मैंने अकेले गाना सीख लिया है
तब भी जब कोई हँसते हुए
मेरे गीत के साथ न जुड़ सका,
गीत जो किसी के लिए नहीं गाया गया
यूँ ही, बहरे लोगों के सामने
अकेले अपने शब्दों को थामे,
बिना कँपकँपाए
बिना आशंकित हुए
अब अकेले गाना सीख चुकी मैं

मैंने अकेले सोना सीख लिया है
बिना सपनों के, बिना आँसुओं में भीगे
आधी रात में अचानक जागने पर
अपने साथी को बग़ल में न पाकर भी
अपने हाथों को उपादान के आग्रह में उठाए बग़ैर
नींद की गोली को चुंबन की मुद्रा में रख, सेवन कर
अपने तपते माथे पर स्वयं हाथ रख
अब अकेले सोना सीख चुकी मैं

अब तुम्हारे बिन अकेले गिरकर,
एकांत में मरना भी सीख लिया है
मेरे इर्द-गिर्द न किसी का दारुण रुदन का स्वर
न ही मेरा निढाल सर तुम्हारी गोद में
तुम्हारे पुण्य हाथों से अंजलि भर जल से भी वंचित
(इस आख़िरी वक्त में)
तुम्हारी निगाह में मेरी दृष्टि अनुपस्थित

हाsss
हाsss

बिना विदा कहे, बिना तुमसे इजाज़त माँगे
अब अकेले गिरकर मरना सीख चुकी मैं।


सुगाथाकुमारी (1934-2020) मलयालम की समादृत कवयित्री हैं। बेजी जैसन से परिचय के लिए यहाँ देखें : तर्पण

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