कविताएँ ::
सिद्धार्थ बाजपेयी

सिद्धार्थ बाजपेयी

शिकारी तारे

तीन तारे चमकते हैं
अरायन की बेल्ट में

शिकारी नक्षत्र है,
घूमता है नीले, स्याह नभ में
शाम से अकेला

और अकेला मैं देखता हूँ उसे
बेचैन गर्म शामों में
कभी रायपुर यू.टी.डी. के कैंपस से
कभी किसी आँगन से
कभी किसी छत से
किसी रेल की खिड़की से
या चलते-चलते सड़क से

सोचता हूँ और जाने कितने होंगे
जो इस शाम देख रहे हैं
इन चमचमाते शिकारी तारों को
अपने एकाकीपन में, सहमे से
कहीं ठिठक कर, उदास से

मगर सुनो, पूरी दुनिया के अकेले लोगो,
इसी समय ठीक
इसी समय मैं भी देख रहा हूँ
उन्हीं चमकते तारों को
तुम्हारी उदासी के वृत्त के भीतर से ही,
बिल्कुल तुम्हारी बग़ल से,
तुम्हार अकेलेपन की गवाही में

इस पृथ्वी पर दरअसल, दोस्तों,
एकाकीपन की बोझिल नियति
हम सबकी साझी है।

स्वस्ति-वाचन

धूल भरा आँगन वापस आए
आँगन में मुनगे का पेड़ वापस आए
हम सब भाई-बहनों की
सात-आठ साल की
ख़ुश उम्र वापस आए

फूले गालों वाली छोटी-सी
बहिन वापस आए,
धूल भरे आँगन में चावल के दाने फेंके
जिससे आँगन में गौरैया वापस आए
माँ-बाप जिस उम्र में थे ख़ुश
वह उम्र आए

भूख न आए वापस
ठंड में सिर्फ़ सूती चादरें न आएँ
सिर्फ़ एक जोड़ी कपड़े न आएँ
पड़ोस की बिलखती रौताइन का
मरा बेटा वापस आए
अदालत का फ़ैसला
दोस्त के हक़ में आए
गाँव के सूखे तालाब में पानी आए
बिना बात हँसी आए

दुनिया में गौरैया वापस आए।

ब्रह्मा की सृष्टि

गर्म और स्वादिष्ट भोजन के
लगातार जाते कौरों में
जब उतर जाता है
आख़िरी निवाला
हलक़ से,
लगभग भरे पेट पर
तब,

माघ की हाड़ कँपकँपाने वाली बेहद ठंडी रातों में
नरम और महँगी रज़ाई से
लिपटा जब डूबने लगता हूँ
एक सुरक्षित, ऊष्मा से भरी नींद में
तब,

या फिर ख़रीद लिए हों
क़ीमती आरामदेह जूते
लापरवाही से
एक प्लास्टिक कार्ड घिसकर
तब,

तब और तभी,
उसके बाद ही,
याद आती है
ब्रह्मा की सृष्टि
जहाँ अभी भी ख़ाली पेट
काँपती देह
और नंगे पाँवों को समेटे
एक हुजूम चल रहा है
एक समानांतर दुनिया में

हमसे अनंत दूरी पर।

आश्वस्त करो

पढ़ा कि ढाई सौ साल पहले बंगाल में
बहुत सारे चावल को बदला रुपयों में
और ले गए उसे
सात समंदर पार
कुछ व्यापारी
बड़े-बड़े जहाज़ों में

पीछे रह गई एक दारुण
अंतड़ियों को ऐंठने वाली
जानलेवा हिंसक भूख,
जो फैल गई बंगाल के पोखरों, गलियों और देहातों में
एक अशुभ, दुर्गंधित हवा की तरह

फिर रह गई बस मरणांतक यातना से बचने की
याचना करती
भूख से सूखी
लाखों देहें,

और मुर्शिदाबाद की
हुगली नदी में बहती
पिचके पेटों वालों की
हज़ारों फूली लाशें,

मैं हुगली के पास हूँ अभी
और पूछता हूँ :
अरे, ये समय क्या है?
भूल गया हूँ
बताओ कि ये कौन-सा समय है?

बताओ मुझे कि क्या हुगली का पानी
मीठा हो गया अब?

क्या भूख की चीत्कार का ज़हर
साफ़ हो गया है
मुर्शिदाबाद की हवाओं से?

इन दो-तीन सदियों बाद
क्या वहाँ की सड़कों से अब नहीं आती
भूख से बिलबिलाती आत्माओं की
दमघोंटू दुर्गंध?

बताओ मुझे कि क्या चावल
अब नहीं बदला जा रहा रुपयों में?
फिर सोने में?
फिर बंदूक़ों में?

क्या बड़ी-बड़ी तिजोरियों में
सात समंदर पार
चावल ले जाने वाले
सारे व्यापारी
अब मर गए हैं?

या अभी भी चलते हैं उनके
बड़े बड़े जहाज़
भरे हुए
चावल से बने रुपयों से?

क्या सत्रह सौ सत्तर वाला मुर्शिदाबाद
सचमुच मिट गया है
इस धरती से ?

बोलो, बताओ मुझे कि यह इक्कीसवीं सदी है
और चावल अब चावल रहता है

मुझे आश्वस्त करो!


सिद्धार्थ बाजपेयी (जन्म : 1957) हिंदी-अँग्रेज़ी कवि-लेखक हैं। उनकी कुछ कविताएँ इस प्रस्तुति से पूर्व ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ और ‘वागर्थ’ में आ चुकी हैं। अँग्रेज़ी में उनकी एक पुस्तक ‘पेपर बोट राइड’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। उनसे sidd58@yahoo.com पर बात की जा सकती है।

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *