कविताएँ ::
सुधीर रंजन सिंह
यथार्थ
एक बड़ी-सी आकृति जो आदमियों के देखने से हरी थी
किसी ने उसे पेड़ कह दिया था
तब से वह अर्थ है
पेड़ शब्द का
पेड़ शब्द के अर्थ में
पेड़ की ख़ामोश ताक़त का
बहुत कम पता चलता है
जड़ें उसकी गहराई तक जाती हैं
यह ख़ास मतलब का विषय नहीं था
फूल फल पत्तियाँ लकड़ी छाल और जड़ों के अर्थ को
ज़रूरत के हिसाब से निर्धारित किया गया
पेड़ शब्द के अर्थ में उसकी छाया को
शामिल कर लिया गया
लेकिन पतझड़ की उदासी में
कोई शामिल नहीं हुआ
अभी-अभी उगी नन्ही पत्ती पर
हवा किस तरह सरसराती है
और कैसे इतने बड़े जहान में एक पेड़
अपने ऊपर थाम लेता है
पूरी रात को
इसे सिर्फ़ नींद में समझा गया
पेड़ की तरह
एक और घनी आकृति है
आदमियों को जो सबसे अधिक रिझाती है
किसी ने उसे स्त्री कह दिया था
और रोप दिया था उसमें
प्रेम शब्द का अर्थ
स्त्री शब्द के अर्थ में
स्त्री की अपनी मौलिकता शामिल नहीं
पुरुष-मिज़ाज का उस पर आरोप है
रूप में समाई हुई कितनी शून्यता है
नहीं ले पाया कोई आज तक थाह
सिर्फ़ अर्थ किया गया उसके अंगों का
फूल फल पत्तियाँ लकड़ी छाल और जड़ों की तरह
कितनी चीज़ें गिनाऊँ
जिन्हें दिया गया ऐतिहासिक शब्द
और उनका अर्थ करने में
भौतिक भूलें की गईं
कवि कम नहीं इसके लिए
ज़िम्मेदार।
जेठ
ताप धूप का
पिघल कर हवा में
घुल गया
पेड़ के मर्म को
हवा ने
छू लिया
गिरा एक पत्ता
और पेड़ की छाया को
चूम लिया।
शत्रु
शत्रु की जगह
किसी और शब्द का उसके लिए उच्चारण
आज के हिसाब से ज़रूरी है
इतिहास में हुए जो बड़े-बड़े शत्रु
उनका नाम लेने में थोड़ी सावधानी की ज़रूरत है
चाहें तो नाम से पहले देवपुरुष जोड़ दें
और वर्तमान के शत्रुओं के नाम के बाद
‘जी’ ज़रूर लगाएँ
भविष्य में जो होंगे शत्रु
उन्हें कैसे संबोधित करना है
इस पर अभी से विचार शुरू कर दें
वर्तमान के शत्रुओं से
डरने की अभी ज़्यादा ज़रूरत नहीं है
किसी सड़क या सेतु को नाम देने में
वे बहुत व्यस्त हैं
उनकी यह चाहत भी ज़्यादा नहीं अखरनी चाहिए
कि कुछ चीज़ें भविष्य में उनसे जानी जाएँगी
क्योंकि हमने उल्टा समझने की आदत डाल ली है
भविष्य में आएँगे जो शत्रु
हम जब बहुत बूढ़े हो जाएँगे
उस समय हम उन्हें बड़ी बाधा दिखाई पड़ने लगेंगे
अतीत को मनचाही शक्ल देने के मामले में
अपने देश में
शवों को जलाने का नाहक़ रिवाज नहीं है।
आत्मकथा
अपने को
कठोर गद्य के हवाले कर दूँगा
सुइयाँ चुभाऊँगा अतीत में
बताऊँगा पुरखे कहाँ-कहाँ थे
और मैं यहाँ कैसे आया
सुरंग बनाऊँगा अपने भीतर
कुचले हुए स्वप्न को
सामने खींचकर लाऊँगा
मित्रता और शत्रुता की
गाथा रचूँगा
कुछ स्त्रियों की छवि ऊँची करूँगा
और कुछ के लिए ओछी बातें करूँगा
कैसी-कैसी कमज़ोरियों से गुज़रा हूँ
कितने अवसरों पर कितना निहत्था हुआ हूँ
कब-कब मतलबी होना पड़ा
सब लिखूँगा
भ्रम में मत रहना
तुम्हारे बारे में भी कुछ लिख दूँगा
हत्या और आत्महत्या से गुज़रना जो है मुझे।
कौआ
गाँव गया
सुबह-सवेरे मुँडेर पर बैठा
कौआ दिख गया
कौआ भी कनखी से
मुझे देख रहा था
आने में उसे देर हुई है
मोबाइल फ़ोन से कब की पहुँच गई थी
मेरे आने की ख़बर
काँव-काँव किए बिना
कौआ उड़ गया
सूने आकाश में
संदेशा पहुँचाने का उसका हक़ जो
छिन गया था।
घास
पानी सबसे पहले हमारी जड़ों तक
पहुँचता है
हवा छू कर हमें, बहती है
सांय-सांय
मिट्टी को हमने बनाया है सख़्त से
मुलायम
हमारी लघुता से ऊँचा है आकाश का
सिर
सुंदर शैय्या है धरती
हमसे
सब कुछ को ढँक लेने की है ताक़त
हममें
कवियो!
कविता में है
सबसे ख़ास
हरी नुकीली घास।
भाषा
पीठ पर
कोमल पंख उग आए हैं
सज गई हैं उन पर
धारियाँ सुंदर
अब बारी है
उड़ने की
उड़ो
और दिखो
ज्वार के विप्लवी फेन की तरह
अब बारी है
गिरने की
गिरो
पूरे वेग से गिरो
मेरे पागल मस्तिष्क में
अब बारी है
थमने की
थम कर
बँध जाओ
पर्वत-शृंखला-सा
वरना तुम्हारा हलाल होना
पक्का।
हवा
मैं तुम्हें छूती हूँ
तुममें भर जाती हूँ
तड़फड़ाती हुई
पेड़ों से टकराती
किसी और में
समा जाती हूँ
मैं ज़रा चंचल हूँ
मैं ज़रा गंभीर हूँ
मैं भरी हुई हूँ
मैं तुम्हारा वर्तमान हूँ
झिंझोड़कर
उठा सकती हूँ
ख़ाली होकर
बुझा सकती हूँ
अंधी हो सकती हूँ
क्रोध से
भर सकती हूँ
पीड़ा और प्रेम से
खोजो
कविता के लिए शब्द
प्राण भरने का काम
मेरा है।
***
सुधीर रंजन सिंह (जन्म : 28 अक्टूबर 1960) हिंदी के सुपरिचित कवि-आलोचक हैं। उनकी कविताओं की तीन पुस्तकें ‘और कुछ नहीं तो’, ‘मोक्षधरा’ और ‘शायद’ शीर्षक से तथा आलोचना की तीन पुस्तकें ‘हिंदी समुदाय और राष्ट्रवाद’, ‘कविता के प्रस्थान’ और ‘कविता की समझ’ शीर्षक से प्रकाशित हैं। वह भोपाल में रहते हैं। उनसे singhranjansudhir@gmail.com पर बात की जा सकती है।