कविताएँ ::
सुघोष मिश्र
होना
होने को कुछ भी हो सकती थी वह
बारिश भी
कहीं भी बरस पड़ती बेपरवाह,
पर उसने नदी होना चुना
और मुझे पुकारती समुद्र तक गई।
प्रेम कविता
प्रेम था
आख़िरी सादा पन्ना
स्याही थीं आँसू की कुछ बूँदें
स्मृतियाँ
शब्द होने का संघर्ष करते
धुँधले अक्षरों की मृत्यु थीं
कविता थीं वे पंक्तियाँ
जो लिखी नहीं गईं।
जाऊँगा
हर वसंत फूल आएँगे इन लताओं में
मैं दुबारा नहीं आऊँगा
तुम्हारी अनुपस्थिति के अंधकार में खो जाऊँगा
स्मृतियों में प्रथम स्पर्श-सा चुभूँगा
हर
वसंत
जब
फूल
आएँगे
इन
लताओं
में
मैं सीढ़ियों से अपना उतरना याद करूँगा
तुम्हें भूल जाऊँगा
कहीं फूल बन खिल उठूँगा
धूल
में
मिल
जाऊँगा
प्रतीक्षा
प्रेम
जो होता है असीम
उसे सीमित करता है साथ—
हो सकता है वह किसी प्रेमी के दिल जितना छोटा
या किसी अँगूठी के वलय जितना संकीर्ण,
सौंदर्य
जो होता है निराकार
क़द्रदान उसे सजा सकते हैं दीवाल पर किसी फ़्रेम में
क्रय-विक्रय कर सकते हैं उस पर बोलियाँ लगा कर।
तुम जो किसी तितली की तरह सुंदर हो
मेरा दिल फूल-सा सिहरता है तुम्हें छू कर
जब तुम चली जाती हो हर बार
वह तुम्हारे लौट आने का करता है इंतज़ार।
अपनी संपूर्णता में व्याकुल—
पुकारता है चारों दिशाओं में तुम्हें नि:शब्द
एक-एक पंखुड़ी संग
तुम्हारी स्मृति की धूल में सो जाता है।
कोई महक तुम्हें खींचेगी कभी
तो फिर आओगी तुम,
चुन लेना यहाँ कोई फूल ज़रूर
वे तुम्हारी कामना में खिलते हैं
महक सँजोए हुए मुरझाते हैं।
क्या सचमुच प्रेम से रिक्त हो चुका हूँ मैं!
एक
पिल्ले मेरे पाँव चूमकर मुँह फेर लेते हैं
चिड़ियाँ मेरे चुमकारने पर चली जाती हैं दूर
बिल्लियाँ हैं जो सर्द रातों में दरवाज़ों पर
दस्तक देती हैं और
दीनता से पूछती हैं—आऊँ?
कभी पास आकर पूँछ फेरती हैं, मना करने पर
शैतानी आँखों से डरा
सोचती हैं मैं उन्हें सचमुच कर बैठूँगा प्रेम
जो जितना भरा है दैन्य से उसमें छिपी है उतनी हिंसा
यह मुझे बिल्लियाँ बताती हैं।
दो
सबसे अनमोल रत्न खो देने के बाद जब अकिंचन था
मैंने बंद कर दिया दरवाज़ों पर ताले लगाना
खिड़कियों पर चटकनियाँ
उन दिनों आने लगीं थीं बिल्लियाँ
बेरोकटोक… अनायास…
मेरे दुःख पर आँसू बहाने,
अपना रोना भूल मैं उन्हें बँधाने लगता ढाँढस
यह सोचकर ग्लानि में होता
कि रोने से हो सकती है हिंसा
जो किसी बिल्ली के दुःख का कारण बन सकती है
वे करुणा की प्रतिमूर्तियाँ थीं
या संभवत: कुशल अभिनेत्रियाँ।
तीन
बिल्लियों के साथ होने से होता है लोकापवाद
बिल्लियाँ भी होती हैं अफ़वाहबाज़
यह मुझे मुर्ग़ियों ने बताया
जिन्हें ईश्वर ने बनाया ही इसलिए था
कि वे तंदूर में भूनी जाएँ
या मय के साथ गटका ली जाएँ ईश्वरपुत्रों द्वारा
जिन्होंने एक ही अपराध किया था अपनी नियति स्वीकार कर लेना
जिन्होंने एक ही प्रतिरोध किया था बिल्लियों से असहमति दर्ज करना
मुझे नशे में देख उन्होंने खेद प्रकट करते हुए कहा :
बिल्लियाँ बताती हैं स्त्रियाँ इसलिए दूर हुईं तुमसे
कि तुम्हारे पास अनेक थीं स्त्रियाँ
कि तुम थे हिंसक कि तुम थे नपुंसक कि तुम थे…
कि मैंने याद किया जब भगौने में रखा दूध
चट कर पेट न भरता वे चाट डालती थीं
कामदग्ध देह से निकलता स्वेद
विछोह में झरते अश्रु
प्रथमांतिम प्रेयसी की कामना में बहता हुआ वीर्य तक चाट डालती थीं—
बिल्लियों ने बताई मुझे कृतघ्नता की परिभाषा।
चार
बिल्लियाँ कुशल योजनाकार थीं
वे बिल्लों, कुत्तों, चूहों सबसे गाँठ जोड़कर चलतीं
कबूतरों पर वात्सल्य लुटातीं
मनुष्यों से जुड़ते हुए रहतीं सतर्क
जुटातीं सारे नक़्शे दस्तावेज़
तलाशतीं कोई चोर दरवाज़ा,
शाकाहारियों के समक्ष वे ऐसे बैठतीं चुप
कि आज तक मुँह ही न खुला हो जैसे
मांसाहारियों के सामने ख़ून सनी ठिठोलियों बीच
सुखमग्न पलटियाँ खाने में तनिक देर न करतीं
जब मैंने उन्हें गालियाँ देने के लिए मुँह खोला
तभी मौक़ा देख मुर्ग़ियाँ चली आईं मुँह में
और गालियाँ लिए पेट में पच गईं—
बिल्लियाँ जाते-जाते मुझे मुर्ग़ियाँ खाना सिखा गईं।
पाँच
एक बार एक व्यक्ति ने एक बिल्ली पाली
निसदिन उसे ही निहारता
उसकी आँखें बिल्ली-सी हो गईं
उसकी पत्नी उसे छोड़ चली गई
लोगों ने दोषी क़रार दिया बेचारी बिल्ली को
किसी ने नहीं कहा कि जब वह
एक हाथ से बिल्ली की पीठ रगड़ता
दूसरे से सहलाता अपना शिश्न
कि वह किसी कुतिया के साथ यही करता था
और एक गाय के साथ भी
सब ने बस यही कहा—
बिल्लियाँ बर्बाद कर सकती हैं।
छह
बिल्लियाँ
आँसू की बूँद-सी नि:शब्द
टपक कर गालों पर ढुलकती दबे पाँव
चिबुक चूम कर अदृश्य हो जाती हैं
अँधेरों में
उनकी आँखें तारों-सी चमकती हैं
उनकी पीड़ाएँ आकाशगंगाओं से उतरती हैं
और खटिए पर कविता की तरह पसर जाती हैं
उनका रोना मृत्युशोक-सा कारुणिक है
उनके थके हुए पंजे भटकते हैं दरवाज़ों पर
उनके निर्दोष चेहरे से झाँकता है विचित्र सम्मोहन।
सात
सौंदर्य और हिंसा का अद्भुत संयोग हैं बिल्लियाँ
हमारे सबसे कमज़ोर पलों की साथी
हमारे अकेलेपन की राज़दार
हमारे नशे के लिए ज्यों ज़रूरी कोई शराब
और हम हताशाएँ अपनी मढ़ देते हैं
उनके नरम और ख़ूबसूरत माथे पर,
मैं जितना दूर स्त्रियों से था कभी उतना बिल्लियों से हूँ अभी
वे मेरी स्मृति का अंश हैं या मेरी कविता का
मेरी आत्मा पर उनके पंजों के दिए घाव हैं
मेरी पलकों पर है उनकी अधूरी नींदों का भार
रात-बिरात आज भी दबे पाँव चली आती हैं वे
दु:स्वप्न-सी… अचानक…
इन दिनों मैं एक स्त्री के प्रेम में हूँ जिसे बिल्लियाँ पसंद हैं।
***
सुघोष मिश्र हिंदी के आते हुए कवियों में से हैं, लेकिन वह अपनी कविता को बहुत ज़्यादा सामने लाना नहीं चाहते हैं, जबकि आजकल यह बहुत आसान है। वह धीरज, दायित्व और फ़िक्र सँभाले हुए, शायद उस वक़्त की प्रतीक्षा में हैं, जब बहुत सारे आते हुए कवि जाते हुए नज़र आएँगे. सुघोष शोध के सिलसिले में इन दिनों दिल्ली में रह रहे हैं। उनसे sughosh0990@gmail.com पर बात की जा सकती है।
बिना पढ़े ही सब समझ आ गईं थीं..
शुरू से आखीर तक पढ़ा तो लगा, ‘अमुक’ कवि की कविताएँ हैं. टिप्पणियाँ पढ़ीं तो लगा कि जरुरी कविताएँ हैं..
और फिर अपने समय की कॉलर उलट कर देखा तो लगा
कि कोई अगंभीर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए
क्या पता कब कौन सी टिप्पणी का वेट
“कुछ छूट पा जाने” का इंडोर्समेंट बन जाए ।