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तापस

Tapas Shukla poems
तापस | क्लिक : पुनीत मिश्र

जीना

मुश्किल दुपहर में जीना पड़ता है
किसी की फटकार या मार खाकर जीना पड़ता है
हम ख़ुद के लिए जीते हैं और ख़ुद के लिए मर जाते हैं
किसी ने कहा :
बाहर दुनिया में जो लोग संघर्ष कर रहे हैं,
उनसे पूछो कि भला वे क्यों जीना चाहते हैं
हिम्मत नहीं हुई पूछने की मगर ख़याल आया
कि वे भी न जीना चाहते हों
एक स्त्री कह रही थी कि ज़्यादा चुप रहना ही जीना है।

एक आदमी जो सुन-बोल नहीं सकता वह क्यों जीना चाहता है
अध्यापिका क्यों जीना चाहती है?
दर्जे की हर वह लड़की जो पहले मेरी दोस्त बाद में प्रेमिका है,
वह क्यों जीना चाहती है?
कोई और इस दौरान ख़ुद को लेकर काफ़ी चिंतित होगा कि वह आख़िर क्यों जिए?
सड़क पर चल रहे हैं वे
नहीं मालूम उन्हें पहुँचना किधर है
बस चलते हैं, पूछते नहीं किसी से कहीं का पता,
दूर से देखने वाले उन्हें पागल समझते हैं…
एक साक्षात्कार में एक व्यक्ति से पूछा गया कि आप इतने शांत क्यों हैं?
वह चुप था,
वह बहुत पहले शांत हो चुका था।

बुलेट पर प्रेमिका

यह विचित्र सत्य है मेरे जीवन का जैसे कुछ फूट-फूट कर रह गया हो। बात किए महीने हो चले, अब देखना भी दूर तक खो गया था। कहीं मैं मज़बूत किए हुए था ख़ुद को और उस बुलेट को जो रोज़ बीच रास्ते में बंद हो जाती।

मैं सोचता हुआ आगे जा रहा था कि कहीं ट्रैफ़िक मिले और हम इंतज़ार करें उसके खुलने का। उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं रुकना चाहता था—रोज़ की तरह। मैं उस बुलेट पर सवार प्रेमिका के अंतःकरण में धीरे-धीरे लय हो चला—रोज़ की तरह, बस फ़र्क़ इतना था कि आज यह सच है। मेरा मन तब सोचता था, अम्मा की तबियत ख़राब है, उनको दुबारा मस्तिष्काघात हो चुका है और वह आई.सी.यू. में हैं। जी घबराता हुआ डगमगा जाता है—कहीं न कहीं! अम्मा के लिए बहुत प्यार है मन में, शायद इसलिए!

एंबुलेंस की आवाज़ गूँजती है। कानों को बार-बार क्लेश होता है। प्रेमिका कंधे पर हाथ रखे हुए है। उन हाथों को पकड़ लेने का मन बार-बार करता है।

मन दुःखी है। बुलेट की गड़गड़ाहट सुनाई नहीं देती। मैं रास्ते में रोक देना चाहता हूँ बुलेट को या और तेज़ चलाना चाहता हूँ ताकि लड़ जाऊँ। मैं कुछ मरना चाहता हूँ, क्योंकि कुछ ज़िंदा रहना चाहता हूँ।

अम्मा ऐ अम्मा उठ जाओ!

…और रोने पर मैं डर जाना चाहता हूँ। प्रेमिका की आँखें धँस गई हैं उन दीवारों में जो गिर गई थी।

अब क्या हो?

मैं भूल गया ख़ुद को, बुलेट को, प्रेमिका को!

अम्मा को गुज़रे इकतीस दिन हो चुके और अब सब कुछ अधूरा है—यह कविता भी।

प्रेमिका से जी ख़राब हो गया, बुलेट से भी जी ख़राब हो गया… मैं गिरा तो मगर एक खरोंच नहीं।

बहुत से दोस्त, स्त्रियाँ और घर के लोग मौजूद थे।

याद आया मेरा न बोलना अम्मा से और तबियत ख़राब होना, एंबुलेंस, शवयात्रा, चीख़, गाना, प्रेमिका पर आरोप अब बस! यहीं स्टैंड लगा लूँगा जीवन का और चुपचाप सो जाऊँगा उस बुलेट पर जिस बुलेट पर प्रेमिका…

***

तापस (जन्म : 23 दिसंबर 2000) की कविताएँ कहीं प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। वह रंगकर्म और संगीत के संसार से भी संबद्ध हैं। बनारस में रहते हैं। उनसे roopvanitapas@gmail.com पर बात की जा सकती है।

3 Comments

  1. शिरीष मौर्य जनवरी 7, 2019 at 5:36 पूर्वाह्न

    तापस से कविताएं मांग कर अनुनाद पर छापने का संयोग शायद पिछले बरस हुआ था। वे दो कविताएं थीं। उनमें आगामी कविताओं की कुछ सहज-सी सूचनाएं थीं। सबसे सहज सूचना तो यही थी कि तापस कवि है।

    यहां इन कविताओं को पढ़ रहा हूं। मैं बनारस के उन्हीं रास्तों पर हूं। ये रास्ते जितना धरती पर हैं, उससे ज़्यादा दिल और दिमाग़ हैं। मैं पढ़ रहा हूं और सोच रहा हूं कि ये तापस की किस उम्र की कविताएं हैं? ये कौन-सा समाज अथवा मनोसमाज है, जिसमें पढ़ते हुए जीते हुए हो जाता है? मैं केवल पढ़ता क्यों नहीं, जीने क्यों लगता हूं? यहीं ठीक बीच में एक विकट अपराधबोध से मेरा सामना है, पर रहने देता हूं, निजी व्याख्याओं से किसी युवा की कविताओं पर प्रतिक्रिया को नष्ट कर देना बाद में फिर एक अपराधबाध ही होगा।
    http://www.anunad.com/2017/12/blog-post.html

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    1. अविनाश मिश्र जनवरी 8, 2019 at 5:44 पूर्वाह्न

      आदरणीय शिरीष जी,

      ‘अनुनाद’ पर प्रकाशित तापस की कविताओं पर नज़र नहीं गई थी। यहाँ प्रस्तुत कविताओं के साथ दिया गया परिचय कवि द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी पर ही है, इसमें कवि ने ‘अनुनाद’ में अपने प्रकाशन का उल्लेख नहीं किया है। बहरहाल, इसे सुधार दिया गया है।

      आपका बहुत आभार

      अविनाश मिश्र
      संपादक
      ‘सदानीरा’

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      1. तापस जनवरी 8, 2019 at 6:27 पूर्वाह्न

        सूचना देने में हड़बड़ी और नर्वसनेस में मुझसे भूल हो गयी थी । दिल से माफ़ी चाहता हूँ ।

        Reply

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